अमर कहानी

 
रामप्रसाद बिस्मिल
शंकर नारायण राव


१८ दिसंबर १९२७ का वह दिन!
गोरखपुर सेण्ट्रल जेल के बडे फाटक के सामने अधेड़ आयु की एक महिला इंतजार में खड़ी थी। उसके चेहरे पर कुछ उदासी छाई थी। चिंता भी स्पष्ट दिखलाई दे रही थी। वह इसी सोच में थी कि, उसे कब जेल के अन्दर जाने की आज्ञा मिलती है। इसी बीच महिला के पति भी वहाँ आये। पत्नी को पहले ही वहाँ आया देख, वे चकित से रह गये। पत्नी के पास ही वे भी बैठ गये और अब दोनों भीतर जाने के लिए बुलाये जाने की बाट जोहने लगे। एक युवक भी वहाँ पहुँच गया। वह इनका रिश्तेदार नहीं था मगर वह जानता था कि इन दोनों को अन्दर प्रवेश करने की इजाजत मिल जायेगी। वह अपने बारे में सोच रहा था कि वह स्वयं कैसे भीतर जा सकेगा?

जेल के अफसर वहाँ आये। उन्होंने पति-पत्नी दोनों को बुलाया। वहीं खड़ा युवक भी उनके पीछे-पीछे जाने लगा। पहरेदार ने उसे रोक दिया और कड़ककर पूछा, ’’तुम कौन हो?‘‘
महिला ने अनुरोध के स्वर में कहा, ’’भैया, उसे भी अन्दर आने दो। वह मेरा भानजा है।‘‘ पहरेदार ने युवक को भी उनके साथ जाने दिया। तीनों व्यक्ति जेल में एक ऐसे स्वतंत्रता सैनिक से मिलने जा रहे थे, जिसे सुबह फाँसी की सजा दी जानेवाली थी।

वीर स्वतंत्रता सैनिक

बेडियाँ पहने उस स्वतंत्रता सैनिक को वहाँ लाया गया। हथकड़ी-बेडियाँ उसके शरीर पर आभूषण जैसी दिखलाई दे रही थीं। वह अन्तिम बार अपनी माँ को देख रहा था। वह सोच रहा था कि अब मैं आखरी बार उसे ’माँ‘ कहकर पुकार सकूँगा। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। एकाएक उसकी आँखों से आँसू निकलकर गालों पर बहने लगे। उसकी माँ ने दृढ़ता के स्वर में कहा-’’मेरे बेटे, यह तुम क्या कर रहे हो ? मैं तो अपने सपूत को एक महान योद्धा मानती हूँ। मैं सोचती थी कि मेरे बेटे का नाम सुनते ही ब्रिटिश सरकार भय से काँप उठती है। मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरा बेटा मौत से डरता है। यदि तुम रोते हुए ही मौत का सामना करना चाहते हो तो तुमने आजादी की लड़ाई में हिस्सा ही क्यों लिया ?‘‘
वीर माता की देशभक्ति और दृढ़ता देखकर जेल के अफसर भी चकित रह गये। उस वीर स्वाधीनता सेनानी ने कहा-’’माँ, ये आँसू भय के आँसू नहीं हैं। ये हर्ष के आँसू हैं-तुम जैसी वीर माता को पाने की खुशी के हैं ये आँसू।‘‘
उस वीर माता के वीर पुत्र का नाम था रामप्रसाद ’बिस्मिल‘। वे प्रसिद्ध काकोरी रेल डकैती प्रकरण के अगुआ थे। इस तरह ये भेंट खत्म हुई।

दूसरी सुबह रामप्रसाद रोज की तुलना में कुछ जल्दी जागा। स्नान के बाद उसने सुबह की प्रार्थना की। अपनी माँ को उसने अन्तिम पत्र लिखा और फिर वह मौत के इन्तजार में चुपचाप बैठ गया। अफसर वहाँ आये। उन्होंने रामप्रसाद की बेडियाँ काट दीं। वे जेल की कठोरी से उसे फाँसीघर की ओर ले जाने लगे। रास्ते में भी उसके चेहरे पर किसी तरह की चिन्ता दिखलाई नहीं दे रही थी। वह एक वीर की भाँति चल रहा था। यह सब देखकर जेल के कठोर अफसर भी दंग रह गये। जब उसे काल कोठरी की तरफ ले जाया जाने लगा तो उसने खुशी से ’वन्दे मातरम्‘ तथा ’भारत माता की जय‘ का ऊँची स्वर में घोष किया। ऊँची आवाज में, ’ब्रिटिश सरकार मुर्दाबाद‘ का नारा लगाया। बाद में रामप्रसाद परासुब ने धीमे स्वर में ’विश्वानि देव सबितुः दुरितानि परासुब‘ और कुछ अन्य प्रार्थनायें कीं और..... और फाँसी पर चढ़ गया।

जब रामप्रसाद को फाँसी दी जा रही थी तब जेल के आसपास कड़ा पहरा था। उसकी मृत्यु के बाद अधिकारियों ने उसका शव काल-कोठरी से बाहर निकाला। जेल के बाहर उसके माता-पिता ही नहीं अपितु सैकडों नर-नारी सजल नेत्रों के साथ खडे थे। गोरखपुर के नागरिकों ने भारत माँ के इस वीर सपूत के शव को फूलों से सजाया। एक बडे जुलूस की तरह उसकी शवयात्रा निकाली गयी। रास्ते में असंख्य नर-नारियों ने शव पर पुष्प बरसाये और इस तरह इस बलिदानी सपूत का अंतिम संस्कार किया गया। रामप्रसाद उन गिने-चुने शहीदों की श्रेणी में जा पहुँचे थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत का सपना साकार करने के लिये बलिदान किया था। उनकी कोशिश थी कि किसी न किसी तरह यह देश आजाद हो।

