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"लेकिन कुछ न कुछ तो ऐसा होता होगा सामने वाले व्यक्ति में कि उसमें से आप लोग कहानी तलाश कर लेते हों।"
"होता भी है और नहीं भी होता। दरअसल, पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता कि सामने वाला व्यक्ति हमें सारी सम्भावना के बावजूद कोई कहानी देकर जायेगा ही।"
"और अगर मैं आपको कहानी की असीम सम्भावनाओं वाले पात्र से मिलवाऊं तो?" वे अभी भी अपनी जिद पर अड़े थे।
"मैंने कहा ना कि जरूरी नहीं कि मुझे उसमें कहानी की सम्भावनाएं नज़र आयें ही। हो सकता है उस पर कहानी तो क्या लतीफा भी न कहा जा सके और ऐसा भी हो सकता है कि वह पात्र मुझे इतना हांट करे कि पूरा उपन्यास लिखवा कर ही मेरा पीछा छोडे़। लेकिन ये सारी बातें तो आपके पात्र से मिलने के बाद ही तय हो सकती हैं, किस बांस से बांसुरी बनेगी, ये तो बांस देखकर ही तय किया जा सकता है।
"आप एक काम करें। कल बारह बजे के करीब मेरे डिपार्टमेंट में आ जायें। वहीं आपको मैं एक ऐसी ही शख्सियत से मिलवाऊंगा जिसे आप हमेशा याद रखेंगे। कहानी तो आप उस पर लिखेंगे ही, ये मैं आपको अभी से लिखकर दे सकता हूं।"
"जरूर लिखूंगा कहानी अगर वो खुद लिखवा ले जाये।"
"आप लिखें या न लिखें वह खुद लिखवा ले जायेगा।"
और इस तरह से बाबू भाई पंड्या से मुलाकात हुई थी मेरी।

मैं ठीक बारह बजे डॉक्टर भाटिया के पास पहुंच गया था। हम दोनों अभी चाय पी रहे थे कि केबिन का दरवाजा खुला और एक बहुत ही बूढ़ा सा आदमी अन्दर आया और बोला, "नमस्कार डॉक्टर साहब।"
डॉक्टर ने उसके नमस्ते का जवाब दिया और उसके हाल–चाल पूछे। तभी उस बूढ़े आदमी ने एक लिफाफा मेज़ पर रखते हुए कहा, "डॉक्टर साहब, ये आपका टेलिफोन का बिल जमा करा दिया है और ये आपने अपने भाई के लिए जो फार्म मंगवाये थे, वो भी लाया हूं, भगवान उसे भी खूब तरक्की दे।"
"ठीक है बाबू भाई। और कुछ?" डॉक्टर भाटिया ने उससे पूछा था और मेरी तरफ इशारा किया था कि यही है वो आदमी जिससे मिलवाने के लिए मैं आपको यहां लाया हूं और जिस पर आपको कहानी लिखनी है।

