हास्य व्यंग्य

थैंक्यू सॉरी और हाई बाइ
- रेखा व्यास


हमारे देश में अधिकतर जनता अंग्रेज़ों की औलाद है। जायज़-नाजायज़ लगता है जैसे अंग्रेज़ वातावरण में ही अपने अणु छोड़कर गए हैं। हे अंग्रेज़ों, सही मायने में तुमने असली स्वतंत्रता को भोगा है। जैसे बेवफ़ा प्रेमी को छोड़कर भाग जाने के बाद भी कोई प्रणयिनी उसी के जाल-जंजाल में फँसी रहती है। वही हाल तुम्हारे प्रति भारतीयों का है।

गर्भ का खटका होते ही माता 'गॉड' से ये कहने लगती है कि उसे अंग्रेज़ जैसी औलाद देना। गोरी-चिट्टी, लंबी-चौड़ी कभी-कभी वह यह भी भूल जाती है कि ऐसा होने से वह संदेह के घेरे में आ जाएगी हो सकता है पतियों को पत्नियों पर ज़्यादा भरोसा हो गया है। काले दंपत्ति एकदम गोरी औलाद होने पर परस्पर शक नहीं करते। उसे ईश्वर का प्रतिफल मानते हैं। रंगभेद नीति यहाँ खुशी से स्वीकार्य है। वही गोरी औलाद अपने काले माँ-बाप से नाक-भौं सिकोड़ती है। उन्हें आया-नोकर से ज़्यादा नहीं समझती। सब स्वीकार्य है। ईश्वर प्लीज़ ऐसी औलाद देना जो जनमते ही धडल्ले से अंग्रेज़ी बोले उसका लहजा टोन सब कुछ वैसे हों।

माताएँ क्या कर रही हैं, प्रभु यीशु का भी व्रत रख रही है। एक बुढ़िया थी, उसके सात बेटे थे छह अंग्रेज़ी बोलने वाले थे। सातवाँ शुद्ध हिंदी, संस्कृत बोलता था। बुढ़िया छहों बेटों को लाड़ लड़ाती सातवें को उपेक्षा की दृष्टि से देखती। एक दिन वह अपनी बहू से बोला देखो मेरी मां का मुझ पर कितना प्रेम है व़ह बोली हाँ जो कुछ बचा-खुचा है व़ही तो तुम्हें सिखाती है। वह उसी दिन घर छोड़कर अंग्रेज़ी सीखने चल दिया।

जय इंग्लिश माता ओ मैया तुमको निसदिन सेवे वांछित फल पाता

मात पिता तुम मेरे शरण गहूँ मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा आस करूँ जिसकी।।

इंग्लिस मैया की आरती जो कोई जन गावे।
कटि कंठ हिंदी को पल में बिसर जावे।।

नौकरी पा जावे हो मैया छोकरी मिल जावे।
हो मैया बाबू बन जावे हो प्रभु आई ए एस हो जावे।।

एक माँ ने बिना अंग्रेज़ी जानने वाले बेटे के अंग्रेज़ी सीख लेने पर टेन फ्राइडे फास्ट रखा और फिर उसका उद्यापन किया। उसमें दस बच्चों को चर्च में बिठाकर केक, पेस्ट्री, केंपा प्रभु को चढ़ाकर भोजन कराया।

कई माताएँ चर्च में लच्छे-डोरी बाँधकर आई हैं कि अंग्रेज़ी बोलने वाली औलाद होने पर वे तीन संडे यहाँ पार्टी देंगी। यदि अंग्रेज़ जैसी और अंग्रेज़ी बोलने वाली औलाद हो जाए तो ड्रिंक्स व नॉनवेज की पार्टी पक्की।

प्रेग्नेंसी का प्लान बनते ही माताएँ इंग्लिश लिटरेचर का ध्यान धरने लगी हैं। कुछ ने डिक्शनरियों की चटनी बनाकर खा ली है। कुछ हेमलेट-बेमलेट जैसे नाटक और उपन्यासों के व्यंजन बनाकर खाने की फिराक में हैं। कुछ ने कोचिंग शुरू कर दी है। कुछ ने उस कल्चर को ही एडाप्ट करना शुरु कर दिया है।

