मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


3
लड़के ने एक बार फिर से बाबू भाई के पैर छुए और चला गया।
हम पूरा राउंड लगाकर वापस आ गये।
बात आगे बढ़ाने की गरज से मैंने पूछो, "बाबू भाई आप रहते कहा हैं?"
बाबू भाई बताने लगे, "थोड़ी दूर है घर मेरा। प्रगति नगर में।"
मैं आगे पूछता हूं, "आप यहां रोज आते हैं?"
"हां भाई। अब तो रोज ही आता हूं। सुबे आठ बजे तक आ जाता हूं और रात को ही जाता हूं।"
"और आपका घर बार, आपका काम?"
"भाई ये काम ही तो कर रहा हूं मैं। ईश्वर के बन्दों का काम। देखो साहब, यहां तरह–तरह के दर्दी आते हैं। किसी–किसी वार्ड में तो महीना–महीना भी रहना पड़ता है। तो ऐसे दर्दी के साथ उसके घर वाले काम–धन्धा तो छोड़ के नहीं बैठ सकते ना। और फिर छोटे–छोटे बच्चे होते हैं, गरीब लोग होते हैं, जिनका कोई नहीं होता। बूढ़े होते हैं जिनसे कोई बात करने वाला नहीं होता। फिर अस्पताल का स्टाफ बेचारा किस–किसकी सुने। वे भी बेचारे थक जाते हैं। गर्दी इतनी है, तो ये बाबू भाई पंड्या है ना, इसे घर पर तो कोई काम है नहीं, सो आ जाता है।"
"लेकिन आप ये सब करते हैं इसके लिए तो ढेर सारे पैसे चाहिए ना।"
"ना ना . . .पैसा तो आप सबका है, मेरे तो बस ये दो हाथ हैं, वही काम करते हैं। पैसा तो ऊपर वाला भेजता ही रहता है। चलिए साहब, जरा गेट तक हो आयें। कुछ फल आये होंगे, मरीजों के लिए। ले आवें।"
मैं हैरान हो गया – किसने भेजे होंगे।
"बहुत लोग हैं। भेजते रहते हैं। एक एमएलए साब हैं। वे हर दिन एक टोकरा फल भिजवाते हैं। एक और साहब हैं, वे बच्चों के लिए एक खुराक भिजवा देते हैं। और भी कई लोग हैं जो अलग–अलग सामान भिजवाते रहते हैं। मैं आगे दे देता हूं। बस . . .मैं तो बस डाकिया हूं ऊपरवाले का . . ."
"आप कब से ये काम कर रहे हैं?"
"बीस बरस तो हो ही गये होंगे। रिटायरमेंट"आप क्या करते थे?" के बाद से ही सेवा के इस काम से जुड़ गया था।"
"आप क्या करते थे?"
"पुलिस में सीआइडी इन्सपेक्टर था। तब किसी न किसी केस के लिए अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते थे। मैं गरीब मरीजों को देखता। बेचारे राह देखते, कोई उनकी सेवा के लिए आये। एक गिलास पानी पिलाये। तब मैं सिर्फ छुट्टी के दिन आया करता था। रिटायर होने के बाद तो मैंने अपने जीवन का यही मिशन बना लिया है। अब तो जीना–मरना यहीं है।"
"बाबू भाई, आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। मैं देख रहा हूं कि लोग यहां इतने परेशान हैं कि कोई सुनता ही नहीं है उनकी। गरीब आदमी की तो कोई सुनवाई ही नहीं हैं यहां।"

मैं महसूस कर पा रहा था कि वे अपने बारे में बातें करते हुए सहज नहीं थे और बड़ी बेचैनी महसूस कर रहे थे। जो कुछ भी उन्होंने बताया, ऊपरी तौर पर मोटी–मोटी बातें ही बतायीं। मैंने उन्हें ज्यादा नहीं सताया। डॉक्टर भाटिया इशारा कर ही चुके थे।
"ठीक कहते हैं आप।" वे बात आगे बढ़ाते हैं, "देश में गरीब आदमी की कहीं भी सुनवायी नहीं हैं। उस बेचारे को तो अपनी बात कहने का हक ही नहीं हैं। अब मुझसे जितना हो पाता है, मैं करता हूं और रात को जब सोता हूं तो तसल्ली होती है कि आज का दिन बेकार नहीं गया।"