मैंने तब गौर से उस बूढ़े व्यक्ति को देखा था। उम्र होगी पचहत्तर से अस्सी के बीच, नाटा कद, गंजा सिर लेकिन चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास और एक तरह की ऐसी चमक जो जीवन से जूझ रहे लोगों के चेहरे पर सहज ही आ जाया करती है। वे सीधे और तनकर खड़े थे और कहीं से ये आभास नहीं देते थे कि लगे, उम्र के इतने पड़ाव पार कर चुके हैं।
बाबू भाई पंड्या डॉक्टर से कह रहे थे, "डॉक्टर साब, बाकी तो सब ठीक है, बस जरा एक मेहरबानी चाहिए थी।"
"बोलो ना बाबू भाई।"
"वो जो चार नम्बर वार्ड में तेरह नम्बर का मरीज है उसे रात भर नींद नहीं आती। बेचारा कमजोर बहुत हो गया है। मैंने डॉक्टर रावल से कहा भी था कि उसके लिए कोई स्पेशल खुराक लिख दे तो बेचारा ठीक होकर काम पे जावे। बहुत ईमानदार आदमी है बेचारा। लेकिन क्या करे! अस्पताल में पड़ा है बेचारा। घर में अकेला कमाने वाला। ठीक हो के जायेगा तो बच्चों के लिए कमाकर कुछ लायेगा। आपको दुआएं देगा।"
"ठीक हैं बाबू भाई। उसके केस पेपर्स मेरे पास ले आना। मैं कर दूंगा। और कुछ बाबू भाई?"
"बस इतनी मेहरबानी हो जावे तो एक गरीब परिवार आपको दुआएं देगा।"
और इससे पहले कि बाबू भाई हाथ जोड़ कर बाहर जाते, डॉक्टर भाटिया ने उन्हें रोकते हुए कहा था, "बाबू भाई ये मेरे दोस्त हैं चन्दर रावल। एक बड़ी कम्पनी में काम करते हैं और खूब अच्छी कहानियां लिखते हैं।"
बाबू भाई पंड्या ने मेरी तरफ देखते हुए तुरन्त हाथ जोड़ दिये थे और कहा था, "भगवान आपको लम्बी उमर दे साब। राइटर तो साब, भगवान के दूत होते हैं।" और उन्होंने अपने कन्धे पर लटके थैले में से कुछ पोस्टकार्ड निकालकर मुझे थमा दिये थे, "आप लोग तो दुनिया जहान की बातें अपनी कहानियों में लिखते होंगे। आपके पास तो बहुत सारी मैगजीनें भी आती होंगी। ये मेरे पते लिखे कुछ कार्ड हैं। जब भी आपके पास या किसी मेल–जोल वाले के पास पुरानी मैगजीनों की पास्ती होवे ना तो उसे बेचने का नहीं, मुझे ये कार्ड डाल देना, मैं आकर ले जाऊंगा।"

मैं हैरान रह गया था। कभी कोई पुरानी पत्रिकाएं भी इतने आग्रह से मांग सकता है और अस्पताल में पुरानी पत्रिकाएं भी उपयोग में लायी जा सकती हैं, मैं सोच भी नहीं सकता था।

पोस्टकार्ड पर पाने वाले के पते की जगह पर उनके पते की मुहर लगी हुई थी।
"आप पुरानी पत्रिकाओं का क्या करेंगे बाबू भाई?" मैं उनके मुंह से ही सुनना चाहता था।
"देखो साब, ऐसा है कि जो लोग दर्दी से मिलने कू आवे ना तो खाली बैठा–बैठा दूसरे को गाली देता रहता है, सास होगी तो बैठी–बठी बहू की बुराई करेगी और क्लर्क होगा तो बॉस की बुराई करेगा। इससे दर्दी को बहुत तकलीफ होती है। वो बेचारा अपने मुलाकाती को तो कुछ कह नहीं सकता। सो इस वास्ते मैं सबसे बोलता हूं पुरानी चोपड़ियो होवे तो बाबू भाई पंड्या के पास मोकलो। मैं हर दर्दी और उसके मुलाकाती को दे देता हूं, पढ़ो और कुछ अच्छी बातें गुनो। मैं सब लोग से इस वास्ते बोलता हूं कि पास्ती वाला तो दो रूपये किलो लेवेगा, पर यहां सब लोग उन्हें पढ़ेंगे तो उनका टाइम भी पास होवेगा और कुछ ज्ञान–ध्यान की बातें भी सीखेंगे। मेरे पास एक कपाट है। साब लोगों की मेहरबानी से मिल गया है। उसी में रखवा देता हूं और रोज सुबे राउंड पर निकलता हूं तो सबको दे देता हूं।"