ये अंग्रेज़ी की ही महिमा है जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख बढ़ाई है। अंग्रेज़ी के बिना तो कोई भारत का नाम भी नहीं जानता। हम उनके लिए वैसे ही अज्ञानी होते जैसे अन्य ग्रह के प्राणी हमारे लिए हैं। भारतीय संस्कृति को भी लोग इसीलिए जान पाए।

यदि हम अंग्रेज़ों के गुलाम न बनते तो स्वतंत्रता की भावना हमारे भीतर पैदा नहीं होती। अंग्रेज़ों को देखने के लिए हमें फॉरेन के ट्रिप लगाने पड़ते। हमारे देश के वीरों को अपना हुनर दिखाने का मौका नहीं मिलता।
अंग्रेज़ी शुद्ध-अशुद्ध के झगड़े-टंटे से विमुक्त है। आप कुछ भी लिखिए कोई दिक्कत नहीं है। न वर्णों का चक्कर न मात्राओं का। न लाइन खींचने का कष्ट न आधे या हलंत वर्णों का ही झंझट। इन सबसे दिमाग़ इतना रिलेक्स होता है कि पुन:-पुन: इस ओर दौड़ता है।

यह अंग्रेज़ी का ही वर्चस्व है कि आपके पेट में हेडेक होने लगता है। भारत में भाँति-भाँति के लहज़ों में कई भाषाई पुट के साथ अंग्रेज़ी बोली जाती है, इसका पता अंग्रेज़ों को भी नहीं होगा। अंग्रेज़ों ने भारतीयों को कितना विविधतामुख बना दिया है। उनका वॉज़ वाज हिज़ हिज हो गया है। डोक्टर या डाक्टर हो गया है। ऐसे भाषी विद्वान अंग्रेज़ी भाषा की फोनेटिक्स के अनुसार न होने की कमियों को भी दूर करते नज़र आते हैं - जैसे पीयूटी पुट की तर्ज पर बीयूटी बट को बुट और सीयूटी कट को कुट बोलते हैं और बोलना पसंद भी करते हैं। इस तरह वे बट पट कट करते ही रहते हैं। जो भाषा मुँह में आ गई उसे अपने दिमाग़ से घुमाना-फिराना तो अपने बाएँ हाथ का खेल है।

कुछ तुर्रम खाँ भाषा के साथ लहजे का भी अनुकरण करते हैं आँखें झपझपाते हैं कुछ याद न आए तो होंठ और कंधे झटकने लगते हैं। कुछ आँखों में आँखें डालकर भाषा को भावों की गंभीरता के मुकाम तक ले जाते हैं।

थैंक्यू, सॉरी या और हाइ बाइ जैसे अंग्रेज़ी के सेल्स ब्वॉय है। किसी को भी चट-पट आकर्षित करके फँसा लेते हैं। इन्हें जानकार अंग्रेज़ी के पारंगती उल्टा अख़बार पढ़ते देखकर कितना सुख उपजाते हैं। कुछ उर्दू के लहजे में पीछे से अख़बारों किताबों को शुरु मानते हैं तो लगता है पाकिस्तान और अमरीकाकी-सी एकता आ गई है।

लोगों के इस दृष्टिकोण पर अचरज होता है जिन्हें हिंदी-संस्कृत जटिल, कठिन लगती है पर अंग्रेज़ी एकदम आसान सरल नज़र आती है।
सही मायने में अब हम उसके गुलाम बन गए हैं। ऐसे सच्चे अंग्रेज़ों से घिर गए हैं जिनसे चाहकर भी मुक्ति नहीं पा सकते। इन अंग्रेज़ों से मुक्ति पा लेने की न तो हमारी मानसिकता है न ही वैसे हौंसले। उसके खिलाफ़ कोई भगतसिंह हैं जो फाँसी चढ़ जाए न ही कोई महाराणा प्रताप है जो वन-वन भटके ख़ाक छाने। सही मायनों में स्वतंत्रता के बीच परतंत्रता का स्वाद सैंडविच की तरह ले रहे हैं देखना है किस दिन यह बची-खुची हिंदी और भारतीयता को नेस्तनाबूद करती हैं। तभी तो वह दिन हमारा असली पंद्रह अगस्त हो सकेगा। तब तक मेरी भी थैंक्यू, सॉरी और हाइ बाइ।

16 नवंबर 2005