प्रारंभिक जीवन

रामप्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर नामक स्थान पर १८९७ में हुआ था। उनके पुर्वज ग्वालियर राज्य के तोमरगढ़ नामक स्थान के थे। यह इलाका चम्बल नदी के किनारे बसा था और उसकी-गणना ब्रिटिश प्रान्तों के साथ होती थी। चम्बल घाटी के रहने वाले वीर और मेहनती लोग हुआ करते थे। अनेक पीढ़ियों से कई राज्यों ने इन लोगों पर नियंत्रण करने की कोशिश की, मगर किसी को भी सफलता नहीं मिली। रामप्रसाद के पिता मुरलीधर ने बहुत कम शिक्षा पाई थी। वे शाहजहाँपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे। कुछ समय बाद वे नौकरी से ऊब गये और नौकरी छोड़कर उन्होंने स्वतंत्र जीवन-यापन शुरू कर दिया। वे ब्याज पर ऋण देने लगे और उनकी गाडियाँ भी किराये पर चलने लगीं। उनका पहला पुत्र काफी कम समय जीवित रहा। रामप्रसाद उनका दूसरा पुत्र था।

इस बालक में भी पहले बच्चे की तरह रोग के लक्षण दिखाई देने लगे थे। उसकी दादी ने झाड़-फूँक करनेवालों से ताबीज लाकर बालक के गले में बाँधे। ममतामयी दादी से बच्चे को चंगा करने के लिये जो कुछ कहा जाता, वह खुशी से करती। आखिर यह बच्चा बच गया। रामप्रसाद को सम्पूर्ण परिवार का असीम प्यार मिला। जब वह सात वर्ष का था तो पिता मुरलीधर ने उसे हिन्दी पढाना शुरू किया। साथ ही उर्दू सीखने के लिये उसे मौलवी के पास भेजा गया। अंत में रामप्रसाद शाला में जाने लगा।

१४ वर्ष की आयु में इस बालक ने उर्दू में चौथी कक्षा की पढाई पूरी कर ली। वह उर्दू की कुछ रोचक कथाएँ और उपन्यास भी पढ़ने लगा था। पुस्तकें खरीदने के लिये अब उसे पैसों की जरूरत पड़ी। लेकिन पिताजी उसके लिये पैसे नहीं देते थे। रामप्रसाद ने सरल रास्ता चुना, वह पिता के संदूक से पैसे चुराने लगा। संगति के कारण उसे बीड़ी-सिगरेट पीने की लत भी लग गई। कभी-कभी वह भाँग और चरस भी पी लेता। इसी कारण रामप्रसाद पाँचवी कक्षा में दो बार फेल हो गया। किसी न किसी तरह पिता को लड़के की इन आदतों की जानकारी मिल गई उन्होंने संदूक का ताला बदल दिया। रामप्रसाद ने अँग्रेजी शाला में जाने की इच्छा प्रकट की। पिताजी इसके लिये राजी नहीं हुए किन्तु रामप्रसाद की माँ ने भी बेटे का पक्ष लिया तब पिता ने उसे अँग्रेजीं शाला में भर्ती करा दिया।

एक नई राह

रामप्रसाद के घर के पास ही एक मंदिर था। उसमें नये पुजारीजी आये थे। वे रामप्रसाद को बहुत चाहते थे। उनके प्रेम और मार्गदर्शन के कारण उसने सब बुरी आदतें छोड़ दीं। वह नियम से पूजा भी करने लगा। अंग्रेजी शाला में भी सुशीलचंद्र सेन नामक छात्र से रामप्रसाद की अच्छी मित्रता हो गई उसकी संगति से प्रभावित होकर रामप्रसाद ने धूम्रपान भी छोड़ दिया। मुंशी इन्द्रजीत नामक एक भद्र पुरूष ने युवा रामप्रसाद को पूजा करते देखा। वे बडे प्रसन्न हुए। मुंशीजी ने रामप्रसाद को संध्यावंदन की विधि सिखलाई। आर्य समाज के विषय में भी उन्होंने शिक्षा दी। रामप्रसाद ने स्वामी दयानंद की पुस्तक ’सत्यार्थ-प्रकाश‘ पढी। इस ग्रंथ से भी उसे प्रेरणा मिली। और उसने एक वीर पुरूष के रूप् में ऊँचा उठने का संकल्प कर लिया। रामप्रसाद ने ’ब्रह्यचर्य‘ का महत्व समझा और उसका हर तरह से पालन भी किया। उसने शाम को भोजन करना छोड़ दिया। चटपटी या खट्टी चीजों के साथ भोजन में नमक का भी त्याग कर दिया। ब्रह्यचर्य व्रत के पालन तथा नियमित व्यायाम के कारण रामप्रसाद का चेहरा दमकने लगा। उसका शरीर फौलाद की भाँति मजबूत बनता गया।

आर्य समाज के सिद्धान्तों का रामप्रसाद पर बड़ा गहरा प्रभाव हुआ था। कभी-कभी अपने पिता मुरलीधर से उनकी गर्मागर्म बहस भी हो जाती। गुस्से में आकर पिता ने युवक रामप्रसाद को घर से निकाल दिया। दो दिन तक वे घर से बाहर नजदीक के जंगल में घूमते रहे और फिर शाहजहाँपुर लौट आये। आर्य समाज की एक सभा में होनवाले प्रवचन वे सुन रहे थे। पिता के भेजे हुए दो आदमियों ने उन्हें पकड़ लिया और उन्हें मिशन स्कूल के मुख्याध्यापक के पास ले गये जहाँ वे पढ़ते थे। ईसाई मुख्याध्यापक ने पिता-पुत्र दोनों को प्रेम से समझाया। तब मुरलीधर ने अनुभव किया कि मारपीट कर लड़के को सुधारा नहीं जा सकता।