हम गेट पर पहुंचे। वहां दो टोकरे सन्तरे और केले वगैरह पान की दुकान के बाहर रखे थे।
बाबू भाई को देखते ही पान वाला कहने लगा, "बाबू भाई, अभी कोई आदमी आपके लिए ये लिफाफा छोड़ गया है। बोल रहा था, बाद में मिलने आयेगा।"
बाबू भाई ने लिफाफा खोलकर देखा। ढेर सारे पुराने ग्रीटिंग कार्ड थे। वे खुश हो गये, "चलो अच्छा हुआ। कार्ड खतम भी हो रहे थे।"
मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाता, "आप बच्चों को ये पुराने कार्ड क्यों देते हैं?"
"इन गरीब बच्चों को नये कार्ड कौन भेजेगा और क्यों भेजेगा? तो मैं लोगों से कहता हूं कि भई पुराने कार्ड फाड़ कर फेंकने के बजाये मुझे दे दो। बच्चों को बहलाता रहूंगा कि माधुरी दीक्षित ने भेजा है और शाहरूख खान ने भेजा है। बच्चे खुश हो जाते हैं। और हमें क्या चाहिए। बच्चे के चेहरे की मुस्कुराहट से ज्यादा कीमती चीज दूसरी नहीं होती साहब। हम बस यही काम नहीं करते, भूल जाते हैं। बच्चे कोई सोना–चांदी नहीं मांगते, जमीन जायदाद नहीं मांगते, उनके गाल पर प्यार से हाथ फेर दो और दुनिया के सबसे खूबसूरत फूल खिलते हुए देख लो। आइए मैं आपको दिखाऊं।"

बाबू भाई मेरा हाथ पकड़कर एक बच्चे के पास लेकर जाते हैं। बच्चे के पैर पर पलस्तर लगा हुआ था। उन्हें देखते ही बच्चा खुश हो गया। हाथ जोड़कर नमस्ते की। बाबू भाई उसके सिर पर हाथ फेरते हैं और उसके सामने सौ रूपये का एक नोट, फूलों वाला एक खूबसूरत कार्ड और एक टॉफी रखते हैं, "लो बेटा, कोई एक चीज चुन लो।"
बच्चा भोलेपन से पूछता है, "मैं ये कार्ड ले लूं। और ये टाफी भी . . .?"
बाबू भाई, "ले लो बेटे . . .दोनों ले लो।" बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया था।
पूछा था बच्चे ने, "मेरे लिए है ये?"
"हां बेटा तेरे लिए ही है। अपनी वो तब्बू है ना, वो कल रात आयी थी इधर। तू तो सो रहा था तो मेरे पास आयी और बोली कि अभी मैं जाती हूं। मेरी तरफ से ये कार्ड मुन्ना राजा को दे देना।"

हम देख रहे थे कि बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया है।
बाबू भाई बताने लगे, "देखा? बच्चे के चेहरे के बदलते हुए रंग को? बच्चों को खुश करना कितना आसान होता है। बस मैं यही तो करता हूं।"

मैं भावुक होने लगा था। पता नहीं कैसे ये ख्याल मन में आ रहा था कि इस देवता के पैर छूकर उसे प्रणाम करूं और कहूं – मुझे भी अपने साथ जोड़ लीजिए। मैं पता नहीं क्यों कागज काले करते हुए ये मोह पाले हुए हूं कि इससे क्रांति आ जायेगी, मेरे लिखे से समाज का भला हो जायेगा या सब लोग सुखी हो जायेंगे।

मैं देख रहा था कि असली मानव सेवा तो ये अस्सी बरस का बूढ़ा कर रहा है और बदले में किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता। कुछ भी तो नहीं। जो कुछ मांगता है इन मरीजों के लिए ही मांगता है। हे देव, प्रणाम है तुम्हें। मैं तो तुम्हारे पासंग खड़े होने लायक काम भी नहीं करता। दावे बेशक इतने बड़े–बड़े करता होऊं।
भावुक होकर कहा था मैंने, "बाबू भाई एक बात बोलूं।"
बाबू भाई ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले, "बोलिए ना साब। आप तो खुद इतना बड़ा काम कर रहे हो। लिखने का। समाज में जो भी अच्छा बुरा है उसको सामने लाने का काम तो बहुत बड़ा होता है साहब।"
"मैं कभी–कभी आकर आपके साथ काम कर सकता हूं क्या, ये छोटे–छोटे काम। अगर कुछ और नहीं तो टाइम तो दे ही सकता हूं।" हालांकि मैं जानता हूं कि संवाद मेरे भीतर से नहीं आ रहा। श्मशान वैराग्य है ये। घर जाते ही मैं दुनियावी धन्धों में फंस जाऊंगा। मैं दो बार भी आकर इनके साथ राउंड लगा लूं तो भी बहुत बड़ी बात होगी। मुझसे हो ही नहीं पायेगा। लेकिन फिर भी कह तो दिया ही था मैंने।
"आप जरूर आना। ये अस्पताल एक तरह से बहुत बड़ा स्कूल है। जीवन का स्कूल। यहां आपको हजार तरह के अदमी मिलेंगे। अच्छे भी, बुरे भी। यहां जीवन को आप बहुत नजदीक से देखेंगे। असली जीवन तो यहीं है साब। दुख, तकलीफ, फिर भी चेहरे पर हंसी। एक दूसरे के लिए कुछ करने की इच्छा। और क्या होता है जीवन में साहब। दो मीठे बोल बोले और सब कुछ पा लिया। अब चलूं मैं साहब। आप चाहें तो अपने डॉक्टर दोस्त के पास बैठें। मैं जरा अपने पुराने मरीजों की नहाने–धोने में मदद करूं। नर्स बेचारी भी कितने मरीजों की सेवा करे। थक जाती हैं वे भी तो।"

