हास्य व्यंग्य

एक कॉलम व्यंग्य
-संजय ग्रोवर 


कृपया निम्न लेख को पढ़ते समय ध्यान रखें कि यह एक व्यंग्य है।
श्रीमती जी को कद्दू पसंद है और मुझे टिंडा। बोलीं कि कई दिन से टिंडा खा रहे हैं आज कद्दू बना लेती हूँ। मैं हँसा, गँवार कहीं की। रूआँसी हो बोली कि गँवार हूँ तो मुझसे शादी क्यों की थी। मैंने कहा, मूर्ख कहीं की, तू न होती तो मैं हँसी किसकी उड़ाता, चुटकुले किस पर लिखता, (यानी कि) व्यंग्य किस पर लिखता। पत्नियाँ तो होती ही इसलिए हैं कि उन पर कुछ भी लिख दिया जाए। वे उसे व्यंग्य मान कर अपराध बोध महसूस करने लगती हैं। पत्नी सचमुच शर्मिंदा हो गई। टिंडा फिर कद्दू पर हावी हो गया।

पुराने लोग बहुत अच्छे होते हैं। नए बहुत ही ज़्यादा गंदे होते हैं। एक बार मैं नई पीढ़ी था। तब पुरानी पीढ़ी काफ़ी घटिया थी। अब मैं पुरानी पीढ़ी होता जा रहा हूँ और नई पीढ़ी खराब होती जा रही है। मैंने सुबह ग्रंथादि का पाठ शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। पहले भी कई बार हुआ है। (ऐसा मैंने सुना है।)।

दूसरे बहुत ही गंदे हैं। हम बहुत ही अच्छे हैं। दूसरे एकदम खराब। हम एकदम अच्छे। दूसरे खराब। हम अच्छे। टॉँय टू। टाँय टू। टाँय टू। टाँय टू। टू-टू। एक साल बाद। टाँय-टाँय। दस साल बाद। टू-टू। सौ साल बाद। टाँय-टू। हज़ार साल बाद। टाँय टू। दसियों हज़ार साल बाद। टाँय टू। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाँय टू। टाँय टू।

जनता बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छे हैं। नेता सब नालायक हैं। जनता ज़मीन से पैदा होती हैं। नेता आसमान से टपकते हैं। न जाने कब अच्छे नेताओं की बारिश होगी। वैसे कुछ अच्छे नेता भी हैं। पर ऐसे नेता बस दो-चार ही हैं। एक ने मेरी क़िताब छपवाने में मदद की। एक ने उसका विमोचन किया। तीसरे ने मुझे एक जगह सस्ता प्लॉट दिलवा दिया है। लगभग मुफ्त का। चौथे के मेरे घर आते-जाते रहने से पड़ोसियों में मेरी छवि भी ख़ासी दमदार बनी हुई हैं। राशन-गैस भी घर बैठे आ जाते हैं। अब क्या करूँ। दुनियादारी भी तो कोई चीज़ है। 'एडजस्ट' तो करना ही पड़ता है न। रोटी भी तो खानी है कि नहीं। आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि जैसा समाज होता है वैसा ही उसका नेता होता है। लगता है इन लोगों ने अपने खाने-पीने रहने का 'फुलप्रूफ' जुगाड़ कर लिया है। पर मेरे सामने तो सारी ज़िंदगी पड़ी है। अपना 'कैरियर' भी तो सँवारना है। मैं ऐसी बातें खुलकर कैसे कह सकता हूँ।

लोग तो प्रकाशकों और पाठकों की भी बुराई करते हैं। मैं कहता हूँ कि कौन कहता है किताबें नहीं बिकती। खुद मेरी किताबों 'पेटदर्द चुटकुले', 'हँसती हुई उबासियाँ', 'घर में हँसो, बाज़ार में हँसो, पत्नी पर हँसो, सरदार पर हँसो` के कई संस्करण छपे भी हैं और बिके भी हैं। मेरे नए कविता संग्रह 'लड़की नहाई आँगन में' को छापने के लिए कई प्रकाशक अभी से दरवाज़ा पीट रहे हैं। कुछ पाठकों के तो प्रशंसा पत्र भी अभी से आ गए हैं।

मैं एक उद्योग हूँ। व्यंग्य एक उत्पाद है। अखबार बिचौलिया है। पाठक एक ग्राहक है। रोज़ाना सुबह आपको एक कॉलम व्यंग्य सप्लाई करना होता है। बड़ा ही मेहनत का काम है। एक भी पंक्ति कम या ज़्यादा हो जाती है तो संपादक जी की नज़रों में मेरा रिकार्ड गिर जाता है। वैसे बहुत कम ही ऐसा होता है। इसलिए संपादक जी मुझसे खुश रहते हैं। मैं उनका चहेता व्यंग्यकार हूँ। वे अक्सर कहते हैं, 'बेटा, लिखो चाहे कुछ भी पर कॉलम पूरा भर जाना चाहिए, बस।' उम्मीद है आज के लेख के शरीर का आकार भी तैयार शुदा कॉलम की यूनीफॉर्म में फिट बैठेगा। नहीं तो पिछले रिकार्ड के आधार पर मुझे फिर चांस दिया जाएगा।

पुनश्च : व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लिए व्यंग्य लिखते हैं। दूसरी श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूँ जो दूसरी श्रेणी की पूरक होती है। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियाँ भी होते हैं।

एक बार फिर याद दिला दूँ कि यह एक व्यंग्य था।

(यह लेखक संपादक का मित्र है, अखबार-मालिक का रिश्तेदार व स्वयं ऊँचे सरकारी ओहदे पर हैं)

१० मार्च २००८