सामयिकी भारत से

अपने प्रयत्नों से पानी के संकट पर विजय प्राप्त करनेवाले अल्बुकर्क के निवासियों की कहानी एलिजाबेथ रॉट से-


जो सुख में सुमिरन करे


अमेरिका के न्यूमेक्सिको के एक रेगिस्तानी शहर के नागरिकों ने पानी के अनुकूल जीवनशैली में परिवर्तन कर दुनिया के सामने एक उदाहरण रखा है। आवश्यकता इस बात की है कि विकासशील देश अपने संसाधनों को लेकर जागरूक हों और भविष्य की जल योजनाओं पर विचार करें। अमेरिका के राज्य न्यू मेक्सिको के उत्तरी रेगिस्तान में रहने वाली लुईस सप्ताह में सिर्फ तीन बार नहाती हैं, वह भी सैनिकों वाली शैली में कि शरीर को गीला करो, शावर बन्द करो, साबुन लगाओ, थोड़े से पानी से हल्का रगड़ो और बस!!!, लुईस अपने कॉफी और पानी के मग को कई दिनों तक बिना धोये उपयोग करती हैं। खाने की प्लेटों को धोने में लगने वाले पानी को वे पौधों में डाल देती हैं और शावर के बचे हुए ठण्डे पानी का टॉयलेट में उपयोग करती हैं। जहाँ एक अमेरिकी व्यक्ति प्रतिदिन कई सौ गैलन पानी खपाता है, वहीं लुईस मात्र दस गैलन में काम चला लेती हैं। लुईस एक मौसम परिवर्तन समाचार एजेंसी की संपादिका हैं। लुईस का कहना है कि “मैं पानी इसलिये बचाती हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि हमारी पृथ्वी मौत की तरफ बढ़ रही है, और मैं इस पाप में भागीदार नहीं बनना चाहती”।

शायद हम लुईस की तरह एक समर्पित पर्यावरणवादी न बन सकें। पर यह सही है कि सस्ते और पर्याप्त उपलब्ध होने वाले पानी के दिन अब लद गये हैं। एक पर्यावरणीय संगठन पैसिफिक इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष पीटर कहते हैं कि “आने वाली भीषण जल-समस्या से निपटने के दो रास्ते हैं एक कठिन है तो दूसरा आसान। कठिन रास्ता यह है कि हम पानी के लिये नये स्रोत तलाशें, बड़े बाँध, बड़ी-बड़ी पाइप लाईनें और योजनाएँ बनायें जो दूरदराज इलाकों में पानी पहुँचा सकें। जबकि दूसरा आसान रास्ता यह है कि हम उपलब्ध पानी को बचाएँ, सामुदायिक जल संरचनाएँ बनाएँ, जलीय पारिस्थितिकी का संरक्षण करें साथ ही देश की सीमाओं से ऊपर उठकर “वाटरशेड” स्तर पर बेहतर प्रबन्धन करें।

लुइस का घर सांता-फे से मात्र ६० मील दूर अल्बुकर्क में है। रियो ग्रैंड नदी के किनारे बसे शहर अल्बुकर्क के लोग सन १९८० तक इस बात से बेखबर थे कि उन्हें भी एक दिन इन्हीं दो रास्तों में से किसी एक को चुनना पड़ेगा। तमाम भूजल वैज्ञानिकों का मानना था कि अल्बुकर्क शहर लेक सुपीरियर जैसे विशाल भूजल का भंडार लिये हुए है, और उसे रियो ग्रैन्ड नदी के किनारे बसे होने का फायदा भी है। अल्बुकर्क बर्नेलियो काउंटी वाटर यूटिलिटी अथॉरिटी की अध्यक्ष कैथरीन यूहास कहती हैं कि “एक समय कहा गया था कि अल्बुकर्क एक बड़े बाँध के ऊपर बसा हुआ नगर है। यहाँ चारों तरफ हरियाली की बहार थी, इस इलाके में मकान खरीदने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती थी। लेकिन जल्दी ही सभी का भ्रम टूटने लगा, जब पता चला कि भूजल भंडार पहले की तरह नहीं रह गये हैं क्योंकि बारिश और बर्फ पिघलने से जितना पानी मिला, उससे कहीं ज्यादा रफ्तार से पानी का दोहन किया गया।

वक्त रहते सभी सचेत हो गये और पानी बचाने का संकल्प लिया। पानी के उपयोग और उपभोग हेतु नये नियम बनाये। सभी निवासियों की पानी बचाने सम्बन्धी कक्षाएँ ली गईं, उन्हें सिखाया गया कि कैसे पानी बचाएँ और घर के बाहर लॉन में लगने वाले पानी का सही उपयोग कैसे किया जाए। जिन मकानों में कम बहाव वाले नल फिट करवाए और लॉन में ड्रिप सिंचाई पद्धति लगवायी उन्हें कर में छूट दी गई। आज अल्बुकर्क शहर पानी बचाने में स्व-अनुशासन की एक मिसाल बन चुका है। पूरे शहर में लगभग सभी ने छोटे मुँह वाले नल और कम ऊंचाई वाले शावर लगवा लिये हैं। सभी बड़े भवनों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाकर पानी को जमीन में उतारने का प्रबन्ध कर लिया है।

