चिठ्ठा–पत्री चिठ्ठा पंडित ने बांची

फ़रवरी के चिठ्ठे

राम राम यजमानों। चलिए, फरवरी महीने के आगमन के साथ फागुन का महीना भी आ गया। जहां पलाश ने जंगल में आग लगाई है वहीं कोयल ने कूक–कूक कर फागुन के आने की ख़बर भी दे दी है। होली का नशा भी छाने लगा है मौसम की खुमारी के साथ। मगर यजमान, हिंदी ब्लाग मंडल में मौसमी फागुन अभी भी अपना रंग नहीं जमा पाया है। फरवरी महीने के चिठ्ठों में जहां कवि चिठ्ठाकारों ने काव्य रस में चिठ्ठा जगत को डुबोए रखा वहीं गंभीर विषय से ले कर इंसानी रिश्तों की कहानी भी कह गया इस बार का ब्लाग मंडल, मगर होली का हुडदंग अभी मचा नहीं है चिठ्ठाजगत में।

आइए यजमान, नज़र डालते हैं फरवरी माह के ब्लाग की दुनिया पर।

राकेश खंडेलवाल अमेरिका में रहते हैं। वे आशु कवि माने जाते हैं। उनकी सुंदर रचनायें आए दिन अंतर्जाल पर और अन्य पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाती है। उनकी कविताओं की पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। सौभाग्य से वो हिंदी ब्लाग भी लिखते हैं जहां उनकी कवितायें पढ़ी जा सकती हैं। उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए,
'हमने सिंदूर में पत्थरों को रंगा, मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे, घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किए, और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे, घंटियां साथ में लेके झंकारती'
'आस्था' नामक इस कविता को आगे पढ़ सकते हैं आप यहां उनके ब्लाग गीतकलश
पर 

पद्मनाभ मिश्र भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मे पीएच .डी .कर रहे हैं और व्यस्तता के चलते शायद ब्लाग पर उतना लिख नहीं पाते मगर वे अपने अनुभवों को शब्दों में ढालने में माहिर हैं। इस बार उनके संस्था में नोबल पुरस्कार विजेता कलौस वौन क्लज़िन्ग आए हुए थे। उन्होंने अपने इस हमेशा याद रह जाने वाले अनुभव के बारे में लिखा जब उनकी मुलाकात प्रोफ़ेसर क्लौस वौन क्लिटज़िन्ग से हुई।

लेक्चर के बाद प्रश्नोतर कार्यक्रम था, मैंने देखा की दुनिया मे यदि हंसी मज़ाक के लिए कोई नोबेल पुरस्कार होता तो उनको यह पुरस्कार कब का मिल चुका होता। एक मंजे हुए प्रोफ़ेसर की सारी खूबियां मौजूद थी उनमें। बहुत सारे प्रश्न किए गए, लेकिन मुझे वह प्रश्न बहुत अच्छा लगा जिसको एक बी .टेक .के एक छात्र ने पूछा था, "आप जब हमारे उम्र के थे तो बाकी लोगों से कैसे अलग थे?"
उनके इस अनुभव को उन्हीं की जुबानी पढ़िए उनके चिठ्ठे मेरी डायरी
पर 

रवि रतलामी का चिठ्ठा 'रचानाकार' दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। अच्छी रचनाएं प्रकाशित करने के लिए 'रचनाकार' ब्लागमंडल में मशहूर होता जा रहा है। सिर्फ़ यही नहीं, यह एक ब्लाग पत्रिका बनता जा रहा है। रवींद्रनाथ ठाकुर की छोटी कहानी 'संकट तृण का' को हिंदी में रचनाकार में इस बार रवि ने प्रकाशित किया। इस मजेदार कहानी को रचनाकार में आप पूरा पढ़ सकते हैं, यहां

