हास्य व्यंग्य

आम, बाढ़ और आम आदमी
--श्यामल किशोर झा


शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले "आम आदमी"  की बात कर लें। आम एक स्वादिष्ट, महंगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक बार ही होती है। मज़े की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाता है तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन- आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंततः हम सभी "आम आदमी" की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले "पंचवर्षीय सम्मान" से पूर्णतः अवगत हैं।

मैं भी उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसका जन्म बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में हुआ है। बाढ़ के समय आकाश से खाद्य-सामग्री के पैकेट गिराए जाते हैं और प्रभावित आम आदमी और उनके बच्चे उसे लूटकर खूब मज़े से खाते हैं क्योंकि आम दिनों में तो गरीबी के कारण इतना भी नसीब नहीं होता। बाढ़ का पानी कुछ ही दिनों में नीचे चला जाता है और आकाश से पैकेट का गिरना बंद। तब एक मासूम बच्चा अपनी माँ से बड़ी मासूमियत से सवाल पूछता है कि - माँ बाढ़ फिर कब आएगी?  बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है और वह पुनः बाढ़ की अपेक्षा करता है एक सुख की कामना के साथ। बिहार राज्य के अन्दर एक ही ज़िले का नाम "बाढ़" है और बाढ़ को छोड़कर कई ज़िलों में हर साल बाढ़ आती है। जहाँ पीने के पानी के लिए लोग हमेशा तरसते हैं, वहाँ के लोग आज "पानी-पानी" हो गए है और "रहिमन पानी राखिये" को यदि ध्यान में रखें तो प्रभावित लोगों का आज "पानी" ख़तम हो रहा है। तो यह बात हुई एक प्रकार के आम आदमी की।

आइए अब जानें कि दूसरी प्रकार का आम आदमी कैसा होता है। इस प्रकार का व्यक्ति होता तो आम है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों में खास हो जाता है। परिस्थितिया सावन भादों से जुड़ी होती हैं। साल के बारह महीनों में "सावन-भादों" का विशेष महत्त्व है। जो जो आम आदमी इन दो महीनों से जुड़ा होता है वह खास हो जाता है। यह बात राजा अकबर को बीरबल ने बताई थी। हुआ यह कि एक बार अकबर नै बीरबल से पूछा कि - एक साल में कितने महीने होते हैं? बीरबल का उत्तर था कि - दो, यानी सावन-भादों, क्योंकि पूरे साल इसी दो महीनों की बारिश की वजह से फ़सलें होतीं हैं। अकबर और बीरबल तो तो खास थे ही पर उन्होंने इन दो महीनों से जुड़े किसान को भी आम से खास तक पहुँचाया था। आज का ज़माना फ़िल्मों का है। कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी "सावन-भादों" और उससे उत्पन्न दो फ़िल्मी कलाकार नवीन निश्छल और रेखा आज भी कमा खा रहे हैं, यानी खास बन चुके हैं। सावन भादों से कमाने वाला तीसरी प्रकार का  खास बना हुआ आम आदमी बाढ़ नियंत्रण विभाग या जल-संसाधन विभाग का "सरकारी" कर्मचारी होता है। वह सावन भादों में उमड़ी बाढ़ की प्रतीक्षा करता है। बाढ़ से उपजे सुख से उनका साल भर बिना "नियमित वेतन" को छुए, बड़े मज़े से गुज़ारा चलता है। यदि बाढ़ आ जाए तो फिर क्या कहना?

बाढ़ के साथ कई प्रकार के सुख का आगमन होता है। जैसे बाँध को टूटने से बचाने के लिए उपयोग में लाए जानेवाले बोल्डर, सीमेंट का भौतिक उपयोग चाहे हो या न हो लेकिन खाता-बही इस चतुराई से तैयार किए जाते हैं कि किसी जाँच कमीशन की क्या मजाल जो कोई खोट निकल दे। रही बात राहत- पुनर्वास के फ़र्ज़ी रिहर्सल की, वो भी बदस्तूर चलता रहता है। न्यूज चैनल वालों का भी "सबसे पहले पहुँचने" का एक अलग सुख है। बेतुके और चिरचिराने वाले सवालों का, मर्मान्तक दृश्यों को बार-बार दिखलाने का, नेताओं के बीच नकली "मीडियाई युद्ध" कराने का भी आनंद ये लोग उठाते हैं।

जिनके सिर कट गए उनका कोई मूल्य नहीं पर अंगुली कटाने वाले को मीडिया भी शहीद साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखता। इसी को देख कर किसी ने लिखा होगा- "कटा के अंगुली शहीदों में नाम करते हैं"  एक और कहावत है- "थोड़ी राहत - थोड़ा दान, महिमा का हो ढेर बखान" - बाढ़ यह दृश्य भी काफी देखने को मिलता है। एक से एक "आम जनता" के तथाकथित "शुभचिंतक" न जाने कहाँ कहाँ से आ जाते हैं और अपनी अपनी राजनीतिक रोटियाँ सकना शुरू कर देते हैं। बाढ़ के कारण चाहे लाखों एकड़ की फ़सलें क्यों न बर्बाद हो गई हों, लेकिन राजनितिक "फसल" लहलहा उठती है। राजनीतिज्ञों के हवाई-सर्वेक्षण का अपना सुख है। ऊँचाई से देखते हैं कि "आम आदमी कितने पानी" में है? और आकाश से ही तय होता है कि अगले पाँच बरस तक आम आदमी की "भलाई" कौन करेगा।

निष्कर्ष यह कि "आम" और "बाढ़" दोनों राष्ट्रीय धरोहर है - एक राष्ट्रीय फल तो दूसरा राष्ट्रीय आपदा। जय-हिंद।

६ अक्तूबर २००८