व्यक्तित्व


कविवर गोपाल सिंह नेपाली
शंभुशरण मंडल


चंपारण की रत्नगर्भा मिट्टी आदिकाल से ही साहित्य संस्कृति और दर्शन की क्रीड़ास्थली रही है। अनेक महापुरुषों ने इसे कभी अपनी जन्मस्थली तो कभी कर्मस्थली बनाया है। कभी वह वाल्मीकि और जार्ज ऑरवेल के रूप में कालजयी कृतियों की रचना करता है तो कभी गांधी बनकर देश की स्वाधीनता का बिगुल फूँकता है। ११ अगस्त १९११ को इसी कड़ी में एक और नाम जुड़ता है गोपाल बहादुर सिंह उर्फ गोपाल सिंह नेपाली का जो अपनी लेखनी के स्वर से जनजन को धन्य धन्य कर देता है। यद्यपि एक औपनिवेशिक निर्णय के तहत उसे मैट्रिक की परीक्षा से वंचित कर दिया जाता है, लेकिन वह हतोत्साहित नहीं होता। वह डिग्रियों और उसके सौदागरों को ललकारता हुआ अपनी लगन और स्वाध्याय के बल पर विश्व साहित्य का अनमोल रत्न बन जाता है।

दुश्मनों को ललकारने की विरासत उन्हें अपने फ़ौजी पिता स्वर्गीय रेल बहादुर सिंह से मिली थी। लेकिन दोनों के हथियार अलग-अलग थे। गोली और बारूद से खेलनेवाले परिवार में नई संतति द्वारा कलम थामने की बात थोड़ी अचरज भरी जरूर थी। लेकिन उन्होंने यह साबित कर दिया कि कलम यदि कुशल हाथों आ जाए तो वह हथियारों से कहीं तेज और धारदार हो सकती है। वह एक साथ कई मोर्चों पर प्रभावी और निर्णायक युद्ध लड़ सकती है। कविवर नेपाली की लेखनी, साहित्य के विविध मोर्चों पर इसी कुशलता के लिए जानी जाती है। जहाँ भी हो वह जन मानस से सीधा संवाद करती है। कभी वह राष्ट्रीय एकता व भाईचारे का अलख जगाती है तो कभी देश के अंदर घुस आए दुश्मनों को सीमापार मार भगाने का आह्वान करती है यथा –
निज राष्ट्र के शरीर के शृंगार के लिए, तुम कल्पना करो नवीन कल्पना करो
तुम कल्पना करो
है देश एक लक्ष्य एक कर्म एक है, चालीस कोटि है, शरीर, मर्म एक है
पूजा करो, पढ़ो नमाज, धर्म एक है, बदनाम हो अगर स्वराज,शर्म एक है
चाहो कि एकता बनी रहे जनम-जनम, तुम भेद ना करो, मनुष्य भेद ना करो
तुम भेद ना करो

कलम का यह सिपाही सिर्फ कल्पना ही नहीं करता बल्कि वह देश के दुश्मनों का डट कर सामना भी करता है। वह बंद कमरे में बैठकर केवल गीत व कविताएँ ही नहीं रचता देश पर खतरे की स्थिति में, वह बाहर निकल कर शत्रुओं को ललकारता और उस पर दहाड़ता भी है। इसकी बानगी जरा इन पंक्तियों में देखिए-
कुचली गई स्वतंत्रता कि फनफना उठो, अपमान देश का हुआ कि झनझना उठो
हमला अगर कहीं हुआ कि सनसना उठो, दुश्मन उठे कि आर-पार, दनदना उठो
संसार भी अगर कहीं मुकाबला करे- तुम सामना करो, समर्थ सामना करो,
तुम सामना करो

और आगे-
सदियों से रही शांति की दीवार हिमालय, अब मांग रहा हिंद से तलवार हिमालय
भारत की तरफ चीन ने पांव पसारा, चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा

स्वयं को वनमैन आर्मी कहनेवाले उस सेनानायक ने अपनी उद्बोधनमयी आवाज से न केवल जनमानस में राष्ट्रीय चेतना और स्वाभिमान का बिगुल बजाया है बल्कि शासन और सत्ता को भी सचेत और सावधान किया है
यथा- राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से,

इतना ही नहीं-

बदनाम हुए बटमार मगर घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन सी रातों को नौलाख सितारों ने लूटा