और वे मुझे लम्बे गलियारे के बीच में ही छोड़ कर चले गये थे।
मैं एक ही हफ्ते बाद ही जब अस्पताल पहुंचा था तो पता चला, बाबू भाई कहीं गये हुए हैं। बस आते ही होंगे। मैं वहीं बेंच पर बैठ कर इन्तजार करने लगा था। मेरे पास ही बेंच पर कुछ बच्चे बैठे हुए थे। उनमें एक बच्चे के पैर में सूजन थी। मैं उनके इतने नज़दीक बैठा था कि उनकी पूरी बात सुन पा रहा था।
"मैं तुझे बोला था ना . . .वो हड्डी जोड़ने वाले बंगाली के पास लेकर जाते और वो फटाक से हड्डी जोड़ देता पर तुम लोग माने ही नहीं। यहां ले के आ गये।" उनमें से एक कह रहा है।
ये सुनते ही सूजे पैर वाला लड़का रोने लगा।
दूसरा उसे चुप करा रहा था। "तू क्यों रो रहा है रे मुन्ना। ये हमारी सिरदर्दी है कि तेरा इलाज होना चाहिए। रो नहीं। कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा।"
सूजे पैर वाला वही लड़का कह रहा था, "मैं हमेशा तुम लोगों को तंग करता रहता हूं।"
बड़ा लड़का जवाब में बोला, "तो क्या हुआ? हम तेरे दोस्त ही तो है।"
वही लड़का, "इतने पैसे कहां से लाओगे?"
बड़ा लड़का, "वो सोचना तेरा काम नहीं है। कुछ न कुछ करेंगे।"
वही लड़का, "देख कबीरा। इसे ऐसे ही रहने दें। अपने आप ठीक हो जायेगा।" वह उठने की कोशिश करने लगा।
कबीरा, "तू चुपचाप बैठ और हमें सोचने दे।"

लड़के फुटपाथ पर काम करने वाले लग रहे थे। ऐसे मरीजों की अस्पताल में क्या हालत होती है, हर कोई जानता है। अस्पताल में ही क्यों, कहीं भी।

काश . . .हर अस्पताल में दस–बीस बाबू भाई पंड्या होते। कोई तो इनके हक की बात करने वाला होता। आसपास जितने भी मरीज नज़र आ रहे थे, सारा दिन यहां से वहां तक धकियाये जायेंगे और शाम ढलने पर अस्पताल में होने के बावजूद सबकी तकलीफ बढ़ चुकी होगी।

मैं उन बच्चों की गतिविधियां देख ही रहा था कि तभी हमारी ही बेंच पर बैठ एक आदमी ने पूछा बच्चों से, "क्या बात है। क्यों परेशान हो?"
बड़े लड़के ने बताया, "हमारा दोस्त है। सड़क पार करते समय गिर गया। डॉक्टर पहले बोला कि एक्सरे कराओ और अब बोलता है पिलस्टर लगेगा। दवा बाज़ार से लाने के वास्ते बोला है।"
वह आदमी पूछने लगा, "पैसे नहीं है क्या?"
लड़के ने सिर हिलाया, "नहीं हैं।"
वह आदमी दिलासा देने लगा, "तो घबरने का नहीं। बाबू भाई पंड्या के पास जाओ। वोई काम करा देगा।"

