चिठ्ठा–पत्री चिठ्ठा पंडित ने बांची

जुलाई के चिठ्ठे  

रामराम यजमानों। पिछले महीने हमारे नातिन की शादी थी। नैनीताल में। शादी का मौसम जो चल रहा है। वहां शादी करवाने और यजमानों का भविष्य बांचने के बीच चिठ्ठा बांचने का समय ही नहीं मिला। मगर इस महीने हम फिर हाज़िर हैं, चिठ्ठा जगत की ख़बर ले कर। चिठ्ठा लिखने का कोई ख़ास कारण नहीं होता है। जो भी मन में आए लिख दीजिए। मगर हिंदी चिठ्ठा जगत में न सिर्फ़ चिठ्ठाकार सुंदर लेख लिखते हैं बल्कि तकनीकी जानकारी से लेकर साहित्यिक कोश से सामग्री उठा कर यहां पेश करते हैं। इस तरह हिंदी चिठ्ठाजगत हर दृष्टि से समृद्धशाली कहा जा सकता है।

जुलाई महीने के शुरू में ही देखिए, चिठ्ठाजगत के जाने माने चिठ्ठाकार श्री अनूप शुक्ल ने अपने चिठ्ठे में साहित्यकार कन्हैयालाल नंदन जी के बारे में विस्तृत लेख लिखा। उनके बारे में अमूल्य जानकारी दी। श्री कन्हैयालाल नंदन अनूप शुक्ल के मामा जी हैं। इसलिए उन्हें उनके संपर्क में ज़्यादा जानने का सौभाग्य मिला।
"बचपन से ही पढ़ने में मेधावी रहे मामाजी का बचपन बेहद अभावों में बीता। घर के सबसे बड़े भाई थे तथा मां–बाप को इनकी मेधा, प्रतिभा पर नाज़ था। भीषण अभावों के बावजूद प्रगति की राह बंद नहीं हुई। कोई न कोई रास्ता निकलता गया। बचपन के अभावों की कहीं न कहीं याद ज़रूर रही होगी जब उन्होंने लिखा :
मैंने तुम्हें पुकारा
लेकिन पास न आ जाना
मैं अभाव का राजा बेटा
पीड़ायें निगला
भटके बादल की प्यासों सा
दहका हुआ अंगारा
मैंने तुम्हें पुकारा
लेकिन पास न आ जाना।
किसी एक आशा में चहका मन
तो ताड़ गई
एक उदासी झाडू़ लेकर
सारी खुशियां झाड़ गई
वही उदासी तुमको छू ले
यह मुझको नहीं गवारा
मैंने तुम्हे पुकारा
लेकिन पास न आ जाना।"
कन्हैयालाल जी के बारे में और अधिक जानने के लिए अनूप शुक्ल के इस लेख को विस्तार से आप यहां पढ़ सकते हैं। 

साहित्य के क्षेत्र में चिठ्ठाकारों का योगदान और उनकी लगन को देखकर कभी–कभी हैरानी होती है। हिंदी की ही एक बोली छतीसगढ़ी, जो कि भारत के मध्यभाग में बोली जाती है, के एक उपन्यास 'चंद्रकला' को सृजनगाथा के चिठ्ठाकार ने प्रकाशित किया। पूरे के पूरे उपन्यास को इस तरह जालस्थल पर उपलब्ध कराना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। सत्रह भागों में प्रकाशित इस उपन्यास को आप अगर पढना चाहते हैं तो इस कड़ी पर जाएं।

डा .रमा द्विवेदी बरसों से हिंदी की सेवा में लगी रही हैं। 20 साल तक हिंदी के अध्यापन के बाद अब उनकी रूचि स्वतंत्र लेखन में है। उन्होंने भी ब्लाग लेखन के क्षेत्र में अपना पैर रखा और अब अनुभूति–कलश नामक चिठ्ठे को प्रकाशित कर रही हैं। उनकी इस कविता को देखिए—
कब दर्द का संवेग उठा?
कब शब्दों का जाल बुना?
कब लेखनी चली काग़ज़ पर?
कब यह पुस्तक का आकार बना?
कुछ पीड़ाएं थी इस धरती की?
जो मुझको झकझोरित करती थीं।
सिर्फ़ बस सिर्फ़ बयां करने को,
मैंने कलम उठाई थी।।