वाह . . .कितनी नयी कल्पना है। इतने बरसों से सैंकड़ों की तादाद में पत्रिकाएं आती रही हैं मेरे पास। खरीदी हुई भी और वैसे भी, लेकिन आज तक मेरी पत्रिकाओं को मेरे अलावा कभी कोई दूसरा पाठक नसीब नहीं हुआ होगा। कहां थे बाबू भाई आप अब तक। मैं मन ही मन सोचता हूं।
"जरूर दूंगा पत्रिकाएं आपको बाबू भाई, और कोई सेवा हो तो बोलिए।"
"बस साहब जी, आप लोगों की मेहरबानी बनी रहे।"

और वे हाथ जोड़कर चले गये थे। मैं उस शख्स को देखता रह गया था। डॉक्टर भाटिया बता रहे थे, "यही है आपकी अगली कहानी का पात्र। रिटायर्ड सी आय डी इन्स्पैक्टर बाबू भाई पंड्या। उम्र लगभग अस्सी साल। एक पुरानी सी मोपेड है इनके पास, उस पर रोजाना प्रगति नगर से आते हैं और दिन भर यहां मरीजों की सेवा करते रहते हैं। सारे डिपार्टमेन्टस् के मरीज और उनके सगे वाले ही इनके असली परिवार है।"
"लेकिन वे तो आपके फोन बिल जमा करके आये थे वो . . .?"
"दरअसल वे किसी का कोई भी अहसान नहीं लेना चाहते। हम लोगों के छोटे–मोटे काम कर देते हैं और बदले में मरीजों के लिए कुछ न कुछ मांग लेते हैं।"
"यार, ये तो अद्भुत कैरेक्टर है। इस व्यक्ति को गहराई से जानने की जरूरत है ताकि पता चले कि कौन सी शक्ति है जो इसे इस उम्र में भी इस तरह की अनूठी सेवा से जोड़े हुए है। घर में और कौन–कौन है इसके?"
"मेरे खयाल से तो सब हैं। बच्चे अफसर वगैरह है।"
"और बीवी?"
"बाबू भाई पंड्या के साथ बस, एक ही दिक्कत है कि वे अपने बारे में बात भी नहीं करते। आप उनसे मरीजों के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में और उनकी जरूरतों के बारे में घंटों बात कर लीजिए, लेकिन उनके बारे में यकीनी तौर पर किसी को कुछ भी नहीं मालूम। सब सुनी सुनायी बातें करते हैं। कोई कहता है कि बीवी के मरने पर वैरागी हो गये और सेवा से जुड़ गये तो कोई बताता है कि अरसा पहले इनकी कस्टडी में एक बेकसूर कैदी की मौत हो गयी थी। कुछ इन्क्वायरी वगैरह भी चली थी। उसकी मौत ने इन्हें भीतर तक हिला दिया और तब से मरीजों की सेवा में अपने आपको लगा दिया है। ये सब सुनी–सुनायी बाते हैं। अब राइटर महोदय, ये आप पर है कि कोई नयी थ्योरी लेकर आयें तो सारे रहस्यों पर से परदा उठे।"
"लेकिन ये होगा कैसे?" मैं पूछता हूं।
"आप एक काम करो यार। दो–चार दिन इसके साथ गुजारो तो ही इसे जान पाओगे या एक और तरीका है। पुरानी मैगजीनों के बहाने उसे बुलाओ अपने यहां और तब इसकी भीतरी परतें खोलने की कोशिश करो। मैंने बताया था ना! शानदार कैरेक्टर।"

"न केवल शानदार बल्कि ऐसा कि आज के जमाने में उस जैसा बनने की सोच पाना भी मुश्किल।"

यह मेरी पहली मुलाकात थी बाबू भाई पंड्या से। मैं सचमुच विचलित हो गया था उनसे मिलकर और डॉक्टर भाटिया की बतायी बातों को सुनकर। जीवन कितना विचित्र होता है। एक अस्सी साल का बूढ़ा आदमी, जिसे अरसा पहले जीवन की आपा–धापी से रिटायर होकर आराम से अपना वक्त भजन पूजा में गुजारना चाहिए था, इस तरह से दीन–दुखियों की सेवा में लगा हुआ है।