दीपा जोशी नवोदित कवयित्री हैं। वो अपने चिठ्ठे पर कविताएं लिखती हैं। इस बार वैलेंटाइन दिवस के अवसर पर उन्होंने एक हल्की–फुल्की कविता अपने ब्लाग पर प्रकाशित की। उन्होंने व्यग्यातमक शैली में यह बताने की कोशिश की कि शादी के बाद सच्चाई और संसार के नियमों से बंधे पति–पत्नी के लिए वैलेंटाइन दिवस का वो मतलब नहीं होता जो प्रेमी–प्रेमिका के लिए होता है।
"जाओ इस अनर्गल प्रलाप से
ना मुझे सताओ
नहीं है कुछ काम
तो बाज़ार ही हो आओ।"
उनकी वेलेनटाइन बनाम बेलन टाइम शीर्षक कविता को पढें .उनके ब्लाग अल्प विराम पर।

मसिजीवि (असली नाम बताना नहीं चाहते) अभियंता और हिंदी के अध्यापक हैं। अपने चिठ्ठे पर वे नाना तरह के लेख/चित्र प्रकाशित करते रहते हैं। उन्होंने इस बार एक छोटे से प्रासंग को कहानी के रूप में प्रकाशित किया है अपने ब्लाग पर। 'सावधानः अर्थ हडताल पर है' शीर्षक से वे गहरी बात को सरलता से कह गए हैं— "शब्द की बेगारी करते–करते अर्थ बू़ढ़ा हो चला था। एक शाम एक शब्दकोश में बैठा वह विचार कर रहा था कि आख़िर उसने अपने जीवन में पाया क्या? शुद्ध बेगारी। न वेतन न भता। अगर देखा जाए तो शब्द जो कुछ भी करता है उसमें असली कमाल तो अर्थ का ही होता है पर चमत्कार माना जाता है शब्द का। अर्थ को कोई नहीं पूछता– कतई नहीं। ये तो साफ़-साफ़ गुलाम प्रथा है, पूरा जीवन झौंक दिया, न कोई पेंशन न सम्मान। अर्थ को लगा कोई संघर्ष शुरू करना ज़रूरी है।" इस पूरे लेख का मज़ा उठाएं उनके चिठ्ठे मसिजीवी पर।

माउंट आबू की खूबसूरत वादियों को कैमरे में कैद किया पंकज बेंगानी ने और अपने ब्लाग पर प्रकाशित किया। आप भी इस तस्वीरों के ज़रिए माउंट आबू की सुंदर वादियों में घूम आएं। रूकिए रूकिए इस पृष्ठ का तो लिंक ही टूटा है। दूसरे पृष्ठ का लिंक दिए देते हैं जो है यहां पर हो सकता है आपके पढ़ने तक लिंक ठीक हो जाए और आपको दो पृष्ठ मिल जाएं माउंट आबू की झलक के लिए।

प्रत्यक्षा ने अपने ब्लाग पर सुंदर कविताओं से सजा रखा है। इस बार उन्होंने दिल को छू लेने वाला एक संस्मरण लिखा।  इंसानी रिश्तों की कहानी कहती उनकी ये कहानी बड़ी खूबसूरती के साथ उन्होंने पेश की। "शमी बाबू और नाज़िर बाबा, पिता के उन पुराने मित्रों में से थे जो मित्रता की दूरी लांघ कर परिवार के दायरे में आ गए थे। पिता से उनका परिचय तब का था जब हमारी पैदाइश भी नहीं हुई थी। शमी बाबू़ गया के पास बेला के रहने वाले थे। तेल का मिल था और भी कई काम। वहां के प्रतिष्ठित लोगों में से थे, खांटी सैयद। नाज़िर बाबा, पिता के अधीन काम करते। बड़े दिनों बाद पता चला कि नाज़िर उनका नाम नहीं था। उनका नाम था सईद अख्तर।" उनके इस संस्मरण को यहां पढ़ा जा सकता है। 