अब मुझे पूरे मामले में दिलचस्पी होने लगी कि देखें क्या होता है और ये बच्चे क्या करते हैं।
लड़का हैरानी से पूछा रहा था, "ये बाबू भाई पंड्या कौन है?"
वह आदमी बताने लगा, "है एक भला आदमी। उसी को ढूंढ़ो। मिल जावे तो उसे अपनी बात बोलो। मदद करेगा। भगवान है वो। उसके दर से कोई खाली नहीं जाता।"
वह लड़का आगे पूछा रहा था, "किदर मिलेगा वो?"
उस आदमी ने तब बताया, "कहीं भी देखो उसे। किसी न किसी दर्दी के पास मिल जायेगा।"
उस लड़के के चेहरे पर चमक आ गयी थी, "तुम लोग यहीं ठहरो। मैं उसे देख के आता है। चल सत्ते! तू भी चल।"
मैं जानता था, बाबू भाई पंड्या अभी नहीं आये हैं। चाहता तो इन बच्चों को बता भी सकता था और उनके आने पर उनसे मिलवा भी सकता था। मदद के लिए अलबत्ता उनसे कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अपने–आप ही मिल जाती लेकिन मैं देखना चाहता था कि इन बच्चों से उनका संवाद कैसे होता है?
कबीरा नाम का वह बड़ा लड़का कई लोगों से बाबू भाई पंड्या के बारे में पूछ रहा था। लोग उसे कभी दायें तो कभी बायें भेज रहे थे। एक आदमी ने तो उसे बाहर की तरफ ही भेज दिया। बाकी लड़के भी परेशान से पूरे अस्पताल में बाबू भाई को खोज रहे थे।

उस दिन मेरी बाबू भाई से मुलाकात हो नहीं पायी थीं। मैं काफी देर तक बैठकर लौट गया था।

इसके बाद भी दो बार और ऐसा हुआ कि बाबू भाई पंड्या से मिल नहीं पाया। अलबत्ता, उन बच्चों से जरूर मुलाकात हो गयी। जिस बच्चे के पैर में सूजन थी, वह बच्चों के वार्ड में भर्ती हो चुका था और उसके पैर में पलस्तर चढ़ा हुआ था। उसके साथ के तीनों लड़के उसके पास ही बैठे थे।
मैं उन बच्चों के पास चला गया और पूछने लगा, "मैंने तुम लोगों को दो तीन दिन पहले बाबू भाई को खोजते हुए देखा था। क्या उन्हीं की मदद से ये भर्ती हो पाया है?"
"हां साब, अपने को भगवान मिल गया साहब, अगर वो न होते तो हमारे इस दोस्त को पलस्तर तो क्या साहब, कोई पट्टी तक बांधने को तैयार नहीं था।"
"क्या करते हो तुम लोग?" पूछा मैंने।
"मेरा नाम कबीरा है। ये सत्ते और ये गप्पू। हम लोग बूट पालिश करते हैं। मुन्ना हमारा दोस्त है, हमारा ध्यान नहीं था। अचानक सड़क की तरफ दौड़ा और पता नहीं कैसे गिर गया। पैर की हड्डी टूट गयी। अगर बाबू भाई न मिलते तो . . .हमारे पास तो दवा के पैसे . . .भी नहीं थे।"
अब दूसरा लड़का बताने लगा, "जब हम बाबू भाई के पास गये तो वो आये और बोले, "कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। ये एकदम अच्छा हो जायेगा और फिर से फुटबाल खेलने लगेगा। अभी देखना हम इसे अस्पताल के सबसे अच्छे वार्ड में भर्ती कराते हैं, चलो मेरे साथ। ये तो बहुत लवली बॉय है।" वे खुद हमारे साथ दो–तीन डॉक्टरों के पास लेकर गये साहब। डॉक्टर लोग को पूरी बात बतायी और फिर एक ट्राली लेकर आये और मुन्ना को प्लास्तर वाले कमरे में ले गये।"

अब तीसरा लड़का बता रहा था, "हमें रोना आ रहा था साहब, तो बाबू भाई बोले, "रोते नहीं . . .रोते नहीं। रोने से आंखें दुखेंगी और फिर दवा के लिए और पैसों की जरूरत पड़ेगी। फिर तुम बाबू भाई पंड्या को खोजोगे। ऐसा काम नहीं करो कि दवा की जरूरत पड़े। हां तो तुम लोग फिकिर नहीं करना . . .बच्चे अगर फिकर करें तो कैसे चलेगा भई . . .अभी मैं बड़े साहब से बोल के इधर दो दिन रहने के वास्ते वार्ड में तुम्हारे दोस्त को जगा दिला देता हूं। खाने का भी ठिकाना हो जायेगा। जब खाना देने वाला बॉय आये तो बोलना बाबू भाई पंड्या के आदमी हैं, थोड़ा जास्ती खाना दे देगा। मिल बांट के खा लेना। मैं भी बोलकर रखूंगा।"