और अगली बार मैं एक दिन सुबह–सुबह ही अस्पताल पहुंच गया था। हाथ में ढेर सारी पत्रिकाओं के बंडल लिये। डॉक्टर भाटिया ने बताया था कि वे आठ बजे ही पहुंच जाते हैं ताकि डॉक्टरों के राउंड से पहले ही एक राउंड लगाकर मरीजों की समस्याओं के बारे में जान सकें और उनके लिए डॉक्टरों से सिफारिश कर सकें। मैं बाबू भाई पंड्या की दिनचर्या का पूरा एक दिन अपनी आंखों से देखना चाहता था। कुछेक दिन उनके साथ गुजारना चाहता था ताकि मैं इस चरित्र को नजदीक से जान सकूं।

मेरे कई बरस के लेखन में यह पहली बार हो रहा था कि कहानी का जीता जागता पात्र मेरे सामने था और मुझे इस तरह से अपने आपसे जोड़ रहा था। वैसे अभी उसके बारे में कुछ भी साफ नहीं था कि ये चरित्र आगे जाकर क्या मोड़ लेगा और अपने बारे में क्या–क्या कुछ लिखवा ले जायेगा।

मैं आठ बजे ही अस्पताल में पहुंच गया था और अस्पताल के बाहर बेंच पर बाबू भाई पंड्या का इन्तजार करने लगा। मैंने अपने आने के बारे में डॉक्टर भाटिया को भी नहीं बताया था। मैं अपनी खुद की कोशिशों से इस व्यक्ति के भीतरी संसार में उतरना चाहता था और सब कुछ अपनी निगाहों से देखना चाहता था।

सवेरे के वक्त सिविल अस्पताल में जिस तरह की गहमा–गहमी होती है मैं देख रहा था। मरीज आ रहे थे, भाग–दौड़ कर रहे थे। चारों तरफ कराहें, तकलीफों और दर्द का राज्य। अस्पताल के नाम से मुझे हमेशा से दहशत होती है। चाहे अपने लिए अस्पताल जाना पड़े या किसी और के लिए, यहां दर्द की लगातार बहती नदी को पार करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है।

तभी बाबू भाई पंड्या आ पहुंचे। अपनी मोपेड से मैगजीनों के भारी बंडल उतारने लगे। थैले वाकई भारी थे और उनके लिए ढोकर लाना मुश्किल। यही मौका था जब मैं जाकर उनसे बातचीत की शुरूआत कर सकता था और उनका विश्वास जीत सकता था।
"नमस्ते बाबू भाई। कैसे हैं?" मैंने उनके हाथ से थैला लेते हुए कहा।
"अरे आप हैं, राइटर साहब। नमस्ते। आप क्यों तकलीफ करते हैं। मैं ले जाऊंगा। पास ही तो हैं।" उन्होंने मेरा हाथ रोका।
"रहने दीजिए बाबू भाई। आप सबके लिए इतनी तकलीफ उठाते हैं और सबका कितना खयाल रखते हैं। मैं क्या आपकी इतनी भी मदद नहीं कर सकता।"
बाबू भाई पंड्या का जवाब था, "देखो साब, अगर हम सब एक दूसरे का खयाल रखें तो ये जीवन कितना सुखी हो जावे। पर हम सब दूसरे की कहां सोचते हैं। हम अगर किसी को खाना नहीं खिला सकते तो ना सही, लेकिन पानी तो पिला ही सकते हैं। उसके पास दो घड़ी बैठ सकते हैं। कैसे आना हुआ सुबह–सुबह, कोई मरीज है क्या इधर?"
"नहीं बाबू भाई। यूं ही इधर से जा रहा था। सोचा आपसे भी मिल लूंगा और आपको थोड़ी मैगजीनें भी दे दूंगा।"
"बहुत अच्छा किया आपने। बहुत पुण्य का काम होता है किसी के काम आना। मैं तो सबसे यही कहता हूं जो चीज आपके पास अपनी उमर पूरी कर चुकी है और अब आपके किसी काम की नहीं हैं, तो उसे दूसरों के पास जाने दो। उस आदमी के पास उसका कोई न कोई इस्तेमाल निकल ही आयेगा। वह चीज फिर से पहले जैसी काम की हो जायेगी। एक नया जीवन मिलेगा उसे।"
मैं उनकी सीधी–सादी फिलासॉफी पर मुग्ध हो गया। कितनी सहजता से वे बड़ी–बड़ी बातें कह जाते हैं। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई टीम टाम नहीं।