जब इन्सानी रिश्तों की बात आई तो मानसी ने भी एक कहानी कही। नातबोउ की कहानी कहता उनका ये लेख पुराने बंगाल के समाज की याद दिला गया। "नातबोऊ बालविधवा थीं। उस ज़माने में विधवायें बाल काट लेती थीं, सो उनके भी बाल नहीं थे, सफ़ेद धोती पहनती थीं और निरामिश खाती थीं। वो अनपढ़ थीं और इसी घर में आकर ठहर गईं थीं। घर में बड़ों से ले कर बच्चों तक सभी उन्हें नातबोऊ कहते थे। नातबोऊ घर का बहुत सारा काम करती थीं, और बच्चों को खूब डांटती थीं। सब उन्हें घर का सदस्य ही मानते थे। नातबोउ की कहानी आगे पढिए मानसी के ब्लाग पर

रति सक्सेना जानी–मानी लेखिका व कवयित्री हैं। उन्हें भारत सरकार की ओर से कई पुरस्कार मिल चुके हैं व उनकी कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। अंतरजाल पर वो 'कृत्या' नामक साहित्यिक पत्रिका का भी संपादन करती हैं। व्यस्त होते हुए भी वो हिंदी ब्लाग पर अपनी कविताओं को नियमित रूप से प्रकाशित करती रहती हैं। समकालीन कविताओं की श्रेणी में इस बार उन्होंने अपनी कुछ रचनायें अपने ब्लाग पर भेजीं।
'कल मैंने तस्वीर खींची
कल मैंने तस्वीर खींची
अपने पैरों की
कैमरा,
जानते हो, साधारण सा ही है?
कल मेरे पैर, जानते हो
मेरे पैर हमेशा गीले रहते हैं
मीठे पानी में खड़े–खड़े
इंतज़ार में गीले
तुम्हारे इंतज़ार में, दोस्त!'
इन कविताओं का आनंद उठाएं यहां

जाते–जाते ब्लाग पर फागुन के आगमन की ख़बर दे गया 'सृजन गाथा'। सृजन सम्मान छतीसगढ़ में स्थापित साहित्य और संस्कृति के संरक्षण और उत्थान के लिए बनाई गई संस्था है और इसी से जुड़े 'सृजन गाथा' नामक ब्लाग–पत्रिका में कुछ जाने–माने और कभी नये कवि/कहानीकरों की रचनाएं छापी जाती हैं। 'सृजन गाथा' में इस महीने अन्य कई रचनाओं के साथ भोपाल के श्री प्रमोद सक्सेना के सुंदर दोहों ने फागुन का रंग जमाया।

केशर कस्तूरी कुसुम फागुन भेजे पत्र
गंध बांटने हम खड़े यत्र तत्र सर्वत्र

फूलों के संग आ गई गंधों की बारात
अंग गई छूकर पवन ऊंची नीची जात

मुस्काती हैं चू़िडयां खनकें बाजूबंद
केशर रंग गुलाल ने रचे फागुनी छंद
सृजन सम्मान में फाग के इन दोहों
का आनंद लें

इस तरह फरवरी माह के कुछ चुने हुए चिठ्ठों को हमने ढूंढ़ निकाला। कठिन कार्य है ये यजमान क्योंकि हिंदी चिठ्ठाजगत दिन दुगुनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है और कई नये चिठ्ठाकार सामने आ रहे हैं। हर कोई बहुत बढ़िया लिखता है। हमारा बस चले तो सभी के सभी चिठ्ठे हम यहां बांच दें मगर ये संभव नहीं है। वैसे आप अगर चिठ्ठों पर नियमित रूप से नज़र रखना चाहते हैं तो नारद नामक चिठ्ठे पर रोज़ाना नये चिठ्ठों की जानकारी ले सकते हैं। आप सब को होली की मुबारकबाद के साथ ही आज हम विदा लेते हैं। अगले महीने फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए— हम जाते अपने गाम, सबको राम राम राम।

16 मार्च 2006