इन उपायों की वजह से अल्बुकर्क शहर की पानी की खपत १४० गैलन प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घटकर ८० गैलन रह गई। अब शहर की बढ़ती जनसंख्या के बावजूद अल्बुकर्क के मेयर को विश्वास है कि उनके पास अगले ५० साल का पर्याप्त पानी रहेगा। ५० वर्ष के बाद की योजना भी तैयार है, जिसमें नगर के आसपास स्थित खराब और प्रदूषित पानी को नवीनतम तकनीक से साफ किया जायेगा, तथा उन्हें दो पाईप लाइनों के जरिये शहर में लाया जायेगा। एक पाईप लाइन से शुद्ध पेयजल और दूसरी से थोड़ा अशुद्ध पानी जो थोड़ा कम प्रदूषित पानी होगा, भी काम में लाया जायेगा। इसे फ्लश टॉयलेटों, लॉन में छिड़काव, कारों को धोने इत्यादि के काम में लिया जायेगा। अल्बुकर्क शहर का खुद का एक ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट भी है, जिसके द्वारा शहर का प्रदूषित पानी दोबारा उपयोग में लाया जाता है और बड़े-बड़े गोल्फ मैदानों और पार्कों में उपयोग किया जाता है। आसपास के दूसरे नगर निगमों ने इससे भी आगे कदम बढ़ाते हुए, सीधे लोगों के टॉयलेट से प्रदूषित पानी एकत्रित करके उसे कीटाणु और विषाणु मुक्त करके वापस भूमिगत जल स्रोतों तक पहुँचाने की व्यवस्था भी कर ली है।

इससे हमें काफी राहत मिलती है, लेकिन अभी भी साफ पानी का ७० फीसदी हिस्सा खेतों में सिंचाई के लिये ही उपयोग किया जाता है, इस प्रकार कहा जा सकता है कि खेती और किसानों में “पानी बचाने” के तौर-तरीकों के बारे में सबसे अधिक सम्भावनाएँ हैं।

कुछ किसानों ने आधुनिकतम तकनीक अपनाते हुए पारम्परिक सिंचाई तो लगभग बन्द ही कर दी है, इसकी बजाय उन्होंने माइक्रो-स्प्रिंकलर (बारीक छिद्रों वाले छिड़काव यंत्र), मिट्टी की नमी जाँचने वाले उपकरण लगा लिये हैं ताकि उन्हें ठीक-ठीक पता चल सके कि कब सिंचाई करना है। इससे वे अनावश्यक सिंचाई और जल के अपव्यय से बच जाते हैं। इन आधुनिक तकनीकों की वजह से सिर्फ कैलीफोर्निया में लगभग ५० लाख एकड़-फुट पानी साल भर में बचा लिया जाता है, जो ३.७ करोड़ लोगों की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त है। कई किसान ऐसे हैं, जो इन महंगे उपकरणों को लगाने में सक्षम नहीं हैं, सरकार उन्हें सस्ती दरों पर पानी मुहैया करवाती है।

उन्नत और विकसित देश तो अपनी आवश्यकतानुसार पानी प्राप्त कर ही लेंगे। अल्बुकर्क के लोगों का मानना है कि हम अपनी बेहतर प्रबन्धन नीतियों, जल संरक्षण उपायों और पानी का दुरुपयोग करने वालों पर लगाम कसने के कारण आसानी से पानी की माँग और आपूर्ति के बीच सन्तुलन बनाने में कामयाब होंगे।

लेकिन बाकी की दुनिया के बारे में क्या? जिन देशों में गरीबी है, वहाँ कुंए, पाइप, प्रदूषण नियन्त्रण उपाय और पानी शुद्ध करने के तौर-तरीके और तकनीक के लिये संसाधनों की कमी है। हालांकि समस्या का हल तो सीधा-सादा है लेकिन उसके क्रियान्वयन में राजनैतिक चुनौतियाँ और इच्छाशक्ति की जरूरत है। जल प्रबन्धन की उचित तकनीकों में निवेश, बेहतर प्रशासन, समुदायों और समूहों की भागीदारी, पानी की उचित दरें तथा इस विशाल व्यवस्था को बेहतर तरीके से चलाने के लिये प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं आदि सभी की जरूरत है। जिन क्षेत्रों में जलसंकट है, वहाँ बेहतर प्रबन्धन और कुशल इस्तेमाल से तो पानी की आखिरी बूँद... को भी सहेजा जा सकता है।

पहली बार ऐसा हुआ है कि जल संकट के कारण पर्यावरणीय शरणार्थियों की एक नई जमात बन रही है। प्रकृति अपना हिसाब बराबर कर ही लेती है। आज से १००० साल पहले आधुनिक सांता फे से सिर्फ १२० मील दूर स्थानीय निवासी बारिश का पानी फालतू न बहने पाये इसके लिए गढ्ढों, तालाबों और बाँधों का निर्माण किया करते थे, लेकिन बाद के दौर में आई काहिली और बेपरवाही की वजह से सन ११३०ई. के आसपास यहाँ सूखा पड़ना शुरु हुआ। देखते ही देखते मात्र एक-दो दशकों में चाको केन्यन खाड़ी पूरी तरह से खाली हो गई। हमें पानी की बचत के साथ जीवन जीना सीखना ही होगा.. वरना या तो हमें वह जगह छोड़ना पड़ेगी या हम खुद ही खत्म हो जायेंगे...।

परिचय - एलिजाबेथ रॉट एक चर्चित लेखिका हैं। लेखिका की नई पुस्तक ‘बोटलमैनिया ’ अमरीकी जल संकट के अनिश्चित भविष्य को लेकर लिखी गई है।

इंडिया वाटर पोर्टल http://hindi.indiawaterportal.org से साभार

१९ जुलाई २०१०