आर्य समाज के युवा अनुयायियों ने आपस में सलाह-मशविरा करके ’आर्य कुमार-सभा‘ की स्थापना की। उन्होंने सभायें कीं व जुलूस निकाले। पुलिस को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं इसके फलस्वरूप हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगा न हो जाये। सरकार ने सभाओं-जुलूसों पर रोक लगा दी। आर्य समाज के ज्येष्ठ नेता भी युवकों से नाराज हो गये। उन्होंने कुमार-सभा को अपने दफ्तर से बाहर निकाल दिया। कुछ समय तक तो कुमार-सभा सक्रिय रही, मगर बाद में उसकी गतिविधियाँ मंद पड़ने लगीं। यद्यपि कुमार-सभा का काम कुछ ही महीने चला मगर इतने कम समय में ही उसके सत्कार्यो की प्रसिद्धि शाहजहाँपुर में और उसके बाहर भी फैल गई। इसी बीच आर्य समाज के एक नेता स्वामी सोमदेवजी शाहजहाँपुर आये और अपना स्वास्थ सुधारने के लिये कुछ समय तक वहाँ रहे। रक्त की कमी से उनका शरीर बड़ा कमजोन हो गया था। युवक रामप्रसाद ने स्वामी सोमदेवजी की लगन के साथ सेवा की।

स्वामी सोमदेवजी महान देशभक्त और विद्वान थे। वे योगविद्या में भी कुशल थे। उन्होंने रामप्रसाद को धर्म और राजनीति पर शिक्षा दी तथा कुछ पुस्तकें पढ़ने का सुझाब भी दिया। उनके मार्गदर्शन से धर्म और राजनीति के विषय में रामप्रसाद के विचार बडे स्पष्ट हो गये। सन् १९१६ में भाई परमानंदजी को ’लाहौर षडयंत्र प्रकरण‘ फाँसी की सजा दी गई। उन्होंने ’तवारीखे हिग्द‘ नामक एक पुस्तक लिखी थी। रामप्रसाद ने वह पुस्तक पढी। परमानंदजी की पुस्तक से तथा स्वयं उनसे वे बडे प्रभावित हुए। जब उन्होंने परमानंदजी को मृत्युदंड दिये जाने का समाचार सुना, तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि गोरी ब्रिटिश सरकार से वे इस अन्याय का बदला जरूर लेंगे। उन्होंने इस प्रतिज्ञा की जानकारी गुरू सोमदेवजी को भी दी। गुरूजी ने कहा ’’प्रतिज्ञा करना आसान है मगर उसे पूर्ण करना बहुत कठिन है।‘‘ गुरूजी के चरण छूकर रामप्रसाद ने कहा ’’यदि इन चरणों की मुझ पर कृपा रही तो मैं अवश्य प्रतिज्ञा पूर्ण करूँगा। कोई भी शक्ति मुझे रोक नहीं सकेगी।‘‘ रामप्रसाद के क्रांतिकारी जीवन की यहीं से शुरूवात हुई।

तिलकजी से मुलाकात

कुछ दिनों के बाद गुरू सोमदेवजी का देहान्त हो गया। तब रामप्रसाद नवीं कक्षा में थे। शाहजहाँपुर सेवा-समिति में वे एक उत्साही स्वयंसेवक की भाँति काम कर रहे थे। लखनऊ में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होनेवाला था। उस समय काँग्रेस में दो गुट थे। एक गुट में उदावादी नेता थे जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सीधी कार्रवाई के विरोधी थे। वे ब्रिटिश सरकार के समक्ष भारत की कठिनाइयाँ रखकर न्याय प्राप्त करने के पक्ष में थे। उनकी यह धारणा भी थी कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बना रहे। दूसरा गुट ’गर्मदल‘ के नाम से विख्यात था। उसके नेता ब्रिटिश सरकार से लड़कर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्षधर थे। इस गुट के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी थे। तिलकजी भी लखनऊ अधिवेशन में भाग लेनेवाले थे, इसलिये उग्रवादी गरम दल की विचारधारा के युवक कार्यकर्ता बड़ी संख्या में वहाँ आये थे। रामप्रसाद भी लखनऊ पहुँचे थे। स्वागत समिति में उदारवादियों का बहुमत था, इसीलिये तिलकजी के स्वागत का उन्होंने कोई खास इन्तजाम नहीं किया था। कुछ गिने-चुने लोग उन्हें लेने के लिये स्टेशन जानेवाले थे।

उधर युवकों की इच्छा थी कि स्टेशन से ही तिलकजी को जुलूस के साथ नगर में घुमाते हुए ले जाया जाये। वे बड़ी संख्या में स्टेशन पर एकत्र हुए थे। एम. ए. का एक छात्र उनका नेतृत्व कर रहा था। जैसे ही तिलकजी गाड़ी से नीचे उतरे, स्वागत समिति के कार्यकर्ताओं ने उन्हें घेर लिया और बाहर खड़ी कार तक उनको ले गये। एम. ए. का वह छात्र तथा रामप्रसाद फौरन आगे बढे और कार के सामने जाकर बैठ गये। ’’यदि यह कार चलेगी तो हमारे शरीर के ऊपर से।‘‘ उन्होंने ऐलान कर दिया था। स्वागत समिति के कायकर्ताओं तथा स्वयं तिलकजी ने उन्हें मनाने की कोशिश की मगर ये टस से मस न हुए। उनके मित्रों ने कहीं से एक बग्घी का इंतजाम किया था। उसके घोडे खोल दिये गये थे। युवक स्वयं बग्घी खींचने वाले थे। आखिर तिलकजी को बग्घी में बैठना पड़ा। उनका जुलूस निकाला गया। रास्ते में लोकमान्य तिलक पर फूलों की वर्षा की गई।


किताबों से गोली तक

काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में रामप्रसाद ’गुप्त समिति‘ के कुछ सदस्यों से मिले। यह समिति क्रांतिकारी गतिविधियों में बडे महत्व की भूमिका निभा रही थी। एक वर्ष पूर्व ही रामप्रसाद में क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ी थी। इस मुलाकात से उनकी भावनाओं को आधार मिला। शीघ्र ही वे क्रांतिकारियों की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन गये।