आशीष गुप्त ने अमेरिका से बिल ब्रायसन की नयी अंग्रेज़ी पुस्तक "शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ नियरली एवरीथिंग' का अवलोकन करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार यह पुस्तक विज्ञान में रूचि रखने वालों के लिए खज़ाना है। वे कहते हैं, "लगभग हर चीज़ का लघु इतिहास" नामक यह पुस्तक अपने नाम पर शत–प्रतिशत खरी उतरती है। पुस्तक की शुरूआत होती है बिग–बैंग में समय की शुरूआत के साथ और पदार्थ ब्रम्हांड, अंतरिक्ष़ आकाशगंगाएं और पृथ्वी बनने से। कहानी कालानुक्रमिक नहीं है क्योंकि विज्ञान की अनेक विधाओं मे शोध समांतर होते रहे, पर फिर भी समझने में सरल और उत्सुकतापूर्ण है। साथ ही समकालीन समाज के लोगों और संबंधित व्यक्तियों की सनकों पर सटीक टिप्पणी की गई है और झलक दिखलाई गई है।" इस लेख को पूरा पढ़ा जा सकता है उनके चिट्ठे 'कतरनें' पर।

प्रत्यक्षा ने अपने ब्लाग पर इस बार अपनी केरल यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा। कहानी लिखने में माहिर प्रत्यक्षा ने अपने इस यात्रा का सजीव विवरण यों दिया कि हम तो यजमान इसे पढ़ते–पढ़ते पूरी तरह खो गए और लगा कि उन्हीं के परिवार का हिस्सा बन गए हैं। "मुन्नार के करीब हम पहुंच गए थे। चाय की वादियां शुरू हो गई थीं। ऐसे ढलवां पहाड़ पहले सिर्फ़ तस्वीरों में ही देखे थे। हरी चादर ओढे, अधलेटे, अलसाये पहाड़। "रॉलिंग हिल्स" किसे कहते हैं अब समझ में आया। हर मोड़ पर लगता अब इससे सुंदर और क्या होगा। महेश को कहा कि जब अगला चाय बगान आए तो गाड़ी रोक दे, कुछ तस्वीरें हम उतार लें। पर चाय के बगान पर बगान निकलते रहे। . . .मुन्नार शहर में हम प्रवेश कर गए थे। एक अंतिम तीखा मोड, उससे भी तीखी चढ़ाई और हम "टी काऊंटी रेसोर्ट" पहुंच गए थे। थके हारे सैलानी कमरे में पहुंच कर ढह गए। कमरा बेहद सुंदर। बालकनी से पहाड़ों का नज़ारा, चोटी पर धुंध की चादर। सब कुछ एक रहस्यमय चादर में लिपटा हुआ। थोड़ी ठंड और ग़र्म कॉफी, नर्म बिस्तर और आराम। हम अगले दिन की घुमाई के लिए खुद को तैयार करने वाले थे " उनके इस यात्रा विवरण को क्रमवार पढ़ने का मज़ा लें यहां

अपने अपने विचारों को दार्शनिक रूप देते हुए प्रस्तुत किया सृजनशिल्पी नामक चिठ्ठे के लेखक ने। सत्य क्या है? मौन का क्या महत्व है और किस तरह सत्य और परमात्मा के करीब जाने का रास्ता है मौन दिखाता है, वे कहते हैं– "परमात्मा हमेशा मौन है। यह उसका सहज स्वभाव है। उसने कभी अपना नाम नहीं बताया। उसने कभी यह तक नहीं कहा कि उसका कोई नाम नहीं है। उसके सारे नाम ज्ञानियों और भक्तों द्वारा दिए गए नाम हैं। उसने कभी अपने परमात्मा होने का भी दावा नहीं किया। उसे बोलने की, दावा करने की और अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती। जिसे ऐसा करना पड़े वह परमात्मा नहीं है। दावा अहंकार का, अज्ञान का, अशक्ति का लक्षण है। परमात्मा आख़िर क्यों दावा करे?" इस लेख को पढ़ा जा सकता है यहां पर

और चलते–चलते कुच ठहाके। इस बार अनुगूंज में चुटकुलों की गूंज उठी। सभी चिठ्ठाकारों ने हज़ारों की संख्या में चुटकुले भेजे। रचनाकार नामक ब्लाग ने इस का आयोजन किया चुटकुले आमंत्रित किए। आप भी हमारी तरह इन चुटकुलों को पढ़िए और हंसते रहिए। ये लीजिए कड़ी –

तो आज का सफ़र यहीं समाप्त करते हैं यजमान। आप सब से अगले महीने फिर नये चिठ्ठों के विवरण के साथ मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए राम राम।

24 अगस्त 2006