हास्य व्यंग्य

ललित निबंध होली पर
त्रिभुवन पांडेय


मैं विद्यानिवास मिश्र और विवेकी राय को हाजिर नाजिर जानकर सौगंध लेता हूँ कि आगे जो कुछ भी लिखूँगा वह ललित निबंध ही होगा। ललित निबंध के सिवाय यदि यह कुछ अन्यथा जान पड़े तो इसकी जिम्मेदारी लेखक पर नहीं होगी। जिस तरह श्रेष्ठ नेता अपने कार्य के लिए जिम्मेदार नहीं होता उसी तरह मुझे भी समझ लिया जाए। वैसे यह केवल विधागत उलटफेर का चक्कर है। समीक्षक इसके पीछे न पड़ें। वे अनेक ललित निबंधों की तरह इस ललित निबंध के लालित्य की गहराई को नाप नहीं पायेंगे। उनके पास साहित्य को नापने का टेक काफी छोटा है जबकि साहित्य विराट।

इधर देखो। आकाश में फाल्गुन सुदी चौदहवीं का चन्द्रमा डिस्को कर रहा है। आसपास सितारों का समूह आर्केस्ट्रा बजा रहा है। इस दृश्य को देखकर ऐसा जान पड़ रहा है मानो इन्द्र और यक्ष समूह किसी रम्भा, तिलोत्तमा, मेनका या उर्वशी के नृत्य के लिए नेपथ्य संगीत पैदा कर रहे हों। चन्द्रमा की धवल किरणें जमीन पर ऐसे उतर रही हैं जैसे किसी राजनेता का सफेद राजहंस हेलीपेड पर उतर रहा है।

बंधु -धरती के ड्राइंगरूम की दीवार पर टंगी सबसे खूबसूरत पेंटिंग है, चन्द्रमा। यह प्रेमियों के हृदय में ज्वार-भाटा लाता है। विरही हृदय को जलाता है, कवियों को उनके भूतपूर्व तथा अभूतपूर्व प्रेमिकाओं की याद दिलाता है। नगरपालिका के टूटे-फूटे बल्बों और टयूब लाइटों के कारण अँधेरे में पड़े लोगों को प्रकाश पहुँचाता होलिका दहन की लीला देखने उपस्थित हो गया है।

होलिका दहन का वह महान पर्व आ पहुँचा जिसके आते ही घर के पुराने दरवाजे, आसपास टूटे पड़े, किसी काम के लिए रखी हुई जरूरी लकड़ी, खिड़की के पल्ले, लकड़ी के गेट भस्म होने के भय से काँपने लगते हैं। जो जरूरत समय तिनका नहीं उड़ा सकते वे होली के अवसर पर पर खिड़की दरवाजा उड़ा ले जाते हैं। जरूरी लकड़ी या किसी गरीब का ठेला जलाकर उन्हें वैसी ही प्रसन्नता होती है जैसी प्रसन्नता रोम को जलता हुआ देखकर नीरो को हुई थी। वे उसी स्थान पर होलिका प्रज्ज्वलित करते हैं जहाँ पर बिजली के खम्भे होते हैं। बिजली के तार से लपटें छूने लगती है। भयानक दुर्घटना की संभावना निर्मित हो जाती है मगर उन्हें इसकी तनिक भी चिंता नहीं है। वे बीच सड़क पर होली जलाकर सड़क का तारकोल नष्ट कर डालते हैं। होली के बाद वहाँ पर एक बदशक्ल धब्बा रह जाता है जो वर्ष भर इस पर्व को याद दिलाता है।