समिति के पास धन की कमी थी। शस्त्रास्त्र खरीदने के लिये उसे काफी धन चाहिये था। हजारों रूपयों की उसे जरूरत थी। रामप्रसाद ने एक योजना बनाई। उन्होंने सुझाव दिया कि वे क्रांतिकारियों के विषय में लिखी गई पुस्तकें बेचेंगे। इससे उन्हें धन तो मिलेगा ही, क्रांतिकारियों के विचारों का प्रसार भी होगा। उन्होंने अपनी माँ से कर्ज के रूप में ४०० रूपये लिये और एक पुस्तक ’अमरीका ने आजादी कैसे पाई ?‘ प्रकाशित की। इसी बीच गेंदालाल दीक्षित नामक एक क्रांतिकारी नेता को ग्वालियर में बन्दी बना लिया गया था। रामप्रसाद अधिक से अधिक नागरिकों को इस गिरफ्तारी की जानकारी देकर, गेंदालाल के प्रति सहानुभूति जगाने के इच्छुक थे। उन्होंने एक पर्चा प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था ’मेरे देशवासियों को एक सन्देशा।‘ पुस्तकों के इस व्यापार में रामप्रसाद ने न केवल अपनी माँ से लिया हुआ कर्ज लौटाया, बल्कि उन्हें दो सौ रूपयों का लाभ भी हो गया। तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार ने इन दोनों पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया।

पुस्तकें छापने से क्रांतिकारियों को धन मिला और उन्होंने शस्त्र खरीद लिये। रामप्रसाद ने ग्वालियर में घूमते हुए एक रिवाल्वर खरीदा और इससे उत्साहित होकर कुछ ही समय बाद वे फिर से ग्वालियर गये। उन दिनों रियासत में शस्त्र खरीद लेना बड़ा आसान था। एक दिन रामप्रसाद ने बाजार की एक दूकान में कुछ तलवारें, ढाल और चाकू देखे। हिम्मत करके रामप्रसाद दुकान में गया और शस्त्रों की कीमत पूछी। ’’आप राइफल तथा पिस्तौलें क्यों नहीं बेचते ?‘‘ उन्होंने पूछा। दूकानदार ने उन्हें पिस्तौलें दिखाई तथा कहा, ’’आप बाद में आइये। मैं किसी न किसी तरह एक-दो राइफल और पिस्तौलों का इंतजाम कर दूंगा। रामप्रसाद ने कुछ पिस्तौलें और चाकू खरीदे तथा वे लौट गये।

इस तरह घूमते-फिरते रामप्रसाद ने शस्त्रों के बारे में काफी जानकारी हासिल कर ली। उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि कौन सा शस्त्र पुराना है और कौन सा नया। हर हथियार की कीमत भी उन्हें मालूम हो गई थी। एक बार वे पुलिस के हाथों पड़ते-पड़ते बचे। ग्वालियर पुलिस को न जाने कैसे शस्त्रों की खरीदी की भनक मिल गई थी। खुफिया विभाग के एक सिपाही ने रामप्रसाद से मिलकर कहा कि, क्या वह कुछ शस्त्र खरीदेंगे ? वह सिपाही रामप्रसाद को अपने साथ ले गया। रामप्रसाद को कुछ भी पता नहीं था कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है। दरअसल वह एक पुलिस इंस्पेक्टर का घर था !

रामप्रसाद की किस्मत अच्छी थी कि वह इंस्पेक्टर घर में नहीं था। घर के सामने एक सिपाही पहरा दे रहा था। रामप्रसाद उसे पहचानता था। जो सिपाही रामप्रसाद को अपने साथ ले गया था, उसकी नजर बचाकर रामप्रसाद ने दूसरे सिपाही से पूछा कि, वह किसका घर है। उन्हें पता चला कि घर इंस्तेक्टर का ही है। पलक झपकते ही वे वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गये। उधर सिपाही को मालूम हो गया था कि क्रांतिकारियों की टोली ने शस्त्र खरीदकर जमा कर लिये हैं तथा उसी दिन वे लोग चले जायेंगे। रामप्रसाद भी चौकन्ने हो गये थे। सबकी नजर बचाकर वे शाहजहाँपुर पहुँच गये।

एक बार रामप्रसाद ने ऐसे पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट से रिवाल्वर खरीदा जो शीघ्र ही अवकाश लेने वाले थे। उन अधिकारी को कुछ हिचकिचाहट हुई इसलिये रामप्रसाद ने उन्हें एक हलफनामा लिखकर दिया कि मैं एक जमींदार का बेटा हूं। उन्होंने हलफनामे पर जमींदारों के दो हस्ताक्षर हिन्दी में तथा एक पुलिस इंस्पेक्टर के हस्ताक्षर अंग्रेजी में खुद ही कर डाले। किसी तरह रामप्रसाद को वह रिवाल्वर मिल गया। राइफलों, रिवाल्वरों, कारतूसों, चाकू-छूरियों सहित अनेक शस्त्र क्रांतिकारियों ने जमा कर लिये।

प्रतिबंधित पुस्तकों की बिक्री

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन दिल्ली में होने वाला था। रामप्रसाद ने सोचा कि ’अमरीका को आजादी कैसे मिली‘, शीर्षक पुस्तक बेचने का यह अच्छा मौका है। शाहजहाँपुर सेवा समिति की ओर से अधिवेशन के लिये एम्बुलेंस दल के रूप में क्रांतिकारी गये ताकि दिल्ली में घूमने-फिरने में उन्हें तकलीफ न हो। संयुक्त प्रान्त सरकार पुस्तक पर पाबन्दी लगा चुकी थी। इसी बात का प्रचार करते हुए, शाहजहाँपुर के युवकों ने पुस्तक बेचना आरम्भ किया। वे कहते थे-’’अमरीका को आजादी कैसे मिली ? संयुक्त प्रान्त सरकार ने जिस पुस्तक पर रोक लगा दी है-उसे पढ़िये।‘‘

