लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
तरुण भटनागर की लघुकथा- चेहरे के जंगल में


"तुम थोड़ा सीधे दीखते हो और तुम जानते हो पूरी तरह पब्लिक ओरियेण्टेड इस कंपनी में...वह भी मार्केटिंग में यह सब नहीं चलता है।"
रत्नेश की इस बात में ऑफिस के दूसरे लोगों ने भी हाँ में हाँ मिलाई।
"मैं नहीं मानता कि इससे कोई फर्क पड़ता है। मैं अपना टारगेट हर साल पूरा करता हूं...मेरी पर्फोरमेंस कई लोगों से बेहतर हैं...।"
मैंने अपने को बचाते हुए, कुछ आक्रमण सा करते हुए कहा।
"तुम तो खामखां झल्ला जाते हो। मेरे कहने का बस इतना सा मतलब है कि अगर तुम थोड़ी कोशिश करो तो और बेहतर पर्फोरमेंस दे सकते हो...।"
रत्नेश ने अपनी बात संभाली। यह बात वह एक दो बार और कह चुका हैं। पर आज जब उसने यही बात दूसरे लोगों के सामने कही तो मुझे पलटवार करना पड़ा।
"क्यों, अपना चेहरा बदल दूँ क्या?"
मेरी बात पर सब हँस पडे। रत्नेश चुप हो गया।
मेरी ऑफिस में रत्नेश से सबसे ज्यादा पटती है। वह उम्र में मुझमें छोटा हैं। बॉस का खासमखास है। दफ्तर के मार्केटिंग सेक्शन में वह नंबर वन हैं। मैंने उससे कई बातें सीखी हैं। मैंने मार्केटिंग के कई नये–पुराने गुर उससे सीखे हैं।
उस रोज शाम को घर लौटते समय वह फिर से वही बात करने लगा –
"सुबोध, लगता है दोपहर को जो बात मैंने तुमसे की थी, तुम उसका मतलब नहीं समझ पाये...।"
"वो कैसे...?"
"ठीक है, किसी का चेहरा नहीं बदला जा सकता...पर ऐसा हो सकता है, कि वह दूसरों को सीधा–सादा न लगे। अपने को बदलना नहीं है। सिर्फ सीधा–सादा नहीं दीखना है, इतनी सी ही तो बात है...फिर तुम अंदर से कैसे भी रहो...आजकल ऐसा ही है। लोग वही देख सकते हैं जो उन्हें दिखाया जाता है। मोटी–मोटी बात यह है कि चेहरा थोड़ा प्रेजेण्टेबल और सीरियस होना चाहिए ताकि लोग तुम्हें गंभीरता से लें। फिर चेहरे पर सिचुएशन के हिसाब से सही रिएक्शन भी होना चाहिए। याने पहले सिचुएशन को थोड़ा सा एसेस करो...मेरा मतलब उस सिचुएशन पर विचार करने से नहीं हैं, बस इतना देख लो कि प्रोफेशन के हिसाब से किस सिचुएशन में गुस्सा करना ठीक रहेगा, किसमें शांत रहना चाहिए या मुस्कुराना चाहिए...बस वैसा ही करो। शुरू करोगे तो कुछ समय बाद आदत सी बन जायेगी। मैं भी जब सर्विस में नया–नया आया था, तब इसकी आदत डाली थी।"
"पर...।"
मैं सशंकित था, एक ऐसे व्यक्ति की तरह जिसका चेहरा उसके मन पर चिपका होता है। पर रत्नेश ने मेरी बात नहीं सुनी –
"...और हाँ एक बात और...बॉस के सामने संभलकर यों दीखना है जैसे तुम इंटेलेक्चुअल हो, स्मार्ट भी और तुम्हें कंपनी की वाजिब चिंता है...बॉस के सामने सतर्क रहकर ऐसे एक्स्प्रेशन चेहरे पर लाये जा सकते हैं।"

मुझे रत्नेश से ये गुर सीखने में ज्यादा समय नहीं लगा। पहले सिर्फ थोड़ी सतर्कता से मैं जान जाता था, कि किस सिचुएशन में कौन सा एक्सप्रेशन चेहरे पर लाना है, क्या करना है और क्या कहना है? मुझे इसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे। मेरे प्रति लोगों की धारणा में बदलाव आने लगा। फिर कुछ दिनों बाद मुझे सतर्क रहने की भी जरूरत नहीं थी, सबकुछ किसी मैकेनिकल एक्शन की तरह होने लगा, जैसे आप गाड़ी चला रहे हों और अचानक सामने कोई जानवर आ जाये तब आपका पैर खुद ब खुद ब्रेक पर चला जाता है, वहाँ सतर्कता जैसी चीज नहीं होती है। अब मुझे कुछ भी नहीं सोचना होता था, सारे एक्सप्रेशन, बातें और रिएक्शन्स सब अपने आप होते थे। पर थोड़ा अलग तरह से मन शांत रहता था और लोगों को यकीन हो जाता था, कि मैं गुस्से में हूँ सच का लबादा ओढ़े झूठा एक्सप्रेशन जिस पर मेरा बॉस यकीन कर लेता था, मन में ठिठोली होती थी और मैं किसी गंभीर समस्या को सुलझाने के लिए कोरा सा चेहरा बनाये होता था...। पर बात यहाँ नहीं रुकी, उसने मुझसे बचकर मैकेनिकल एक्शन की सीमा को भी पार कर लिया। एक दिन मुझे गुस्सा आया और मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ गया। एक दिन अपने से उलट मैंने अपने को शांत रखा और मुझे ऐसा लगा मानो जीना निरर्थक है। एक दिन मैं खोखला होकर हँसा और मैं लोगों से अपने खुशी के आँसू नहीं छुपा पाया। मेरा मन चेहरे के जंगल में कहीं भटक गया था और वह जंगल मुझे जाने बिना, मुझसे पूछे बिना ही घना होता रहा...।

९ जनवरी २००४