बच्चे अभिभूत थे और उनके पास बाबू भाई की तारीफ के लिए शब्द नहीं थे। उनके गले रूंधे हुए थे और समझ में नहीं आ रहा कि उनकी इतनी सारी बातें कैसे बतायें।
मैंने पूछा, "यहां कोई तकलीफ तो नहीं हैं।"
कबीरा नाम का लड़का बताने लगा, "नहीं साहब, बाबू भाई ने सबको कह दिया है कि बच्चे का खयाल रखें। कोई तकलीफ नहीं हैं साहब।"
अब दूसरा लड़का मुझे बता रहा था, "साहब यहां अस्पताल में हर आदमी उनको सलाम मारता है, वो किसी भी डॉक्टर के कमरे में चले जाते हैं और काम करा के आते हैं। कोई भी उससे ऊंची आवाज में बात नहीं करता।"
अब तीसरा लड़का बताने लगा, "इदर सरकार ने उसे रखा होयेंगा कि गरीब लोक की मदद करो करके।"
तो कबीरा ने उसे टोका, "अबे ये तो सरकारी हस्पताल है रे तो सबको सरकार ही रखी होयेंगी ना . . ."
सत्ते – "जो भी हो एक बात माननी पड़ेगी, आदमी हीरा है, कितना बुड्ढ़ा है फिर भी सबको काम करता रहता है।"
अब बच्चे मेरी उपस्थिति भूलकर आपस में ही बात करने लगे थे। एक तरह से अच्छा ही था। बच्चे उनके बारे में क्या राय रखते हैं, उन्हीं की जबानी सुनने में क्या हर्ज हैं।
सत्ते – "कितने बरस उमर होगी रे उनकी?"
कबीरा – "अस्सी साल के तो होयेंगे रे।"
तेंडया – "अस्सी साल तो भोत होते हैं।"
कबीरा – "तो क्या हुआ। काम करने वाले कभी उमर देखकर थोड़े ही काम करते हैं।"
कबीरा – ""यार मैं तो दंग हूं इस आदमी की हिम्मत देखकर। अस्सी साल की उमर में भी इतनी हिम्मत। आदमी नहीं फरिश्ता है ये।"
सत्ते – "अगर ये न होते तो मुन्ना का प्लस्तर तो क्या पट्टी भी न लग पाती, जब वो डॉक्टर से कह रहे थे इसके बारे में तो मैं सोचता था इस तरह से तो कोई अपने मरीज के लिए भी नहीं कहता।
तभी साथ वाले मरीज के पास बैठा आदमी बीच में ही कहने लगा, "तुम लोग बाबू भाई पंड्या की बात कर रहे हो क्या?"
कबीरा – "हां क्यों?"
मरीज – "वो वाकई फरिश्ता है। पता नहीं किस–किस मरीज की सेवा करके इसने उन्हें ठीक ठाक वापस भिजवाया है। इसकी सेवा से ही हजारों आदमी मौत के मुंह से वापस आये होंगे।"
उसकी देखा देखी एक और आदमी भी बातचीत में शामिल हो गया, "इस बेचारे ने जिन्दगी भर तो सेवा ही की है, मरने के बाद भी अपना पूरा शरीर अस्पताल को दान कर दिया है, ताकि डॉक्टरी पढ़ने वाले बच्चों के काम आ सके।"
पहले वाले ने जानकारी बढ़ायी, "मैंने सुना है अपनी पूरी पेंशन भी यही खर्च कर देता है।"
दूसरे ने आगे बताया, "मैंने तो ये भी सुना है कि इसके बच्चे बड़े–बड़े अफसर हैं। अपनी गाड़ियां हैं उनकी।"
अब पहला बता रहा था, "मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने घर पर इसकी कद्र नहीं होती होगी इसलिए दूसरों के बीच अपना वक्त बांटता रहता है।"
अब दूसरे ने फैसला सुना दिया, "जो भी हो, हमें उससे मतलब नहीं। हम तो ये जानते हैं कि वे एक आदमी नहीं देवता हैं।"