खुफिया पुलिस के ध्यान में तुरन्त यह बात आ गई। उन्होंने काँग्रेस के शिविर को घेर लिया और पुस्तकों की बिक्री करने वाले युवकों की खोज करने लगी। रामप्रसाद को फौरन उसकी गंध मिल गई। वे दौड़कर उस तंबू में गये जहाँ पुस्तकें रखी थीं। अपने बडे से ओवरकोट में उन्होंने पुस्तकों का बण्डल छिपा लिया। एम्बुलेंस का लालफीता लगाकर वे पुस्तकों के बण्डल समेत निकल पडे। उस वक्त वे स्वयं-सेवक की वर्दी में थे। पुलिस की नाक के नीचे से वे काँग्रेस शिविर में चले गये। स्वागत समिति की इजाजत के बिना पुलिस भीतर नहीं जा सकती थी। इस तरह रामप्रसाद ने पुस्तकों की सभी प्रतियाँ बचा लीं और बाद में सब बेच डाली गई।

मौत की छाया

जब रामप्रसाद दिल्ली से शाहजहाँपुर लौटे तो उन्हें पता चला कि पुलिस उनको तथा उनके दोस्तों को खोज रही है। दो क्रांतिकारी युवकों के झगडे के कारण पुलिस को जानकारी मिल गई थी कि क्रांतिकारियों ने काफी शस्त्रास्त्र जमा कर लिये हैं। मैनपुरी में ही यह झगड़ा हुआ था और इसीलिये कुछ लोगों पर मुकदमा चलाया गया जो आगे चलकर ’मैनपुरी षड्यंत्र केस‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

रामप्रसाद को इस विषय में सब कुछ पता चल गया तो वे अपने तीन दोस्तों के साथ शाहजहाँपुर छोड़कर रवाना हो गये। कुछ दिन यहाँ-वहाँ घूमकर ये लोग प्रयाग पहुँचे। वहाँ वे एक धर्मशाला में ठहरे। अगला कदम क्या हो, इसे लेकर उनके बीच कहासुनी हो गई। मित्रों ने सोचा कि उनके बीच एक व्यक्ति कायर है तथा अगर वह पकड़ा गया तो पुलिस उनके सारे भेद जान जायेगी। उन्होंने फैसला किया कि उस कायर को मार डाला जाये। मगर रामप्रसाद को यह बात जँची नहीं। शेष क्रांतिकारी अब रामप्रसाद से नाराज हो गये। एक दिन शाम को सभी लोग यमुना किनारे घूमने गये। रामप्रसाद ने स्नान किया। वे शाम की प्रार्थना के लिये बैठे। एक मित्र ने कहा, ’’रामप्रसाद, तुम नदी के और नजदीक बैठो।‘‘ वे एक पत्थर के निकट बैठ गये। आँखें बंद करके उन्होंने प्रार्थना आरंभ की। जब वे तल्लीन होकर प्रार्थना करने लगे, उन्होंने गोली चलने की आवाज सुनी। एक गोली सनसनाती हुई उनके कान के पास से निकली। आँखें खोलकर रामप्रसाद ने अपना रिवाल्वर निकालना चाहा, तब तक दो और गोलियाँ चल चुकी थीं। रामप्रसाद का रिवाल्वर चमडे के केस में था अतः उन्हें निकालने में कुछ समय लगा। जब रामप्रसाद निशाना साध रहे थे, तो वे लोग भाग गये।

जब उन्हें पता चला कि दोस्तों ने उनकी हत्या की कोशिश की है, रामप्रसाद सन्न रह गये। गोली उनसे केवल एक फुट की दूरी से निकली थी। यदि वे अपने साथियों का पीछा करते तो खूनखराबा टल नहीं सकता था। इसके अलावा वे तीन थे और रामप्रसाद अकेले। उन्होंने सोचा कि अगला कोई भी कदम उठाने से पहले मुझे अपने साथियों को इकठ्ठा करना होगा। वह रात रामप्रसाद ने एक मित्र के साथ बिताई और वहाँ से लखनऊ रवाना हो गये। वहाँ क्रांतिकारी संगठन के अन्य सदस्यों को इस घटना की जानकारी दी। कुछ दिन वे उदास से जंगलों में घूमते रहे। फिर अपनी माँ के पास चले गये। अपने पुत्र की दिल हिला देने वाली कथा सुनकर माँ ने सुझाव दिया कि वे ग्वालियर रियासत में अपने सम्बन्धियों के यहाँ चले जायें।

इसी बीच पुलिस ने रामप्रसाद के खिलाफ मुकदमा दाखिल कर दिया था। पुलिस ने मुरलीधर से कहा कि वे अपने पुत्र को पुलिस के हवाले कर दें। उन्होंने धमकी दी कि यदि रामप्रसाद को उन्हें नहीं सौंपा गया तो पुलिस उनकी सम्पत्ति जब्त कर लेगी। मुरलीधर ने जो कीमत मिली, उसी पर अपनी सम्पत्ति बेच डाली और वे भी अपने परिवारजनों के साथ पुत्र के पास चले गये। रामप्रसाद ने उधर छिपते-छिपाते भी एक किसान का जीवन अपना लिया था। वे किसान भी थे और पशुपालक भी। इसीके साथ अपने क्रांतिकारी विचार साहित्य के माध्यम से प्रकट करना भी उन्होंने सीख लिया था। उन्होंने कई बंगला रचनाओं का हिन्दी अनुवाद किया। कुछ रचनायें उन्होंने स्वयं भी लिखीं। वे अपने पशु चराने स्वयं जाते थे। साथ में लिखने-पढ़ने की सामग्री भी ले जाते। पशु चरते और छाया तले बैठकर रामप्रसाद लिखा करते। उन्होंने ’’बोल्शेविक कार्यक्रम‘‘ ’’मन की तरंग‘‘, ’’कैथेरीन‘‘, ’’स्वदेशी रंग‘‘ आदि रचनायें लिखीं तथा दो कृतियों का अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द की ’’यौगिक साधना‘‘ का उन्होंने अनुवाद किया। ’’सुशील माला‘‘ नामक एक शृंखला के नाम से ये रचनायें छपीं। गणेश-शंकर विद्यार्थी के पत्र ’’प्रभा‘‘ में भी रामप्रसाद की रचनायें छपती थीं। १९१९ में जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ तब भारत सरकार ने राष्ट्रीय आँदोलनों तथा क्रांतिकारियों के प्रति अपनी नीति में बदलाव किया। राजनैतिक मुकदमे वापस लिये गये। बंदियों को छोड़ा जाने लगा। रामप्रसाद शाहजहाँपुर लौट आये।