हम दोनों ने उनकी अलमारी में मैगजीनों के बंडल रखवाये। उनकी अलमारी में अद्भुत खज़ाना भरा हुआ था। किताबें और पत्रिकाएं तो थीं ही, बच्चों के लिए पुराने खिलौने, प्लास्टिक की नलियां, मिठाई की गोलियां वगैरह भी थीं। वे ये सारी चीजें एक थैले में भरने लगे।
"तो चलूं अपने राउंड पर?" वे मेरी तरफ देखकर पूछने लगे।
"अगर मैं भी आपके साथ चलूं तो आपको कोई एतराज तो नहीं होगा?" मैंने संकोच के साथ पूछा। बाबू भाई को उनके काम के जरिये ही जाना जा सकता था।
"हां चलो ना, इसमें क्या।"
और हम दोनों राउंड पर निकल पड़े। सबसे पहले वे बच्चों के वार्ड की तरफ गये। सारे बच्चे उन्हें देखते ही आवाजें लगाने लगे, "बाबू भाई आये मिठाई लाये . . .बाबू भाई आये गोली लाये।
"और उन्होंने अपने थैले में से पुराने ग्रीटिंग कार्ड, मिठाई की गोलियां और छोटे–छोटे लट्टू जैसे खिलौने निकालकर बच्चों में बांटना शुरू कर दिया।
"केम छो बाबा, लो तेरे वास्ते ये अपनी करिश्मा कपूर ने कार्ड भेजा है कि बच्चा जल्दी से अच्छा हो जावे तो मैं उसको मिलने को आवेगी। मेरे को फोन करके बोली कि क्या नाम है उसका . . .हां . . .हां . . .अपने सुन्दर का . . .उसका खयाल रखना। मैंने डॉक्टर से कह दिया है। आके तपास कर जावेगा।" वे बच्चे के गाल पर हाथ फिरा देते।

वे फिर एक और बच्चे के पास गये।
बच्चा उन्हें देखते ही मुस्कुराया, "क्यों रे मास्तर, रात को नींद आयी थी या तारे गिनता रहा। बच्चा खुलकर हंसा, "आयी थी।"
बच्चे की मां उन्हें बच्चे के बारे में बताती है।
"फिकिर नहीं करो बेन। सब ठीक हो जायेगा और बच्चा पहले की तरह खेलने लगेगा।"

एक और बच्चे के पास जाकर वे उसकी नब्ज देखते हैं। बच्चे की मां बताती है कि दर्द के मारे बच्चे को बहुत परेशानी हो रही है।
"कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। वेरी स्वीट बॉय। अभी देखना हम इसे देखने के लिए अस्पताल के सबसे बड़े डॉक्टर को लेकर आते हैं। ये तो बहुत लवली बॉय है। मैं इसे एक मीठी गोली देता हूं। खा लो बच्चे। इससे दांत भी खराब नहीं होते और भूख भी नहीं लगती। ले लो। स्पेशल लन्दन से मंगवायी है मैंने बच्चों के लिए। अभी तुम एकदम अच्छे हो जाओगे और फिर से फुटबॉल खेल सकते हो।"

मैं देख रहा था उनका राउंड लेना ठीक बड़े डॉक्टर के राउंड लेने जैसा ही है। लोग उनके आते ही खड़े हो जाते। ठीक वैसे ही प्रणाम करते जैसा डॉक्टरों को किया जाता है।

