हास्य व्यंग्य

लोकतंत्र
अश्विनी कुमार दुबे


यों तो हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है परंतु मुझे लगता है कि इस देश में विभिन्न प्रकार के लोकतंत्रों का अच्छा ख़ासा जमावड़ा है।

चलिए सबसे पहले ऊपर का ही लोकतंत्र ले लें। इसमें एक हाईकमान होता है, जो कभी नहीं चुना जाता। वह सिर्फ़ होता है, ब्रह्म की तरह सर्वशक्तिमान। वह कहाँ से आता है और किस प्रकार हाईकमान कहलाने लगता है, यह कोई नहीं जानता। परंतु शक्ति उसकी असीम है। वह सरकार और पार्टी में राई को पर्वत और पर्वत को राई आसानी से बना सकता है। एक दफे जो व्यक्ति, जिस पार्टी में हाईकमान हो गया से हो गया। फिर उसका पाँव अंगद का पाँव, जिसे उठाना तो दूर कोई माई का लाल हिला तक नहीं सकता- यह हाईकमान का लोकतंत्र है, जिसमें लोक भी वही है और तंत्र भी वही।

एक कार्य समिति का लोकतंत्र होता है। यह लोकतंत्र भी रहस्यवाद की तरह पूरी पार्टी में व्याप्त रहता है। इसकी थाह विरले ही पा पाते हैं। संतो ने कहा है, 'बिनघन परत फुहार।' ठीक ऐसा ही है, कार्य समिति का अपना लोकतंत्र। वहाँ विचारों के बादल कभी दिखाई नहीं देते। हाँ, आदेशों की फुहार ज़रूर झरती रहती है। यों किसी भी पार्टी की कार्य समिति हाईकमान के प्रभा मंडल से कभी मुक्त नहीं होती। उसे मुक्त होना भी नहीं चाहिए, अन्यथा उसके सदस्यों का जीवन असुरक्षित हो जाएगा। वैसे, काग़ज़ पर लोकतांत्रिक परंपराओं का पूर्ण पालन होता है। प्रस्ताव आते हैं। उन पर बहसें होती हैं। लोग टीका-टिप्पणी करते हैं। परंतु होता वही है, जो मंज़ूरे हाईकमान होता है। यही सार्थक और मूल्यवान लोकतांत्रिक आदर्श है। वैसे, कार्य समिति, उच्च अधिकार समिति और ऐसी ही बड़ी-बड़ी समितियों को देखकर लगता है कि हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी और मज़बूत हैं। जड़ें सचमुच गहरी और मज़बूत भी हैं। इसलिए व्यक्ति पूजा की, उपासना की, पुरातन पद्धति आजकल लोकतंत्र के दायरे में लाई जा रही हैं।

विभिन्न पार्टियों में अपना मौलिक और अप्रकाशित लोकतंत्र होता है। जिस प्रकार हिंदी फिल्मों में हिंसा, और नौकरशाही में भ्रष्टाचार अनिवार्य है। वैसे ही लोग तो अब फख्र से कहते हैं कि हाँ, हमारी पार्टी में गुटबाजी है। जैसे गुटबाजी परम गौरव की बात है। गुटबाजी जब गौरव है तो भितरघात उपलब्धि है। गुटबाज़ी को आपने सहर्ष स्वीकार कर लिया तो भितरघात के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों? कहते हैं कि वैचारिक स्वतंत्रता लोकतंत्र की जान है। हमारे यहाँ गुटीय स्वतंत्रता लोकतंत्र की जान है। एक-एक पार्टी में कई-कई गुट हैं। इस परंपरा पर हमें गर्व है। हर गुट का अपना संविधान है। अपना लोकतंत्र है। बावजूद वे एक हैं। अनेकता में एकता। आए दिन सभी गुट मिलजुल कर घोषणा करते हैं कि हममें कोई गुटबाजी नहीं है। परंतु मंच से उतरते ही सबकी डफली के अलग-अलग राग सुनाई देने लगते हैं। हमारे लोकतंत्र की यह स्वस्थ परंपरा है।

जब गुट हैं तो कहीं भूल से आप यह न समझ लें कि समान विचारधारा वालों का कोई वर्ग होगा। भारतीय राजनीति की यही तो विशेषता है कि यहाँ विचार से ज़्यादा व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है। विचार वाले लोग तो यहाँ नेपथ्य में शोभा देते हैं। गुट के केंद्र में सदा से 'विचार' नहीं 'प्रभाव' रहा है। जो प्रभावी है, वही मुखिया है। जो चुनाव में टिकट दिला दे। जो मंत्री बनवा सके। लफड़ों में फँस जाने पर जो बेदाग़ बरी करा दे। जिसके पास धन हो। बल हो। छल हो। और दस-बीस स्थानीय समर्थक हों। जो हर हालत में रात को दिन और दिन को रात सिद्ध करता रहे। ये सब बातें एक साथ जिसमें हो, वह परम प्रतिभाशाली है। लोकतंत्र का रत्न है। वह जो कहे, वह लोक की आवाज़ है। वह जो सोचे, वह समाज की सोच है। वह जो करे, वह देश का कृत्य है। इस प्रकार गुटबाजी का अपना लोकतंत्र अति महत्वपूर्ण है। अलग-अलग गुट जब एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं तो सार्वजनिक रूप से यह लोकप्रिय वक्तव्य ज़रूर देते हैं- 'लोकतंत्र खतरे में है।'