स्वतंत्र जीवन

रामप्रसाद की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। एक बहन का विवाह करना था। इसकी बात तो दूर, रोज की जरूरतें पूरी करने में भी बड़ी कठिनाई सामने आ रही थी। इसीलिये रामप्रसाद ने परिवार की तरफ ध्यान दिया। सर्वप्रथम उन्होंने अपने प्रकाशन व्यवसाय के सहारे धन कमाने की कोशिश की। मगर उसमें उनको सफलता नहीं मिली। कुछ दोस्तों की सहायता से रामप्रसाद ने एक कारखाने में मैनेजर की नौकरी की। इस स्थायी आय से परिवार की हालत कुछ सुधरी। धीरे-धीरे उन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलन को भी नये सिरे से चलाने को विचार किया। उधर देश भर में असहयोग आन्दोलन चल रहा था। क्रांतिकारी आँदोलन का नेतृत्व करने वालों की भी कमी थी। क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ ठप सी हो गई थीं। रामप्रसाद ने कुछ धन इकट्ठा किया और रेशम बुनाई कारखाना खोला। उसमें वे दिन-रात बड़ी मेहनत से काम करते। डेढ़ वर्ष के भीतर उनका कारखाना चल निकला। उसमें ३-४ हजार रूपये की पूँजी लगाई गई थी। उससे उन्हें करीब दो हजार रू. का लाभ हुआ। इसी अवधि में उन्होंने अपनी बहन का विवाह एक जमींदार से कर दिया। उनकी माँ की इच्छा थी कि वे भी विवाह कर लें। रामप्रसाद ने कहा कि ’’जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा न हो जाऊँ, मैं विवाह नहीं करूँगा।‘‘

पुनर्गठन

१९२१ में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन समाप्त किया तो क्रांतिकारी आन्दोलन को मजबूती मिली। ’हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ के नाम से एक क्रांतिकारी दल वाकायदा बनाया गया। आज के उत्तर प्रदेश तथा तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में भी क्रांतिकारी अपने को संगठित कर रहे थे। रामप्रसाद को भी आन्दोलन में शामिल होने का संदेश मिला। उन्होंने ६ माह का समय माँगा। वे अपने व्यवसाय को सुदृढ़ बनाकर सारा कारोबार भरोसे के किसी आदमी को सौंप देना चाहते थे। उसी अवधि में रामप्रसाद ने अपना कारोबार एक मित्र को सौंप दिया और क्रांतिकारी गतिविधियों में फिर से शामिल हो गये। क्रांतिकारी आन्दोलन को आम जनता से समर्थन प्राप्त था। कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी, किंतु अड़चन पैसों की थी। जो लोग आन्दोलन से जुडे थे, उन्हें खाने-पीने के साधन या वस्त्र जुटाकर देना भी बड़ा कठिन हो गया था। हथियार इकट्ठा करना और भी मुश्किल था। निराश युवक ऐसी हालत में अक्सर रामप्रसाद के पास आते और उनसे सलाह माँगते। ’पण्डित जी, अब हमें क्या करना चाहिये ?‘ उनका सवाल होता। रामप्रसाद इस दुरवस्था से बडे चिंतिति रहा करते। पैसे के अभाव में वे खुद भी क्या कर सकते थे ? धीरे-धीरे उन्होंने धन एकत्र करने पर ध्यान दिया।
क्रांतिकारियों की टोलियों ने और कोई रास्ता न देखकर एक-दो गांवों में डाके डालना शुरू कर दिया। उसमें भी सौ-दो सौ रूपये ही मिल पाते। समस्या अब भी बनी हुई थी। रामप्रसाद को एक और चिन्ता सता रही थी। आखिर जिनका माल लूटा जाता है, वे कौन हैं ? हमारे ही तो भाई-बंधु हैं न ? ये ग्रामीण भी भारतमाता की ही सन्तानें हैं। क्रांतिकारियों का डाके डालने के पीछे देश को आजाद कराने का मकसद था मगर खुद अपने भाइयों को हैरान करके पैसा जमा करना कहाँ तक न्यायपूर्ण है ? इन्हीं विचारों में खोये रामप्रसाद एक दिन रेल से यात्रा कर रहे थे। वे शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रहे थे। हर स्टेशन पर जब गाड़ी ठहरती तो वे उतरकर प्लेटफार्म पर टहलते। उन्होंने देखा कि हर एक स्टेशन पर स्टेशन मास्टर रूपयों से भरा थैला लाते और गाड़ी के डिब्बे में रख देते। धन की सुरक्षा के लिये विशेष रक्षक भी तैनात नहीं थे। रामप्रसाद को पता चला कि वह आठ डाऊन गाड़ी थी। बस; यह दृश्य देखकर ही रामप्रसाद के मन में क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये धन जमा करने की योजना बन गई।

