मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की
आँखों का तारा था। वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं। मुझसे भी
उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था। पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न
सुहाता। भाई शुरू से ही
झगड़ालू तबीयत का रहा। उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी। हम
बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी
बात-बात पर तुनकता और हुज़्ज़त करता। फिर भी पिता उसे कुछ न
कहते। मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल का पढ़ाई के लिए
न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की
खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से ग़ायब रहता और पिता
फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका
लेते।
रहस्य हम पर अचानक ही खुला।
भाई ने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे। सातवीं जमात में वह दो बार
फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता
था।
कबूतर छत पर रहते थे।
अहाते में खालों के खमीर व मांस के नुचे टुकड़ों की वजह से
हमारी छत पर चीलें व कव्वे अकसर मँडराया करते।
भाई के कबूतर इसीलिए बक्से
में रहते थे। बक्सा बहुत बड़ा था। उसके एक सिरे पर अलग-अलग
खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में वे उड़ान
भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ
करते।
भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता।
कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का
लेखा-जोखा रहता।
सौतेला और मैं अकसर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते। कबूतरों के
लिए पानी लगाना हमारे ज़िम्मे रहता। बिना कुछ बोले भाई
कबूतरोंवाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे
हैंड पंप की ओर लपक लेते। उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब
हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लिया जाता था।
गर्मी के उन दिनों में
कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं
बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही
कबूतरों का पानी छत पर लेकर जाते।
''आज क्या लिखा?'' बाल्टी पकड़ाते समय भाई को टोहते।
''कुछ नहीं,'' भाई अकसर हमें टाल देता और हम मन मसोसकर कबूतरों
को दूर से अपलक निहारते रहते।
उस दिन हमारे हाथ बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी,
''आज यह बड़ी कबूतरी बीमार हैं।''
''देखें,'' सौतेला और मैं खुशी से उछल पड़े।
''ध्यान से,'' भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी।
सौतेले की नज़र एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी।
''क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ?'' सौतेले ने भाई से विनती की।
''यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है।''
''मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा।''
भाई का डर सही साबित हुआ।
सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों
में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुंडेर पर जा बैठा।
भाई उसके पीछे दौड़ा।
ख़तरे से बेख़बर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुंडेर से दूसरी
मुंडेर पर विचरने लगा।
तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया।
कबूतर फुर्तीला था। पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया।
चील ने तेज़ी से कबूतर का अनुगमन किया। |