मरीज के साथ वाले उन्हें अपने मरीज के बारे में बता रहे थे और वे कोई न कोई आश्वासन जरूर दे रहे थे। मैंने पाया कि उनके प्रति सभी में अपार श्रद्धा है और अगाध प्रेम हैं उनके मन में अपने मरीजों के प्रति। कहीं कोई दिखावा या आडम्बर नहीं।

एक दूसरे वार्ड में एक आदमी पानी पीने के वास्ते उठ नहीं पा रहा था। वे उसके पास जा के पानी पिलाते हैं और थैले में से प्लास्टिक की नली निकालकर उसे देते हैं, "जब भी प्यास लगे तो इस नली को मुंह से लगा लेना और लेटे–लेटे पानी पी लेना। कोई तकलीफ नहीं होवेगी।"

वह आदमी करूणापूरित नयनों से उन्हें देखता रह गया। दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उसने बाबा को।
एक अन्य वार्ड में बाबू भाई ने मैंगजीनें, फल और दूसरी चीजें बांटी। हाल–चाल पूछे।
एक मरीज उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करता है।
"भाई केम छो?" बदले मे बाबू भाई पंड्या उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछते हैं, "तू अपनी कह, कैसा है। ले तेरे लिए मिनिस्टर साहब ने सन्तरे भिजवाये हैं, बोला है कि टाइम मिलते ही आऊंगा मिलने।"

हम पूरे अस्पताल का ही राउंड लगा रहे थे। डॉक्टर के तो वार्ड बंधे होते हैं। बच्चों के डॉक्टर बच्चों के वार्ड में और हडि्डयों के डॉक्टर अपने वार्ड में लेकिन बाबू भाई का कोई तय वार्ड नहीं था। सारे वार्ड उनके थे। सारे मरीज उनके थे। वे सबके सगे थे और सब उनके सगे। वे सबको प्रणाम कर रहे थे और सब उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे।

बाबू भाई पंड्या को देखते ही एक जवान लड़का उनके पैर छूकर प्रणाम करने लगा। बाबू भाई पंड्या उसे उठाते हैं, "बेटा मेरे पैर नहीं पकड़ो। ऊपर वाले की मेहेरबानी है कि वक्त पर तुम्हारे बापू को मदद मिल गयी और उनकी जान बच गयी।"
लड़का अभी हाथ बांधे खड़ा था। एकदम रोने को हो आया, "आप न होते तो उन्हें तो कोई अन्दर नहीं आने दे रहा था। आप ही की वजह से . . ." उसने दोनों हाथों से बाबू भाई पंड्या के हाथ पकड़ लिये हैं, "मैं कैसे आपका अहसान चुकाऊंगा।"
"बाबू भाई पंड्या उसे दिलासा देते हैं, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा। अगर तुम कुछ करने की हालत में हो तो एक काम करो। एक दुखी परिवार तुम्हें दुआएं देगा।"
लड़का कहने लगा, "आप हुकुम करो बाबू भाई।"

बाबू भाई पंड्या उसे बता रहे हैं, "वार्ड नम्बर तीन में बिस्तर नम्बर सोलह पर एक दर्दी है। उसे आज रिलीव करने वाले हैं। उसके घर से कोई लेने वाला आया नहीं है। अस्पताल वाले तो उसे वरांडे में डाल देंगे। बेचारा फिर से बीमार हो जायेगा। तुम एक काम करो। उसे उसके घर तक भिजवाने का इन्तजाम करा दो तो समझो तुम्हारे बप्पा का काम हुआ है। जय श्री कृष्ण।"
लड़का खुश हो गया था, "हो जायेगा। और कुछ बाबू भाई?"
बाबू भाई पंड्या ने उसके कंधे पर हाथ रखा, "बस, एक बात और, अपने मां–बाप की खूब सेवा करो। उनकी सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। बूढ़े लोग दो बात कड़वी भी बोलें तो नीम के पत्ते समझ कर के ले लो। फायदा ही करेंगे

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