हमारे यहाँ लोकतंत्र में कई प्रयोग चलते हैं। यहाँ लोक की कोई आवाज़ नहीं होती। पिछड़ी जाति की गुहार, अगड़ी जाति की अपील, महिलाओं की चीख, गरीबों की चीत्कार, बच्चों का रुदन, बूढ़ों की कराह, युवाओं की हाय! अमीरों की वाह! सब मिलाकर ऐसा कोरस बजता रहता है कि समझ में ही नहीं आता कि लोकमंशा क्या है? हमारे लोकतंत्र में यह एक सफल प्रयोग है कि चीज़ों को इतना उलझा दो कि वे कभी भी न सुलझें। किसी कवि ने लिखा है-
प्रजातंत्र करता रहा, नित नित नए प्रयोग।
जिसने चाहा कर लिया, अपने हित उपयोग।।

जब राजधानी में कई प्रयोग हो चुके तो लोगों ने सोचा, चलो, ग्राम स्तर पर भी कुछ प्रयोग किए जाएँ। गाँव वालों को ज़बरदस्ती जोड़ा गया। वे रात-दिन मेहनत-मजूरी में लगे रहते, तब कहीं जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाते। उन्हें समझाया गया, परिवार को पालने के और भी कई तरीके हैं। नई तकनीक निकल आई हैं। देखो, शहर में कार्यकर्ता होते हैं। कभी देखा है उन्हें? ज़्यादा खाते हैं, कम काम करते हैं और सदा खुश रहते हैं। हमें ऐसे हँसते, खेलते, मुस्कराते लोग गाँव में चाहिए। प्रशिक्षण चालू है, चलो भर्ती हो जाओ। तुम्हारी आवाज़ ऊपर तक पहुँचेगी। यह आदर्श है। फिलहाल हमें ऊपर की आवाज़ बिल्कुल नीचे तक पहुँचानी है। हमें किसी भी तरह विचार को वोट में बदलना है। बड़ा कंपटीशन है इस क्षेत्र में। सोच-विचार में समय की बरबादी होती है। कैसे भी कोई एक छाप हमें आदमी के दिमाग में टाँक देनी है। मोहित कर देना है सबको उस छाप से। लोगों को इस छाप के अलावा संपूर्ण संसार शून्य दिखाई दे, तो समझो हमारा लोकतंत्र सफल है। गाँव-गाँव में प्रयोग चल रहा है। पहले गाँव में एक मुखिया होता था। कभी कोई समस्या आ जाए, तो पाँच बड़े बुजुर्ग लोग 'पंच परमेश्वर' हो जाते थे। अब छोटे-छोटे गाँवों में बड़े-बड़े झंडे हैं। 'पंच परमेश्वर' तो अब कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। हाँ, कार्यकर्ता, भैये, छुटभैये, नेता, अभिनेता, पंच, सरपंच, अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, मीटिंग, मेमो, निर्देश, शिकायत, घपला, ठेका, जाति, पार्टी, झंडा, प्रचार, पर्चा, बूथ, पुलिस, गोली, हत्या और चालान- ये शब्द गाँवों की हवा में तैरने लगे हैं। हमें खुशी है लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं। राजधानी के खेल हमने गाँव की चौपाल तक पहुँचा दिए।

झगड़े पानी मेड़ के, गुटबाजी हर गाँव।
नेह समर्पण के बिना, यही रह गया गाँव।।

हमारे मुल्क में सबके अलग-अलग लोकतंत्र है। हमारी पार्टी का लोकतंत्र, उसकी पार्टी का लोकतंत्र, हाईकमान का लोकतंत्र, कार्यकर्ताओं का लोकतंत्र, शहर का लोकतंत्र, सड़क का लोकतंत्र, गली का लोकतंत्र, तुम्हारा लोकतंत्र, हमारा लोकतंत्र, गरीब का लोकतंत्र, अमीर का लोकतंत्र। यह शोध का विषय है कि भारत की जनता का लोकतंत्र कहाँ है?

हमारे यहाँ राजधानी से लेकर गाँव की पगडंडी तक लोकतंत्र पसरा हुआ है। परंतु पिछले पचास सालों से वही-वही चेहरे शिखर पर दिखाई दे रहे हैं। कहीं कुछ बदलता क्यों नहीं? कहते हैं, इस लोकतंत्र में सब ऊपर से तय होता है। गाँव में चुनाव कौन लड़ेगा? नाम ऊपर से आएगा। फ़लानी समिति में कौन-कौन रहेगा? नामों की चर्चा ऊपर चल रही है। आंदोलन, रेली, धरना कब कहाँ करना है? कार्यक्रम ऊपर बन रहा है। सड़क कब बनेगी? ऊपर वाले जानें। बिजली, पानी और खाद कब आएगा? पता नहीं, जब ऊपर वाला चाहेगा। हमें तो निर्देश मिला है कि कल अमुक पार्टी के खिलाफ़ प्रदर्शन करना है। बताया गया है कि लोकतंत्र ख़तरे में है। हमें उसे बचाना है। क्या खतरा है? ये सब हम नहीं जानते। हमें तो बस लोकतंत्र को बचाना है, कल जंगी प्रदर्शन करके।

अब तो हम कह सकते हैं, हमारा लोकतंत्र बहुत महान है यह गौरव की बात है कि हमारे मुल्क में अभी भी ३५ प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वे कहाँ अंगूठा लगाते हैं, उन्हें पता नहीं। हमारी पूरी कोशिश है कि विचार न जन्मे, सोच पैदा न हो और लोकमत सदा दिग्भ्रमित रहे। लोक कहीं भी जाए परंतु तंत्र सदा हमारे हाथ में रहे, इसके लिए मेहनत करनी पड़ती है हमें। कहा भी गया है, परिश्रम का फल मीठा होता है।

लोकतंत्र के ताल पर, बगुलोइ करें विचार।
जनता भोली मछलियाँ, पल-पल हुई शिकार।।

११ अगस्त २००८