काकोरी रेल डकैती

काकोरी लखनऊ के निकट ही बसा एक गाँव है। उस गाँव में रेलगाड़ी पर हमले के कारण ही काकोरी स्टेशन प्रसिद्ध हो गया। वह ९ अगस्त १९२५ की शाम थी। आठ डाऊन रेलगाड़ी काकोरी के निकट से गुजर रही थी। रामप्रसाद और उनके नौ क्रांतिकारी साथियों ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी। उन्होंने सरकारी धन लूट लिया जोकि गाड़ी के डिब्बे में रखा था। अचानक चली गोली से एक यात्री की मृत्यु हो गई, इसके अलावा कहीं खून-खराबा नहीं हुआ। इस सुनियोजित डकैती से सरकार भौंचक रह गई। एक माह तक प्रारंभिक छानबीन के बाद सरकार ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये जाल फेलाने की पूरी तैयारी कर ली। डाका डालने वाले दस क्रांतिकारियों को ही नहीं अपितु हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के अन्य नेताओं के नाम पर भी वारण्ट जारी कर दिये गये। चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर शेष वे सभी क्रांतिकारी पकड़ लिये गये, जिन्होंने रेल लूटी थी। डेढ़ वर्ष तक मुकदमा चला। रामप्रसाद, अशफाकुल्ला, रोशनसिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी चारों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाई गई। देशभर में इन लोगों के प्राण बचाने के लिए व्यापक अभियान चलाया गया। सभी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार से अपील की कि इन युवकों के साथ दया का बर्ताव किया जाये; मगर सरकार अपने फेसले पर अडिग रही। १८ दिसंबर १९२७ को राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी दे दी गई। रामप्रसाद व अशफाकुल्ला १९ दिसम्बर को और दूसरे दिन रोशनसिंह फाँसी पर चढा दिये गये। सभी ने हंसते हुए मौत का सामना किया। इन युवकों ने स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में शौर्य और साहस का नया अध्याय लिखा।

हिरासत की अवधि में रामप्रसाद ने अपनी जीवनी लिखी। आज भी हिन्दी साहित्य में उनकी यह रचना बडे गौरव का स्थान रखती है। जेल में रामप्रसाद पर बड़ी सख्त नजर रखी जाती थी। इसके बाद भी उन्होंने न केवल किताब लिखी बल्कि बड़ी चतुराई से उसे जेल से बाहर भी भेज दिया। यह भी कम साहस की बात नहीं थी। रामप्रसाद ने रजिस्टर जैसी मोटी किताबें प्राप्त कीं और एक-एक करके तीन हिस्सों में उसे सफलता के साथ जेल से बाहर भेला। १७ दिसम्बर को किताब के आखिरी पन्ने लिखे गये और दूसरे दिन शिव वर्मा नामक एक मित्र जब मिलने आया तो उसके माध्यम से वह भी बाहर भेज दिये गये। १९२९ में पुस्तक प्रकाशित की गई किन्तु सरकार ने तुरंत उस पर रोक लगा दी। उसके बाद स्वतंत्र भारत में ही पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका। इस पुस्तक में रामप्रसाद ने अपने बारे में बडे विस्तार से सब कुछ लिखा है। उसमें अपने पूर्वजों, बचपन की मधुर और दिलचस्प घटनाओं, आर्य समाज में प्रवेश, पुलिस को छकाकर यहाँ-वहाँ भागना, क्रांतिकारी आन्दोलन में अपने अनुभव, साथियों से मतभेद आदि का विवरण इस कृति में है। पुस्तक में इस अमर शहीद की माता के दुर्लभ चित्र, दादी, शिक्षक और गहरे दोस्तों के चित्र भी है। पुस्तक बहुत ही सुन्दर शैली में लिखी है तथा कुछ घटनायें पढ़कर तो आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं।

अपनी माताजी को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं ’’मेरी प्यारी माँ, तुमने मुझे जन्म दिया है अब मुझे आशीर्वाद दो। मुझे यह आशीर्वाद दो कि अंतिम समय भी मैं अपने कर्तव्य से विचलित न होऊँ। मैं यह नश्वर शरीर तुम्हारे चरणों में भगवान की प्रार्थना करते हुए छोडूं, यही आशीष मुझे दो।‘‘
मैनपुरी षड्यंत्र केस के प्रमुख अभियुक्त पण्डित गेंदालाल दीक्षित फरार रहे। उन्हें पुलिस पकड़ नहीं सकी मगर उनकी मृत्यु टी. वी. के रोग से बड़ी दीन अवस्था में हुई। उनकी चर्चा करते हुए रामप्रसाद ने लिखा है, ’’मैंने यह सोचा भी नहीं था कि मातृभूमि की सेवा करने वाले इस देशभक्त का ऐसा करूण अन्त होगा। वे तो पुलिस की गोली खाकर मरना चाहते थे। भारत का एक महान सपूत चला गया मगर किसी को उनके मरने की खबर तक नहीं हुई।‘‘

रामप्रसाद ने क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये जीवनभर काम किया था। इसीलिये उन्होंने उसके भविष्य के बारे में भी गहराई से विचार किया। उन्होंने लिखा-’’सभी को मानना पडेगा कि ऐतिहासिक दृष्टि से हमारा काम बड़ा मूल्यवान था। जब हमारा देश गुलाम है तो देश के युवक खामोश नहीं बैठे हैं। वे देश की आजादी के लिये शक्तिभर कोशिश कर रहे है।‘‘ उन दिनों की परिस्थिति को देखते हुए रामप्रसाद का युवकों को संदेश था-’’मैं जानता हूं कि क्रांतिकारी आन्दोलन को सफलता नहीं मिलेगी। स्थिति उसके अनुकूल नहीं है। युवकों को अब स्वयं को पिस्तौल और रिवाल्वर से सुसज्ज करने का विचार छोड़ देना चाहिये तथा एक सच्चे देशभक्त के रूप में राष्ट्र की सेवा करनी चाहिये। युवकों के नाम मेरा यही अन्तिम संदेश है।‘‘
कवि ’’बिस्मिल‘‘

रामप्रसाद का उपनाम ’बिस्मिल‘ था। इसी नाम से हिन्दी साहित्य जगत में वे एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि के रूप में विख्यात हुए। अपनी जीवनी के अन्त में उन्होंने कुछ चुनी हुई कविताऐं लिखीं है। उनकी कविता की एक-एक पंक्ति में देशभक्ति की भावना स्पष्ट झलकती है। एक कविता में वे कहते हैं: ’’यदि मातृभूमि के लिये मुझे एक हजार बार भी मौत का सामना करना पडे तो मुझको दुख नहीं होगा। हे ईश्वर, मुझे भारत में ही एक हजार जन्म दो, मगर मुझे यह वरदान भी दो कि मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा करते हुए ही समाप्त हो।‘‘ फाँसी के लिये जाने से कुछ ही समय पूर्व रामप्रसाद ने एक कविता लिखी-’’हे ईश्वर ! जो तुम चाहते हो वही होता है। आप महान हो। मुझे यही वर दो कि अपनी अंतिम साँस तक और मेरे रक्त की अंतिम बूँद तक मैं तुम्हारा ही ध्यान करूँ तथा तुममें ही विलीन हो जाऊँ !‘‘