अभी तो फाल्गुनी सुदी चौदस का चन्द्रमा काफी दूर है लेकिन एकम और दूज से ही यह तुमुल कोलाहाल क्यों सुनाई पड़ रहा है? क्या किसी शक, यवन या हूणों की सेना आर्यावर्त पर हमले के लिए चली आ रही है जिसके प्रतिरोध के लिए अपने सैनिकों को सचेत किया जा रहा है? यदि ऐसी बात नहीं है तो कान के परदे फाड़ने वाली, मरीजों को असमय मारने वाली, परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों की तल्लीनता में व्यवधान डालने वाली यह भीषण आवाज कहाँ से आ रही हैं। कहीं यह हर चौराहे पर बज रहे नगाड़ों की आवाज तो नहीं है। यदि ब्रिटिश सैनिकों के आक्रमण के समय पूरे देश भर के नगाड़ों को ही एक साथ बजाया जाता तो वे घंटे भर के भीतर हिन्दुस्तान से भाग खड़े होते। कितने मजे की बात है जब हमें नगाड़ा बजाना चाहिए तब हम चुप रहते हैं और मरीजों की सुविधा, परीक्षा की तैयारी, हजारों लोगों के आराम और नींद को ध्यान में रखकर चुप रहना चाहिए तब हम नगाड़ा बजाते हैं।

बंधुवर! चेहरे में यह कालिख क्यों पुता हुआ है। शरीर पर सर्वत्र पंक ही पंक दिखलाई पड़ रहा है। वस्त्र धूल में सने हुए दिखलाई पड़ रहे हैं। शरीर के अंगों से गोबर की गंध आ रही है। कहीं-कहीं अभद्र शब्दों की मुद्राएँ भी अंकित दिखलाई पड़ रही हैं। समझ गया। फाल्गुन का वही मोहक पर्व आ गया जिसके विषय में संस्कृत के कवियों ने प्रमुदित होकर कथा था - केसर की सुगंधि से भीगे बदन मंजरियों की गंध से युक्त, काली पलकों में यौवन की चंचलता छुपाये फागुनी हवा द्वारा उपस्थित है। लेकिन फाल्गुन के प्राचीन अलंकार कहाँ गये ? मदन मंजरियों का क्या हुआ? पावों में महावर लगाई वे सुन्दरियाँ कहों गई जो बसन्त के स्वागत में फागुनी गीत गाती संध्या के समय अभिसार के लिए निकला करती थीं?

कहाँ गया फाल्गुन का वह ईस्टमेन कलर सेवेंटी एम.एम. पर अंकित सिनेमास्कोपीय रूप। केसर सुगंधि की जगह पंक, अबीर की जगह धूल, चंदन की जगह गोबर और पर्व गीतों की जगह फूहड़ गालियाँ। लगता है जैसे देश की खूबसूरत संस्कृति का गलीचा कमरे से गायब हो गया है। बच गई है केवल जमाने भर की बची हुई गंदगी और धूल।

बंधु, यह कौन है जो सड़क के मध्य में आसमान की ओर निहारता, अस्त-व्यस्त कपड़ों से ढँका, आने-जाने वाली गाड़ियों की खूनी रफ्तार से बेखबर ऐसे निर्लिप्त भाव से लेटा हुआ है मानो यह सड़क नहीं डनलप का गद्दा है। ऐसी अपूर्व और निश्चिंत निद्रा तो राजसी पलंग पर भी नसीब नहीं होती। लोग उसे देखकर तनिक भी नहीं ठिठकते। उसकी ओर दृष्टिपात तक नहीं करते। यह दुस्साहसी वीर होली के महान पर्व को निरंतर मद्यपान से समृद्ध बनाना चाहता है। जब वह बेहोश रहता है तब तक घर में रहता है, जब इसे होश आता है तो देशी दारू की दुकान की खोज में निकल पड़ता है। मद्यपान के बाद कभी यह स्वयं गिरता-पड़ता-उठता-बैठता-गालियाँ बकता-गाने गाता घर पहुँच जाता है तो कभी लोग इसे कंधों पर उठाकर घर पहुँचा देते हैं। कैसा अपूर्व दृश्य है होली का।

गालियों से भयभीत, अभद्रता से परेशान, कीचड़ और तारकोल से हैरान भद्रजन अपने बंद कमरों में बैठे सोच रहे हैं कि उनका यह एक दिन कैसे बीतेगा। उधर असभ्यता, गाली और शराब से सराबोर फागुनी टोली सदैव की भाँति भारतीय संस्कृति के कपोलों पर अबीर की जगह कीचड़ मलने में व्यस्त है। इस प्रकार सबको आनंदित करनेवाली होली सबका कल्याण करे।

१४ मार्च २०११