मैं बच्चों के साथ थोड़ा वक्त गुजारकर लौटकर आया था। वापस आते समय सोच रहा था कि ये आदमी तो वाकई देवता है। किसी आम आदमी के बस में नहीं होता ये सब करना। और वो भी आज के युग में। मैंने मन ही मन बाबू भाई पंड्या को प्रणाम किया था। ये तीसरी बार था कि मैं उनसे बिना मिले लौट रहा था। गये होंगे किसी मरीज को उसके घर पहुंचाने या किसी डाक्टर के व्यक्तिगत काम निपटाने।

अगली बार अस्पताल जाने पर मुझे उनके एक और ही रूप के दर्शन हुए। मैं अस्पताल पहुंचा ही था कि बाबू बाई पर मेरी नज़र पड़ी। वे एक तरफ एक डेड बॉडी को अकेले ही कपड़े में लपेट रहे थे। वहीं पास ही बैठी एक अकेली औरत रो रही थी और बाबू भाई निष्काम भाव से अपने काम में लगे हुए थे। आस–पास खड़े कई लोग देख रहे थे लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था। बाबू भाई पंड्या ने अपना काम खतम करके एक टैक्सी बुलवायी और डेड बॉडी को टैक्सी की छत पर बंधवा दिया। रो रही अकेली औरत को सहारा देकर उन्होंने टैक्सी में बिठाया और जेब से कुछ पैसे निकालकर उस औरत को दे दिये और हाथ जोड़कर उसे विदा कर दिया। मैं देख पा रहा था कि उस औरत के हाथ दूर जाती टैक्सी से देर तक नज़र आते रहे थे।

इस बार भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि उनके सामने भी पड़ सकूं। मैं इस बार भी उनसे मिले बिना मन ही मन देवतुल्य प्रतिमा को प्रणाम करके लौट आया था।

अगली बार जब मैं उनसे मिलने गया तो वे एक आदमी को अस्पताल से विदा कर रहे थे। वह आदमी जोर–जोर से रोये जा रहा था और बाबू भाई उसे चुप करा रहे थे, "रोते नहीं बेटा, तुम किस्मत वाले हो। तुम अपनी बीवी को इतना प्यार करते हो। सारे काम छोड़कर इतनी दूर से उससे मिलने आते हो। उसका पूरा खयाल रखते हो। ऊपर वाले पर भरोसा रखो, उसे कुछ नहीं होगा। वो एकदम ठीक होकर अपने पैरों पर चलकर तुम्हारे साथ वापस जायेगी।"

वह आदमी बार बार, "बाबू भाई" ही कह पा रहा था। वे उसके कन्धे पर हाथ रखकर हंस रहे थे, "सात फेरों की याद हैं न . . .वैसे ही वो अपने पैरों से चलेगी जैसे चलकर तुम्हारे घर आयी थी और तुम देखोगे बेटा। उसे बहुत प्यार से रखना बेटा। बहुत अच्छी लड़की है।"
"बापू आप न होते तो . . ."
"मैंने तो अपनी तरफ से कुछ नहीं किया बेटा। ऊपर वाले का आर्डर हुआ कि यहां मदद चाहिए तो आ गया। अच्छा लगता है कि तुम एक दूसरे के बारे में सोचते हो। जरा उनकी सोचो कि जिनके पास कोई नहीं आता। जाओ। जो भी काम करना, ईमानदारी से करना और जो भी कमाओ उसमें से थोड़ा दूसरों के लिए भी रखना। हम इसलिए न रोयें कि हमारे पास जूते नहीं हैं। हम उनकी भी सोचें जिनके पैर ही नहीं होते, जाओ बेटा। छत और छतरी के फर्क को कभी मत भूलना बेटा। जाओ, अपना खयाल रखना।"
वह आदमी कह रहा था, "आप बहुत भले आदमी हैं बाबा। आजकल के जमाने में दूसरों के लिए कौन इतना करता है।"
बाबू भाई, "बेटे हम अच्छे तो सब अच्छे। हम बुरे तो सब बुरे हो जाते हैं, हमारी अच्छाई ही हमारा साथ देगी बेटा। सेवा में ही मेवा है। भगवान गवाह है इस सेवा के अलावा जिन्दगी में और कोई भी चीज इतनी पवित्र और खूबसूरत नहीं है बेटा। कोई भी ऐसा काम न करो कि सामने वाले को अपनी आंखें पोंछनी पड़ें। सबके चेहरे पर हंसी लाओ। वही जीवन को जीने लायक बनाती है। जीते रहो बेटा।"

वह आदमी बाबू भाई के पैर छू रहा था। जाते समय उसके दोनों हाथ जुड़े हुए थे। आंखों मे आंसू की दो बूंदें अटकी हुई थीं।