बिहार के जिन हिंदी कवियों ने अपनी अप्रमेय साधना से हिंदी गीतों एवं कविता को जो सार्थक संपन्नता दी है, उनमें रामधारी सिंह ‘दिनकर’, आचार्य जानी वल्लभ शास्त्री और गोपाल सिंह ‘नेपाली’ का नाम विशिष्ट रूप से लिया जाता है। नेपाली जी के गीतों में लोक-संस्कृति से परिपूर्ण संगीत से परिपूर्ण सरसता तथा सहजता है।

कविवर नेपाली को उद्धृत करते हुए जानकी वल्लभ शास्त्री ने कहा भी है- ‘मिल्टन, कीट्स और शेली जैसे त्रय कवियों की प्रतिभा नेपाली में त्रिवेणी संगम की तरह उपस्थित है।’ उनकी रचना में ओज और लालित्य के अद्भुत समीकरण के कारण कविवर विमल राजस्थानी ने उन्हें ‘राग और आग का कवि’ कहा है। अनेक मूर्धन्य साहित्यकारों ने उन्हें ‘गीतों का राजकुमार’ तक कहा है। नेपाली की रचनाओं में प्रकृति के कण-कण से तादात्मय स्थापित करने की प्रगाढ़ प्रवृति है, परिणामतः शोधकर्ता उन्हें ‘प्रकृति का कवि’ भी मानते हैं। उनकी रचनाओं में मौलसिरी, पंछी, हरीघास, पीपल, किरण, सरिता, बेर सबका अत्यंत सजीव चित्रण है।

कथनी और करनी में शत प्रतिशत समानता की ऐसी मिसाल शायद ही किसी साहित्यकार के जीवन में मिलती है। स्व. कविवर नेपाली की सशक्त और समर्थ लेखनी यहीं पर विराम नहीं लेती वह गीतों व कविताओं में प्रेम व शृंगार का अजस्र प्रवाह करती हुई यह भी कहती है-

चाँद–सूरज दिए दो घड़ी के लिए, रोज आते रहे और जाते रहे
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन, चार दीपक सदा मुस्कुराते रहे
मुख तुम्हारा अँधेरी डगर की शमा, रात बढ़ती गई तो हुआ चंद्रमा
याद तुमको किया, रोज हमने जहाँ, आँधियों में वहीं छा गई पूर्णिमा

प्रेम जब कुछ और प्रगाढ़ होता है तो उसकी दीवानगी कुछ यों बयाँ होती है-
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा चेहरा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने पन्ने मैं लोचन लोचन पढ़ता हूँ
मैं खुली कलम का जादूगर, तू बंद किताब कहानी की
मैं हँसी खुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखो तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक , मैं तेरा चेहरा पढ़ता हूँ...

वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा, एवं योगी नामक चार पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। सन १९६२ के चीनी आक्रमन के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएँ लिखीं जिनमें 'सावन', 'कल्पना', 'नीलिमा', 'नवीन कल्पना करो' आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।

उत्तर-छायावाद का कवि माना है और उनकी कविताओं में निहित उमंग, मस्ती, प्रेम तथा दार्शनिकता के कारण विशेषज्ञों ने उन्हें उत्तर छायावादी कवि माना है। चीन- युद्ध के समय आयोजित कवि सम्मेलनों में उनकी कविताओं ने जनता में अलख जगाने का काम किया था। उनकी कविताओं में दिनकर का ओज और नरेन्द्र शर्मा का शास्त्रीय माधुर्य देखा जा सकती है। अनेक स्थानों पर उनके काव्य में भगवती चरण वर्मा जैसा फकीराना अंदाज़ भी है।

सन १९३० में “भारत गगन के जगमगाते सितारे” से अपनी काव्य यात्रा की शुरुआत करनेवाले कवि, उपन्यासकार, गीतकार और फिल्मकार श्री गोपालसिंह नेपाली, १७ अप्रैल १९६३ को हमसे विदा हो गए। आइये हम उनकी जन्मशतवार्षिकी पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को स्मरण करें और उनके ओजपूर्ण विचारों को जनजन तक पहुँचाएँ। उनके ही शब्दों में यह कहते हुए कि -
हम धरती क्या, आकाश बदलने वाले हैं, हम कवि हैं, हम इतिहास बदलने वाले हैं

८ अप्रैल २०१३