व्यक्तित्व

इतिहास और मिथक के झरोखे से
वर्तमान को देखते कवि कुँवर नारायण

कृष्ण कुमार यादव


अभी कुछ दिनों पहले ही यूनेस्को ने लखनऊ की नज़ाकत-नफ़ासत से भरे आदाब व कवाब को विश्व धरोहरों में शामिल करने की सोची ही थी कि उसी लखनवी तहजीब से जुड़े कवि कुँवर नारायण का साहित्य के सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयन एक सुखद अनुभूति से भर देता है। लखनऊ की धरती सदैव से साहित्य-संस्कृति के मामले में उर्वर रही है। मिथकों और समकालीनता को एक सिक्के के दो पहलू मानते हुए रचनाधर्मिता में उतारना कोई यहाँ के लेखकों-साहित्यकारों से सीखे। फिर कुँवर नारायण जी इससे कैसे अछूते रहते। यही कारण है कि वे एक साथ ही अपनी कविताओं में वेदों, पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों से उद्धरण देते हैं तो समकालीन पाश्चात्य चिंतन, लेखन परंपराओं, इतिहास, सिनेमा, रंगमंच, विमर्शों, विविध रुचियों एवं विषद अध्ययन को लेकर अंतत: उनका लेखन संवेदनशील लेखन में बदल जाता है। आरम्भ में विज्ञान व तत्पश्चात साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण वे चीज‍ों को गहराई में उतरकर देखने के कायल हैं।

आज जब कविता के लिए यह रोना रोया जाता है कि कविता पढ़ने और समझने वाले कम हो रहे हैं और पत्र-पत्रिकाओं में इसका इस्तेमाल फिलर के रूप में हो रहा है, वहाँ कवि कुँवर नारायण दूरदर्शिता के साथ हिन्दी कविता को नए संदर्भों में जीते नज़र आते हैं, ''कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने, कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने।'' उनकी यह सारगर्भित टिप्पणी गौर करने लायक है- ''जीवन के इस बहुत बड़े कार्निवल में कवि उस बहुरूपिए की तरह है, जो हज़ारों रूपों में लोगों के सामने आता है, जिसका हर मनोरंजक रूप किसी न किसी सतह पर जीवन की एक अनुभूत व्याख्या है और जिसके हर रूप के पीछे उसका अपना गंभीर और असली व्यक्तित्व होता है, जो इस सारी विविधता के बुनियादी खेल को समझता है।'' कुँवर नारायण ने कविता को सफलतापूर्वक प्रबंधात्मक रूप देने के साथ ही मिथकों के नए प्रयोगों का अतिक्रमण करते हुए उन्हें ठेठ भौतिक भूमि पर भी स्थापित किया। तभी तो अपनी सहज बौद्धिकता के साथ वे आमजन के कवि भी बने रहते हैं। नई कविता आंदोलन के इस सशक्त हस्ताक्षर के लिए कभी विष्णु खरे जी ने कहा था कि, ''कुँवर नारायण भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट नागरिक के रूप में नहीं, बल्कि एक आम आदमी के रूप में प्रवेश करते हैं।'' ऐसे में यह ज्ञानपीठ पुरस्कार सिर्फ़ इसलिए नहीं महत्त्वपूर्ण है कि यह एक ऐसी शख़्सियत को मिला है जो वाद और विवाद से परे है बल्कि कविता के बहाने यह पूरे साहित्य का सम्मान है। हिन्दी को तो यह अवसर लगभग ८-९ वर्षों बाद मिला है और कविता को तो शायद और भी बाद में मिला है।