हीरे की तरह कठोर-फूल की भाँति कोमल

रामप्रसाद बिस्मिल वीरों की भाँति जीये और वीरों की तरह ही उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। उनमें वे गुण कूट-कूटकर भरे थे जिन्हें भारतीय संस्कृति में आदर्श माना जाता था। रामप्रसाद ने अपने स्वभाव तथा गुणों के कारण सभी का सम्मान प्राप्त किया था। वे सोचते थे कि विदेशियों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हमारा देश आजाद होना ही चाहिये। उसे आजाद कराने का सही तरीका सशस्त्र क्रांति ही है। उनके रास्ते में कितनी ही बाधायें आई, कितनी समस्याओं ने उन्हें परेशान किया, राह के काँटों को पार करते हुए उन्होंने सिर ऊँचा उठाकर ही चलना पसन्द किया। उसी रास्ते पर मौत भी उनके इंतजार में खड़ी थी, मगर रामप्रसाद जरा भी विचलित नहीं हुए।

रामप्रसाद ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया। बेईमानी व धोखेबाजी से उन्हें बड़ी चिढ़ थी। जब भी उन्हें दगाबाजी की गन्ध मिलती, जिम्मेदार व्यक्ति की हैसियत की चिन्ता किये बिना ही वे उसकी भर्त्सना करते। यह भी कहा जा सकता है कि वे बेईमान बनने को तैयार नहीं थे, इसीलिये उनको मौत का सामना करना पड़ा। अपनी जीवनी में रामप्रसाद ने लिखा है कि कैसे काकोरी केस में उन्हें गिरफ्तार करके थाने ले जाया गया। वे लिखते हैं-’’इस मामले से सम्बद्ध गिरफ्तारियों में पुलिस अधिकारी रातभर व्यस्त रहे। वे जरा भी नहीं सो पाये थे। आखिर वे सब चले गये। एक सिपाही जो पहरे पर था वह भी गहरी नींद में था। वह रोशनसिंह का चचेरा भाई था। यदि मैं चाहता तो मैं बडे आराम से निकलकर भाग सकता था मगर मेरे ऐसा करने से वह बाबू बड़ी मुसीबत में पड़ जाता। मैंने उसे बुलाया और उससे कहा कि अगर तुम नतीजे भुगतने को तैयार हो तो मैं भाग सकता हूं। वह मुझे भलीभाँति जानता था। वह मेरे पैरों पर गिर पड़ा तथा मुझसे कहने लगा कि अगर मैं भाग गया तो उसे पकड़ लिया जायेगा। उसके बाल-बच्चे भूखों मर जायेंगे। मैंने पीठ थपथपाकर उसे जाने दिया। मुझे उस पर बड़ी दया आ रही थी।‘‘

कुछ ही दिन बाद रामप्रसाद को भागने का एक मौका और मिला। उन्हें बाहर ले जाया जा रहा था। एक सिपाही भी साथ में था। दूसरे सिपाही ने कहा, ’’उसे जंजीर से बाँध दो।‘‘ मगर सिपाही ने बडे विश्वास से उत्तर दिया, ’’मुझे इन पर पूरा भरोसा है। ये भागेंगे नहीं।‘‘ हम एक सुनसान जगह गये। मैंने अपना हाथ दीवार पर रखा और पीछे देखने लगा। सिपाही कुश्ती देखने में खो गया था। मैं थोड़ी सी कोशिश करके दीवार फाँद सकता था मगर मैंने ऐसा नहीं किया। मेरी अन्तरात्मा कह रही थी-’’क्या ऐसे भागकर उस गरीब सिपाही को धोखा दोगे और उसे जेल में डालोगे। उस सिपाही ने तुम पर भरोसा किया है तथा तुम्हें आजादी दी है। क्या यह सही होगा ? उसकी बीवी-बच्चे तुम्हारें बारें में क्या सोचेंगे ?‘‘ मेरे मन में यह विचार आया और मैंने दीर्घ निःश्वास छोड़ा। मैंने सिपाही को बुलाया तथा हम वापस थाने लौट आये।

जिस किसी ने भरोसा किया उसे धोखा कदापि न दिया जाये यही रामप्रसाद की मान्यता थी। फिर वह बाबू हो या सिपाही। जेल में भी सिपाहियों को उन पर विश्वास था। उनका चरित्र ही ऐसा था। उनको फाँसी की सजा दिये जाने के बाद भी वे अपने इस सिद्धान्त पर कायम रहे। जिन्होंने भरोसा किया, उनको संकट में डालकर भाग जाना वे मुनासिब नहीं समझते थे। भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में काकोरी रेल डकैती को बडे महत्व का स्थान प्राप्त है। वीर रामप्रसाद ’बिस्मिल‘ ने इसकी योजना बनाई तथा बड़ी चतुराई से उस पर अमल किया। एक क्रांतिकारी, क्रांतिकारी लेखक और इन सबसे ऊपर एक आदर्श मानव के रूप में रामप्रसाद सदैव हमारे हृदय में बसे रहेंगे।

’’यदि मातृभूमि के लिये मुझे हजार बार मौत को गले लगाना पड़ा तो भी मुझे दुख नहीं होगा। हे प्रभू ! मुझे भारत में सौ बार जन्म दो ! परन्तु मुझे यह वरदान भी दो कि हर बार मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में ही लगे।‘‘
यही प्रार्थना स्वतंत्र भारत के हर नागरिक के हृदय में बसी रहे और उसकी ध्वनि हमारे कानों में गुंजित होती रहे।

८ अक्तूबर २०१२