इतिहास

इस वर्ष सूरीनाम के भारतीय प्रवास के १४० वर्ष पूरे होने का समारोह मना रहे हैं और यह है समारोह का प्रतीक चिह्न।सूरीनाम प्रवास के १४० वर्ष


कुछ कतरे कंत्राक के

-भावना सक्सैना
 


आज से १४० वर्ष पूर्व भारतीय नागरिकों का पहला जहाज सूरीनाम पहुँचा था। इसमें वे भारतीय थे जो एक कंत्राक (कांट्रैक्ट) के अंतर्गत परदेश में मजदूरी करने के लिये पहुँचे थे। कुछ इच्छा से, कुछ धोखे से, कुछ अज्ञानवश, कुछ पराधीन भारत में विद्यमान समस्याओं, देश में उत्तरोत्तर बढ़ती बदहाली, कुछ १८७३ में बिहार में पड़े अकाल से पीड़ित, भुखमरी गरीबी, लाचारी से भागकर एक बेहतर जीवन की तलाश में, सुख की लालसा में और सोने की खोज में अपने घर से निकले...मृगतृष्णा से बँधे आगे तो बढ़ आए, श्री राम देश के लिए रवाना हुए, पर कुछ ही समय में उनकी हालत ठीक उस जीव की भाँति हो गयी जो रोटी के टुकड़े के लालच में पिंजरे के भीतर तो आ जाता है किन्तु उसकी बस एक ही राह होती है, भीतर आने की। वापसी के सभी मार्ग बंद होते हैं।

हम बात कर रहे है उस पीढ़ी के व्यक्तियों की जो लालारुख व अन्य जहाजों पर चढ़े एक बेहतर कल की खोज में। आम धारणा है कि अरकाठियों द्वारा धोखे से सभी जन सूरीनाम लाए गए, किन्तु यह सर्वथा सत्य नहीं है, और यदि यह मान भी लिया जाए कि उन्हें धोखे से लाया गया था तो भी उनके लिए ५ वर्ष बाद वापस आने का विकल्प था, किन्तु सामाजिक आर्थिक कारणों से उन्होंने यहीं रहने का निर्णय लिया। एक समर्थ जीवन जीने की लालसा उन्हें यहाँ रोके रही। और कई तो ऐसे थे जो भारत जाकर दूसरी बार लौट आए। ऐसा नहीं कि यहाँ मखमल पर चलते थे पर अनेक कष्ट सहने के बावजूद हिंदुस्तानी वंशजों ने अपना भविष्य सुधारा। आज उनमें से कई श्रमिकों की पीढ़ियाँ यह भी मानती हैं कि यदि उनके पूर्वज सूरीनाम आकर न बसे होते तो शायद आज वे एक बदतर स्थिति में होते।

इस प्रवास और सूरीनाम में प्रतिष्ठित होने के आर्थिक सामाजिक कारण जो भी रहे हों पिछले साढ़े तीन वर्ष में एक बात जो बहुत स्पष्ट और प्रखर रूप से अनुभव हुई है वह यह कि भारत से निकलने वाली पहली पीढ़ी और उसके बाद की कुछ पीढ़ियाँ भीषण भावनात्मक बवंडर से गुज़री हैं... वे तड़पे हैं अपनी मातृभूमि के लिए, यद्यपि सामाजिक व आर्थिक कारणों से, भारत वापस न लौटने का निर्णय उनका अपना ही रहा तो भी वे भारत को कभी भी अपने से अलग नहीं कर पाये। यहाँ कुछ संदर्भ देना चाहूँगी जो मेरी खोज में व अन्य अनौपचारिक चर्चाओं में सामने आए –

कष्ट सहे–

८७ वर्षीय बिहारी नंदलाल जी अपने आजा आजी के बारे में बात करते रो उठते हैं, उनका कहना है – "न पूछ बेटी उस जमाने की, बड़े कष्ट के दिन थे, यहाँ से मरियमबर्घ पैदल जाते थे (यह दूरी लगभग १० किलोमीटर है) नंगे पाँव, शुरू के दिन हमने भी ऐसे ही काटे देखो हमारे पाँव (उनके पाँव की लगभग हर उँगली का नाखून उखड़ा था या टेढ़ा था) ठोकर खा खा कर कैसे हो गए हैं!

भावनात्मक उदद्वेलन -

यह मेरे पिता हैं, मेरे पिता श्री दीवानचंद भारत से; गुजरनवाला से आए थे, वर्ष तो मुझे नहीं याद किन्तु शायद आखिरी या उस से पहले बोट से यहाँ आए थे... मैंने अपने पिता की आँखों में भारत से विछोह का दर्द देखा है, वह रात रात भर एक रेडियो से कान लगा कर बैठे रहते थे। उस से बहुत कम कई बार टूटी आवाज़ें आती थीं, और जब हम बच्चे उनसे पूछते वह उसे क्यूँ सुनते हैं वह कहते बेटा आप नहीं समझोगे, किन्तु आज मैं उनका दर्द समझती हूँ।" वह वापस जाना चाहते थे किन्तु सब जहाज़ी लोगों ने मिलकर उनका विवाह कर दिया और फिर वह नहीं जा पाये, क्योंकि हमारी माँ ने उन्हें नहीं जाने दिया। वह डरती थी कि पिता एक बार भारत गए तो वापस नहीं आएँगे। लेकिन पिताजी सदा भारत के लिए तड़पते रहे। उनके आदर्श व मूल्य सभी भारतीय संस्कृति के अनुरूप थे।" (श्रीमती हिलडा दुर्गा देई रामदत्त मिसिर के शब्द)