नई कविता से शुरुआत कर आधुनिक कवियों में शीर्ष स्थान बनाने वाले कुँवर नारायण का जन्म १९ सितम्बर १९२७ को फैजाबाद में हुआ। उन्होंने इंटर तक की पढ़ाई विज्ञान विषय से की और फिर लखनऊ विश्वविद्यालय से १९५१ में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। पहले माँ और फिर बहन की असामयिक मौत ने उनकी अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया, पर टूट कर भी जुड़ जाना उन्होंने सीख लिया था। पैतृक रूप में उनका कार का व्यवसाय था, पर इसके साथ उन्होंने साहित्य की दुनिया में भी प्रवेश करना मुनासिब समझा। इसके पीछे वे कारण गिनाते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए समानान्तर रूप से अपना पैतृक धंधा भी चलाना उचित समझा। जब वे अंग्रेज़ी से एम.ए. कर रहे थे तो उन्होंने कुछेक अंग्रेज़ी कविताएँ भी लिखीं, पर उनकी मूल पहचान हिन्दी कविताओं से ही बनी। एम.ए. करने के ठीक पाँच वर्ष बाद वर्ष १९५६ में २९ वर्ष की आयु में उनका प्रथम काव्य संग्रह 'चक्रव्यूह' नाम से प्रकाशित हुआ। अल्प समय में ही अपनी प्रयोगधर्मिता के चलते उन्होंने पहचान स्थापित कर ली और नतीजन अज्ञेय जी ने वर्ष १९५९ में उनकी कविताओं को केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ 'तीसरा सप्तक' में शामिल किया। यहाँ से उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। १९६५ में 'आत्मजयी' जैसे प्रबंध काव्य के प्रकाशन के साथ ही कुँवर नारायण ने असीम संभावनाओं वाले कवि के रूप में पहचान बना ली। फिर तो आकारों के आसपास (कहानी संग्रह-१९७१), परिवेश : हम-तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, आज और आज से पहले (समीक्षा), मेरे साक्षात्कार और हाल ही में प्रकाशित वाजश्रवा के बहाने सहित उनकी तमाम कृतियाँ आईं।

अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के ज़रिये वर्तमान को देखने के लिए प्रसिद्ध कुँवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उस पर कोई एक लेबल लगाना सम्भव नहीं। यद्यपि कुँवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलाई है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय-विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। 'तनाव' पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। वे एक ऐसे लेखक हैं जो अपनी तरह से सोचता और लिखता है। बताते हैं कि सत्यजित रे जब लखनऊ में 'शतरंज के खिलाड़ी' की शूटिंग कर रहे थे तो वह कुँवर नारायण से अक्सर इस पर चर्चा किया करते थे।

कुँवर नारायण न सिर्फ़ आम जन के कवि हैं बल्कि उतने ही सहज भी। हाल ही में प्रकाशित 'वाजश्रवा के बहाने' में उनकी कुछेक पंक्तियाँ इसी सहजता को दर्शाती हैं-

''कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन दृष्टि
कि उनमें विनम्र अभिलाषाएँ हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं
कल्पना में इन्द्रधनुषों के रंग हों
 ईर्ष्या द्वेश के बदरंग हादसे नहीं
निकट संबंधों के माध्यम से बोलता हो पास-पड़ोस
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो
जीवन विवेक...।''

साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, कबीर सम्मान, हिन्दी अकादमी का शलाका सम्मान जैसे तमाम सम्मानों से विभूषित कुँवर नारायण को जब वर्ष २००५ के ४१वें ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया तो उनकी टिप्पणी भी उतनी ही सहज थी। वे इस पर इतराते नहीं बल्कि इसे एक ज़िम्मेदारी और ऋ़ण की तरह देखते हैं। इस पुरस्कार के बाद वे अपने को चुका हुआ नहीं मानते बल्कि नए सिरे से अपने लेखन को देखना चाहते है और उसकी पुर्नसमीक्षा भी चाहते हैं ताकि जो कुछ छूटा है, उसकी भरपाई की जा सके।

एक ऐसे दौर में जहाँ आधुनिक कविता भूमंडलीकरण के द्वंद्व से ग्रस्त है और जहाँ बाज़ारू प्रभामंडल एवं चमक-दमक के बीच आम व्यक्ति के वजूद की तलाश जारी है, वहाँ वाद के विवादों से इतर और लीक से हटकर चलने वाले कुँवर नारायण की कविताएँ अपने मिथकों और मानकों के साथ आमजन को गरिमापूर्ण तरीके से लेकर चलती हैं। तभी तो वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह कहते हैं, ''कुँवर नारायण की कविताएँ सहजता और विचार परिपक्वता के सम्मिलन से शुरू होती हैं। उनके पास भाषा और अंतर्कथ्य का जितना सुघड़ समन्वय है, वह हिन्दी कविता में दुर्लभ है। तुकों और छंद पर उनके जैसा अधिकार नए कवियों के लिए सीख है।''

१५ दिसंबर २००८