इस बीच मैं बाबू भाई से पचासों बार मिला। उनके साथ अस्पताल के कई वार्डों के चक्कर काटे। कई पत्रिकाएं और किताबें उनके लिए जुटायीं और उनके साथ घन्टों बैठकर मरीजों के हाल–चाल बांटे, लेकिन इसके बावजूद मैं डॉक्टर भाटिया से किया गया वायदा पूरा नहीं कर पाया था। लिख ही नहीं सकता था।

इस बीच बाबू भाई भी कई बार मुझसे मिलने आये। वे कभी हमारे ऑफिस पत्रिकाएं लेने आ जाते। पोस्टकार्ड डाल देने भर से वे आ जाते। मैंने उनके पोस्टकार्ड कई दोस्तों को दिये और इस बात का इन्तजाम कर दिया था कि हर महीने उनके पास काफी मात्रा में पत्रिकाएं पहुंचती रहें। वे आते, थोड़ी देर बैठते और पत्रिकाएं बांधना शुरू कर देते। वे उतनी ही देर रूकते जितनी देर में वे बंडल बांधे और गेट पास बनकर आये, लेकिन वे कभी रूककर एक गिलास पानी भी नहीं पीते। अपने बारे में तो वे कभी बात भी नहीं करते। बहुत कुरेदने पर भी नहीं। यहां तक कि इस विषय को ही टालते। मैं भी उन्हें नाराज करके कुछ जानना नहीं चाहता था। हालांकि उनके बारे में मुझे और भी बहुत सी जानकारी मिली थी और डॉक्टर भाटिया भी अकसर उनके बारे में नयी–नयी बातें बताते रहते, लेकिन मैं चाहकर भी उनके बारे में लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था।

जब भी उन पर कहानी लिखने की सोचता, वे इतने विराट और दयालुता की प्रतिमा हो जाते कि मेरा लेखनी छोटी पड़ जाती और कुछ भी लिखने से इनकार कर देती। शब्द मेरा साथ छोड़ देते।

यह भी पहली बार हो रहा था कि कहानी के लिए पात्र साक्षात मेरे सामने था और मैं नहीं लिख पा रहा था। लिखना चाहता था मैं लेकिन हो ही नहीं पाता था। एक साक्षात जीवन चरित्र को शब्दों में बांध पाने में मैं अपने आपको असमर्थ पा रहा था।

इस बीच अहमदाबाद छूट गया। वहां से आये मुझे छह बरस तो हो ही गये होंगे। मैं अहमदाबाद छोड़ने से पहले आखिरी बार उनसे मिलना चाहता था। पैकिंग के बाद ढेर सारी पत्रिकाएं भी निकल आयी थीं, वे भी उन्हें देना चाह रहा था लेकिन मिलना हो नहीं पाया था। दो एक बार गया था तो वे मिले नहीं थे और पोस्टकार्ड डालने पर आये नहीं थे। हो सकता है बीमार वगैरह हो गये हों या कोई और बात हो। मन में एक कसक सी थी कि पता नहीं फिर कब मिलना हो . . .लेकिन शायद ऐसा ही होना था। मैं उनसे बिना मिले चला आया था। शायद कुछ और कोशिश करता या उनके दिये पते पर ही चला जाता तो हाल–चाल तो मिल जाते लेकिन शहर छोड़ने की गहमागहमी और दोस्तों की विदाई की दावतों के बीच बाबू भाई पंड्या जरूरी कामों की सूची में कहीं नीचे चले गये थे।

बेशक मैं अहमदाबाद से मन पर बहुत बोझ लेकर आया था। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया था और बहुत कुछ सीखा था मैंने वहां लेकिन बाबू भाई पंड्या से मिलना इन सबसे ज्यादा कीमती सौगात थी मेरे लिए।

अहमदाबाद से डॉक्टर भाटिया आये हुए हैं। बरसों बाद उनसे भेंट हुई हैं। वे उसी अस्पताल में अपने विभाग के हैड हो गये हैं। बातों ही बातों में बाबू भाई पंड्या का जिक्र आया।

उन्होंने जो कुछ बताया है उससे मैं दहल गया हूं। मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू भाई पंड्या के साथ भी ऐसा हो सकता है।

