आज सिरहाने

उपन्यासकार
वृंदावनलाल वर्मा

*

प्रकाशक
प्रभात प्रकाशन
४/११ आसफ अली रोड,
नई दिल्ली -  ११०००२

*

पृष्ठ - २७२

मूल्य - $ ११.९५ 

ISBN: ८१-७३१५-०४९-४

*

प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

कचनार (उपन्यास)

वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास कचनार की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है। कल्पना और तत्कालीन इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण इसकी विशेषता है। उपन्यास का घटनाकाल १७९२ से १८०३ के बीच का है, जबकि धामोनी में मुख्यतः गोंड - राजगोंड बसते थे। धामोनी, सागर और झाँसी के पास का एक सूबा है। यह सूबा उस काल में कभी गोंडो के द्वारा शासित हुआ, तो कभी मुगलों, मराठों और बुंदेलों के हाथ होता हुआ फिर वापस गोंडों के नियंत्रण में आ गया।

उपन्यास की नायिका कचनार, उस समय की एक ऐसी नारी है, जो अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण अनाथ और सामान्य परिवार में जन्म लेने के बाद भी समाज के लिए मार्गदर्शक बनी।  कचनार के चरित्र के इर्द-गिर्द एक अत्यंत रोचक कहानी  विभिन्न उतार चढ़ाव से होते हुए अपने मुकाम पर पहुँचती है।

उपन्यास में वर्णित अधिकांश घटनाएँ सच्ची हैं। गोसाइयों की टोलियाँ, पिंडारियों का आतंक जिनसे अंग्रेज़ तक हमेशा तबाह रहे। होलकर, भोंसले, सिंधिया और छोटे-छोटे रावों, जागीरदारों की आपसी कलह, सभी कुछ तो उस काल में बार-बार घटित हो रहा था। इस सबके बाबजूद, धामोनी लगातार निकट के छोटे बड़े शासकों की निगाह में बना रहा।

परदेसियों के तोड़-मरोड़कर लिखे हुए इतिहास जिसमें हर सुंदर-से-सुंदर चेहरा अपने को कुरुप और विकृत पाता है, उसके विपरीत वर्मा जी ने परंपरा पर अधिक विश्वास किया है, क्यों कि परंपरा अतिशयता की गोद में खेलते हुए भी सत्य की ओर संकेत करती है, जिससे हम इतिहास को ज़्यादा अच्छी तरह समझ पाते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अधिकांश भारतीय लेखकों ने परदेसियों द्वारा लिखे गए इतिहास को अपने सिर आँखों पर बिठाया है, पर उनमें वृंदावनलाल जी की आवाज़ एक अलग खनकती हुई हुंकार के समान प्रतीत होती है।

इस उपन्यास में एक जन्म में तीन जन्मों के स्मरण की कहानी है। मस्तिष्क में चोट लगने से स्मरण शक्ति बिगड़ने या खो जाने की घटना पर आधारित कई कहानियाँ लिखी गई हैं, पर वर्मा जी ने उसे एक नए ढंग से प्रस्तुत किया है और एक नया सवाल उठाया है, जिसका हल ढूँढते-ढूँढते महंत अचलपुरी जी वास्तविक संन्यास को प्रेरित हो जाते हैं।

उपन्यास में वर्णित घटनाओं में स्वाभाविकता और रहस्य इस प्रकार बुना गया है कि सबकुछ सत्य प्रतीत होता है। इसका एक कारण यह भी है कि कथा के तथ्यों को बड़ी सावधानी से परखकर ऐतिहासिक ग्रंथों के अध्ययन के बाद उपन्यास की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। भूमिका में स्वयं वृंदावनलाल वर्मा कहते हैं कि इस उपन्यास का घटनाक्रम तत्कालीन गवर्नर जनरल द्वारा लिखित ‘नोट्स ऑन दि ट्रांजेक्शंस ऑफ दि मरहठा एम्पायर’ से लिया गया है जिसमें  सन् 1772 से 1803 ई. तक की उन सब महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है जिनका संबंध ईस्ट इंडिया कंपनी से था। गवर्नर जनरल ने जो टिप्पणियाँ इन घटनाओं पर बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के पास भेजी थीं, वे सब इस पुस्तक में हैं। लड़ाइयों के नक्शे भी। इसके अतिरिक्त उपन्यास तैयार करते समय श्री अलविन की ‘फॉकसोंग्स् ऑव दि मेखल रेंज’ और नागपुर से सरकार द्वारा प्रकाशित ‘दि राजगोंड्स्’ और  सर यदुनाथ सरकार के ग्रंथ ‘फाल ऑव दि मुगल एम्पायर’  के संदर्भों का भी ध्यान रखा गया है।

यह उपन्यास उन साहित्यिक रचनाओं में से एक है कि जिसे एक बार पढ़ना आरंभ करने पर पूरा खत्म किए बिना चैन नहीं मिलता। वृंदावन ऐतिहसिक साहित्य के सिद्धहस्त लेखक हैं। इस उपन्यास में भी उन्होंने अपनी यह विशिष्टता बनाए रखी है। वर्णनों, संवादों और विवरणों में उनकी भाषा ऐसी जीवंत हो उठती है जिसे बार बार दोहराने का मन होता है। वह उस काल और वातावरण को आँखों के सामने ला खड़ा करती है। इसकी एक झलक निम्नलिखित उद्धरण में देखी जा सकती है।

मानसिंह-'अच्छा सुनो। दुलैयाजू के देखते ही मन के भीतर उजाले की चकाचौंध-सी लग जाती है। कचनार को देखने को जी तो चाहता है, परंतु देखते ही सहम-सा जाता है। दुलैयाजू का स्वर सारंगी-सा मीठा है, कचनार का कंठ मीठा होते हुए भी चुनौती-सा देता है। दुलैयाजू कमल हैं, कचनार कँटीला गुलाब। जिस समय दूलैयाजू को हल्दी लगाई गई, मुखड़ा सूरजमुखी-सा लगता था। उनकी आँखों में मद है, कचनार की आँख ओले-सी सफ़ेद और ठंडी। उनकी मुस्कान में ओठों पर चाँदनी-सी खिल जाती है, कचनार की मुस्कान में ओठ व्यंग्य-सा करते हैं। दुलैयाजू की एक गति, एक मरोड़ न जाने कितनी गुदगुदी पैदा कर देती है, कचनार जब चलती है, ऐसा जान पड़ता है कि किसी मठ की योगिन है। बाल दोनों के बिलकुल काले और रेशम जैसे चिकने हैं। दोनों से कनक की किरणें-सी फूटती हैं। दोनों के शरीर में सम्मोहन-सा जादू भरा है। दोनों बहुत सलोनी है। दुलैयाजू को देखते और बात करते कभी जी नहीं अघाता। घूँघट उघड़ते ही ऐसा लगता है जैसे केसर बिखेर दी हो। कचनार को देखने पर ऐसा जान पड़ता है जैसे चौक पूर दिया हो। दुलैयाजू वशीकरण मंत्र है और कचनार टोना उतारने वाला यंत्र...'
डरू नें हँस कर कहा, ''दुलैयाजू लड्डू हैं और कचनार खुरमा, गुटगुटा।''

१६ जून २००८