सामयिकी भारत से

झारखंड के पारंपरिक वाद्ययंत्र टूहिला के विषय में अनुपमा कुमारी का आलेख-


टूहिला: जो दर्द को स्वर देता है


जेठ बैसाख मासे
ए मन तोयें उदासे
ए भाई, जने देखूँ तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूँ बात
कहूँ केके कहूँ बात।।

पूरे लय, छंद और ताल के साथ कालीशंकर जब कानों पर हाथ रखकर इस गीत को गाकर सुनाते हैं तो गाते-गाते वे खुद रुआँसे से हो जाते हैं। लेकिन इस गीत में रचे-बसे दुख की गहराई का सही अंदाजा तब लगता है जब वे पारंपरिक धोती पहनते हैं और इसे टूहिला पर सुनाते हैं। बाँस की फट्टी के एक छोर पर तुंबा, और बाँस पर पूरी लंबाई में तने रेशम के तार, यही है टूहिला का स्वरूप।

धागों को कसकर, स्वर की परख करने के बाद कालीशंकर दादा ने टूहिला सीने से लगाया और इसे बजाते हुए गीत शुरू किया। गाते-गाते वे कब रोने लगे, पता ही नहीं चला। जितने गाढ़े दुख से रंगा यह गीत है, उतनी ही मार्मिक इसकी धुन। गीत खत्म हुआ तो कालीशंकर दो-चार मिनट तक ध्यान मुद्रा में वैसे ही खड़े रहे। पूरे माहौल में एक गहरी उदासी और सन्नाटा। आखिर इस गीत में ऐसा क्या है जो गाने और सुनने वाले को इतना विह्वल कर देता है?

काली दा पहले तो गीत का अर्थ बताते हैं, फिर कहते हैं, ‘यह जो टूहिला है न, यह दुख, विरह, वेदना के स्वर को बढ़ा देता है। इस वाद्य यंत्र को सीने से लगाकर बजाते हैं, नंगे बदन।’ दरअसल, यह आदि वाद्य यंत्र है, लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का। तब का जब मानव मन में सांस्कृतिक चेतना जगनी शुरू ही हुई थी। चूँकि वाद्य यंत्रों का कोई लिखित इतिहास नहीं है इसलिए इसकी प्रामाणिकता नहीं पेश की जा सकती। परंतु एक लोकगीत में इस बात का भी जिक्र है कि आदिवासी समाज के नायक और महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा भी टूहिला बहुत बढ़िया बजाया करते थे। एक और विशेष बात। बदलते समय के साथ सारे वाद्य यंत्र बदल गये पर टूहिला अब तक नहीं बदला है। दादा एक गहरी सांस लेते हुए अफसोस के साथ कहते हैं, ‘अब क्या बदलाव होगा इसमें? अब तो यह अपने आखिरी दौर में है।

मन में सवाल उठता है कि झारखंड में तो इतने गायक और वादक हैं, फिर किसी में इस वाद्य यंत्र को सीखने की ललक क्यों नहीं होती? कालीशंकर कहते हैं, ‘एक कारण इसकी बनावट हो सकती है। इसे बजाने के लिए अन्य वाद्य यंत्रों से ज्यादा रियाज की जरूरत है। पर इसमें जितनी अधिक मेहनत है, उससे उलट नाम और दाम। यानी कीमत नहीं मिलती इसे बजाने से। लोग भूल चुके हैं इसे।’

कालीशंकर सारंगी और बांसुरी बजाने में भी दक्ष हैं। कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे कई शहरों और अमेरिका में भी जाकर वे अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। लेकिन आज भी जो संतोष उन्हें टूहिला बजाकर मिलता है वह कहीं नहीं मिलता। रोज खेत से लौटकर, चाहे कितने भी थके क्यों न हों, टूहिला पर हाथ फेर ही लेते हैं। वे कहते हैं, ‘मेरा मन तो बस टूहिला में ही बसता है। मैं चाहता हूँ यह बचा रहे, सदा बजता रहे। कोई तो आए। मैं सिखाने को तैयार हूँ। मुझे कुछ नहीं चाहिए इसके बदले में।’

कालीशंकर के गुरु उनके पिता श्री द्रीपनाथ महली उम्दा कलाकार और आकाशवाणी के स्थायी गायक-वादक थे। कालीशंकर टूहिला के इकलौते व्यावसायिक वादक हैं। जैसे टूहिला अब विलुप्तप्राय है, वैसे ही इसके बजाने वालों में भी संभवत: आखिरी कलाकार बचे हैं कालीशंकर। रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग के प्राध्यापक व वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी गिरधारी राम गौंझू कहते हैं, ‘संगीत अकादमी के कोलकाता के कार्यक्रम में जब काली ने इसका प्रदर्शन किया था तो विशेषज्ञों ने कहा कि झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनजीर्वित करने की जरूरत है।’ 2005 से कला एवं संस्कृति विभाग ने जनजातीय वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए स्कीम भी चलाई कि टूहिला सीखने और सिखाने वालों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी। फिर भी यह उपेक्षित है। लोक की यह खासियत होती है कि वह हमेशा सामूहिकता का बोध कराता है। सुख की घड़ी हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है। ऐसे में लोक जगत में एकाकी जीवन की परिकल्पना, यह इसके संगीत की नई बात थी। मशहूर गायक मुकुंद नायक कहते हैं, ‘यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है। उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा।’

काली के घर से निकलते समय मन में सवाल उठता है, तो क्या आदिपुरुषों का आदि वाद्य यंत्र, मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत की पहली धरोहरों व आविष्कारों में से एक, टूहिला वाकई अपने आखिरी दौर में है? प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जानकार डा। रामदयाल मुंडा कहते हैं, ‘टूहिला के लिए संदर्भ खड़ा करना होगा। इसके पुनरुद्धार की आवश्यकता है। इस वाद्य यंत्र का नाजुक पक्ष यह है कि इसे खुले बदन में ही बजाया जाता है। इसमें शरीर अनुकंपन का काम करता है। शायद यही कारण है कि इसको बजाने से मन का अवसाद आंदोलित होकर इसके द्वारा बाहर निकल जाता है।

यह एकांत में बजाया जाता है, समूह में नहीं। आवाज इतनी मृदु है कि वह अन्य वाद्य यंत्रों में खो-सी जाती है और यह केवल दुख में बजता है। इसमें सौंदर्य बोध डालकर यदि एंप्लिफायर लगा दिया जाए तो इसे बचाया जा सकता है।’ लेकिन काली उनकी बातों से सहमति नहीं रखते। वे कहते हैं, ‘ऐसा कभी भी नहीं होना चाहिए। कुछ चीजों को शाश्वत रूप में ही रहने देना चाहिए। यदि बदलाव किए गए तो मौलिकता नष्ट हो जाएगी। इसकी पहचान ही खत्म हो जाएगी।’

कालीशंकर रांची में ही रहते हैं। उसी के निकट, जहाँ राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए खेलगाँव बना है, जहाँ झारखंड का पहला विशाल कला भवन बना है। लेकिन वे रांची में रहकर भी रांची में नहीं रहते। न किसी गाँव में, न बस्ती-मोहल्ले में। उन्होंने बस्ती से दूर अकेले खेत में अपने सहिया के साथ खपरैल घर बना लिया हैं। वहीं काली का पूरा परिवार संगीत साधना में मग्न रहता है।

 

१४ जून २०१०