एक किस्सा यह भी-

लोचते और लल्लारुख जहाज को भारतीयों को लेकर सूरीनाम पहुँचे।अस्सी वर्ष पहले का एक छोटा सा घर जहाँ विद्युत प्रकाश नहीं है। एक कड़वे तेल की मिट्टी की ढिबरी में सभी भाई बहन पढ़ाई कर रहे हैं... क्योंकि परिवार में एक ही ढिबरी है जिसकी नीम रोशनी में पढ़ा जा सकता है और घर में पाँच बालक हैं तो सबसे बड़ा बालक ढिबरी के पास बैठकर पुस्तक में से पाठ पढ़ता है दूसरा उसे दोहराता है और यही क्रम पंक्ति में बैठे आखिरी बालक तक चलता है। अचानक ढिबरी बुझ जाती है और कमरे में अंधकार समा जाता है... छोटा बालक रोने लगता है और कहता है कि यदि पाठ याद नहीं हुआ तो कल परीक्षा न दे पाएगा। माँ दुलार कर सुला देती है और फिर रात्रि के लगभग साढ़े तीन बजे फिर उठा देती है...हाथ पकड़कर बाहर ले जाती है...चारों ओर दूधिया सफ़ेद प्रकाश फैला हुआ है। आँखें मिचमिचाता बालक हर ओर फैले प्रकाश से विस्मित हो पूछता है – माँ यह कैसे हुआ और माँ ने कहा 'बेटा देखो, उस ढिबरी का तेल कभी समाप्त नहीं होता! चाँद उदय हुआ है, उसका प्रकाश है... तभी से से उस बालक ने सोचा चाँद उदय होना कितना शीतल और सुखकर है, मैं अवश्य अपने बालक का नाम उदय चंद्र रखूँगा और कईं वर्षों बाद जब ऐसा अवसर आया तो वह अपनी बात नहीं भूले थे...कालांतर में उदय चंद बन गए रेमॉन (रे– मून)

एक माँ का दिल-

मेरे आजा – आजी भारत से आए, और मेरे पिता भी, वह तीन या चार वर्ष के रहे होंगे। यूँ तो कितने हिन्दुस्तानी आए किन्तु रुचिकर बात यह है कि उस समय बच्चों को लाने की अनुमति नहीं थी। मेरी आजी ने मेरे पिता को अपने पेट से रस्सी के साथ बाँध लिया और ऊपर से एक और लहँगा पहन कर धीरे धीरे चलकर जहाज पर चढ़ गयी। किसी को शक भी नहीं हुआ और एक बार जब जहाज छूट गया तब तो कोई उपाय नहीं था।

गठरी संग रही-

मैं एकदम स्वस्थ थी, किन्तु मेरे पैरों में अक्सर बहुत दर्द रहता था। सभी जाँच करवाने पर भी कोई कारण ज्ञात नहीं हुआ। मुझे विश्वास तो नहीं था किन्तु फिर भी मित्रों के आग्रह करने पर पूर्व जन्म मनश्चिकित्सक के पास जाने का निर्णय लिया... जो निदान था उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मुझे बताया गया कि पूर्व जन्म में मैं भारत में जन्मी थी। मेरा विवाह हुआ किन्तु मैं खुश नहीं थी। परिवार के अत्याचारों से परेशान हो मैं एक नेक से दिखने वाले पुरुष के बहकावे में आकर घर छोड़ आई। उसने दूर देश सोने से मढ़े जाने का सपना दिखाया। मेरे गाँव में रेल नहीं थी। दो गाँव पार करके रेल पकड़नी थी लेकिन श्रीराम देश का सपना मेरी आँख में अँज गया था। कलकत्ता के लिए गाड़ी लेने को मैं तीन दिन लगातार चलती रही थी...मेरे पाँव का दर्द इस जन्म का नहीं था। हैरानी इस बात की है कि उसके बाद मेरे पाँव में कभी इतनी भयंकर पीड़ा नहीं हुई। ( वरिष्ठ हिन्दी सेविका जो अपना नाम नहीं देना चाहतीं)

मातृभाषा-

सरमक्का गाँव में आयोजित हिंदी प्रमाण पत्र वितरण कार्यक्रम में एक बहुत बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हैं। उनके पौत्र ने हिंदी परीक्षा दी थी। प्रमाणपत्र वितरण के पश्चात अचानक ध्यान गया वह बुजुर्ग अपने पौत्र के हाथ चूम रहे थे, असीस रहे थे, आँखों में आँसू थे...उन्हें असीम गर्व था कि उनका पोता हिंदी पढ़ सकता है!

आज तक –

सूरीनाम में युवा आज भी अपने जीवन में हिंदुस्तानी भाषा (सरनामी हिंदी), संस्कृति व बालीवुड को बसाए हुए हैं। सूरीनाम में रहते हुए वे हिंदुस्तानी अस्मिता पर गर्व करते हैं हिंदुस्तानी रीति रिवाज, पोशाक खानपान अपनाते हैं। आज भारत से जिस तरह का भावनात्मक संबंध सूरीनाम के हिंदुस्तानियों का है उसे शब्दों में दर्ज़ कर पाना कठिन है। यह कुछ घटनाएँ व अनुभव साझा करने का उद्देश्य प्रवास के भावनात्मक पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित करना था। विदेश जा कर धनोपार्जन की अवधारणा व लालसा आज भी यथावत बनी हुई है किन्तु प्रवास में कईं पल ऐसे आते हैं जब व्यक्ति अपनी माटी अपने देश के लिए कलप उठता है।
एक प्रवासी भारतीय परिवार

३ जून २०१३