डॉक्टर भाटिया बता रहे हैं, "बाबू भाई को उनकी बहू ने घर से निकाल दिया है। वे खुद बता रहे थे कि बहू उनके आने–जाने के टाइम से और घर में किसी भी किस्म की दिलचस्पी न लेने के कारण उनसे चिढ़ी रहती थी। एक वजह पेंशन भी थी जिसे वे अपने चहेते मरीजों पर ही खर्च कर डालते थे।"
"अरे ये तो बहुत बुरा हुआ। इस उम्र में और ऐसे देवता आदमी की ऐसी दुर्गत। कहां रह रहे हैं वो अब?"
"रहना कहां? अब तो हमारे अस्पताल में ही आ गये हैं। वे पिछले पच्चीस बरस से अपना सारा वक्त वहीं तो दे रहे थे। एक किनारे अपना थोड़ा सा सामान लेकर टिक गये हैं। इतना बड़ा अस्पताल है, किसी को क्या फर्क पड़ना है।"
ये बताते हुए डॉक्टर भाटिया अपनी गीली आंखें पोंछ रहे हैं। मेरी आंखें भी भर आयी हैं। किसी तरह भरे गले से पूछता हूं, "तो क्या उनकी दिनचर्या अब भी वहीं है। अब तो उमर भी बहुत हो गयी होगी।"
"हां, उमर तो बहुत हो गयी है और अब उतना कर भी नहीं पाते लेकिन अब भी सारा दिन मरीजों के पास जाकर बैठते हैं। उनके साथ बातें करते हैं। थोड़ी–बहुत मदद तो कर ही देते हैं।"
"एक बार कोई बता रहा था कि उन्होंने अपना शरीर भी अस्पताल के नाम डोनेट कर रखा है।" मैं पूछता हूं।
"हां, यह सही है, उन्होंने अपनी आंखें और अपना पूरा शरीर अस्पताल को डोनेट कर रखा है। मैं आपको बता नहीं सकता, उनके रहने से हम डॉक्टरों को, अस्पताल के स्टाफ को और मरीजों को कितना सहारा रहता है। सबसे बड़ी बात है कि वे मरीज में विश्वास जगाये रहते हैं जिससे हमारे लिए इलाज करना बहुत आसान हो जाता है।"
"यार, अपनी जिन्दगी में मैंने इतने जीवन वाला आदमी नहीं देखा जो जीते जी तो इतना कर ही रहा है, मरने के लिए पहले से तैयार होकर वही आ गया है कि उसके मरने के बाद उसके शरीर को भी किसी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जा सके।"
"कहते हैं बाबू भाई कि अपना शरीर तो दान कर ही रखा है। मरने के बाद यहां लाने में सबको तकलीफ ही होगी मैं खुद ही आ गया हूं जब भी मेरी आखिरी सांस का नम्बर आये तो आप लोग मेरी पर्ची काट देना। मेरे केस की फाइल बन्द कर देना। आप लोगों को आसानी होगी।"
"क्या अब भी सारे वार्डों के वैसे ही चक्कर लगाते हैं और बच्चों बूढ़ों को कार्ड, मैगजीनें और दूसरी चीजें देते रहते हैं?"
"नहीं, अब तो वो सब जगह जा नहीं पाते। हमारे पास भी कम ही आते हैं। हम ही बीच–बीच में उन्हें देख आते हैं और उन्हें पुराने कार्ड वगैरह दे आते हैं और उनसे मजाक में कहते हैं, "लो बाबू भाई पंड्या। अपनी करीना कपूर ने आपके लिए ये कार्ड भेजा है। कह रही थी बाबू भाई से किसी दिन जरूर मिलने आऊंगी।"
हंसते हैं तब बाबू भाई कहते हैं, "हां भई अब तो मेरी ही बारी है। देखना किसी दिन खुद भी आयेगी बाबू भाई पंड्या से मिलने के वास्ते।"
"आपकी बात बिलकुल सही है, लेकिन दिक्कत यही है कि बाबू भाई पंड्या जैसे लोगों की नियति यही होती है।"
"मुझे तो डर है कि पचासी साल की उमर में अगर उन्हें कुछ हो गया तो पता नहीं, अस्पताल के अहाते में रहते हुए भी उन्हें दवा की आखिरी खुराक भी मिलेगी या नहीं।"
मैं डॉक्टर भाटिया की बात सुनकर चुप रह गया हूं। कई बार शब्द भी तो साथ नहीं देते।
शायद बाबू भाई पंड्या जैसे आदमी पर कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। ऐसे लोग तो खुद जीती–जागती कहानियां रचते हैं। उन्हें सिर्फ प्रणाम किया जा सकता है।


पृष्ठ : 1 . 2 . 3

सूरज प्रकाश को अपनी प्रतिक्रिया इस पते पर भेजें
kathakar@rediffmail.com

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।