हास्य व्यंग्य

पधारो ‘जी’ म्हारा देस
जवाहर चौधरी


श्रीमान उस दिन हमको गुस्सा इतना कि पूछिये मत। सब यों समझिये कि हाथ ऐसा पिनपिना रहा था, ऐसा पिनपिना रहा था कि मीडिया-वीडिया जो कोई सामने आ जाए तो उसकी खैर नहीं। उठाया मोबाइल और हुक्मराने पाकिस्तान को यहीं से पिन्ना दिया बेठै-बैठे कि मिंया आप लोगों ने दाउदजी को कहाँ छुपा रख्खा है? सीधी तरह से बता दो वरना.... हाँ।

आप लोग पाँच साल से अमरिका को टेपिया बनाते चले आ रहे थे कि हमारे यहाँ कोई आतंकवादी नहीं है और फिर हुआ क्या ? ओसामाजी किधर मिले ? अब ये नहीं चलेगा .... बहोत हो गया। दाउदजी हमारे थे, हमारे हैं और हमारे रहेंगे। इस तरह किसी दूसरे देश की प्रतिभा को छुपा के रखना आप जैसे छोटे मुल्क को शोभा देता है क्या ! लिहाजा खबरदार, फिर न कहना कि ... हाँ। अमेरिका से आपको कितनी आर्थिक मदद मिलती है ! षांति से मुजरे देखो, जुआ खेलो, मुर्गे लड़ाओ, कबूतर उड़ाओ और मजे करो। लेकिन हमारे दाउदजी हमें वापस चाहिए।

तहजीब की डींग मारने के लिए तो आप मशहूर हैं। लेकिन तहजीब क्या होती है यह सीखना हो तो इधर देखिये। हुजूर दुनिया जानती है कि हमने आपके कसाबजी और अफजलगुरूजी को कितनी शान से रखा है। ठीक है कि मुकदमे चलाना पड़े, लेकिन सलीके से चलाए, ख़रामा-ख़रामा, आदाब-ओ-अदब के साथ। खुद आपके बंदों को सूझ नहीं पड़ रही है कि वे असलहे के साथ आए थे या तोहफे ले कर !

कसाबजी को हैदराबादी बिरयानी और पाए इतने पसंद आए कि हम लोग निहाल हैं। वे आपके यहाँ का हाँडी-गोश्त भूल गए। मेहमान को खाने में कुछ पसंद आ जाए और वो बार बार उसकी फरमाइश करता रहे इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। अब तक लाख्खों खर्च कर दिये इस फिक्र में कि उनकी पेशानी पर सल न पड़ जाएँ। इसे कहते हैं पड़ौसी घर्म और मेहमानवाजी का जज़्बा। हमारे पुरखे कह गए हैं कि पाप से घ्रणा करो पापी से नहीं, और हम वही कर रहे हैं।

‘‘वो
तो ठीक है महाराज, उधर से कोई जवाब आया ? या फिर बिना कनेक्ट हुए यों ही फाँ-फूँ कर लिए ? ’’ वाकया सुन रहे समधी अमरसेन ने पूछा।

‘‘अरे कनेक्ट क्यों नहीं हुए !! आप भी अमरसेनजी, फिर कहोगे कि .... हाँ। हमारी बात सुन कर उधर से कोई खानजी बोले - हुजूर थोड़ी साँस-वाँस भी ले लिया कीजिए बोलते वक्त। समझौता एक्सप्रेस की तरह शुरू होते हैं तो बीच में कहीं रुकते ही नहीं। जनाब दाउदसाहब तो खुद चाहते हैं कि भारत में आ जाएँ और बाकी की जिन्दगी महफूज रहें, आपकी जम्हूरियत की फ़जल से। बुढ़ापे में अब उन्हें भी रोजाना अच्छी खुराक और तेल मालिश की जरूरत पेश आ रही है। किसी तरह आपकी निगेहबानी में पहुँच जाएँ तो शुक्र खु़दा का।’’
‘‘फिर तो आपका गुस्सा कुछ ठंडा हुआ होगा समधीजी ?’’ अमरसेन ने पूछा।

वो तो होना ही था ‘हुजूर’ सुनने के बाद। आगे भी वे तारीफ के पुल बाँधते रहे। बोले - दाउद साहब अच्छी तरह जानते हैं कि आप साहबान के यहाँ वोटों से सरकार बनती है। अगर उन्हें जेल में भी रहना पड़े तो आप साहबान उसे जन्नत से कम तो बनाएँगे नहीं। रहा सवाल मुकदमों का, तो कौन वकीलचंद इंकार करेगा उनकी पैरवी से। वो भारत के ही हैं और रहेंगे, अभी आपने कहा था। जेल में रहते हुए आप साहबान के यहाँ अनेक अपराधी‘जी’ चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं। दाउद साहब भी लड़ेंगे, और खूब लडेंगे आपकी मोहब्बत के जजबे से।

दुनिया के सामने उनकी जीत पुख्तातौर पर तय है। सियासत की दुकानों में कौन नहीं बिकता आप साहबान के यहाँ वोटर, नेता, पार्टियाँ, सब। खरीदने वाला जीदार होना चाहिए। क्या पता कल वे आप साहबानों की संसद में सबसे बड़े दल के नेता हो जाएँ। तो हुजूर, पहले जरा रेड-कारपेट बिछाइये, उन्हें भारत आने की दावत पेश कीजिए, वे आपकी जमीन पर रौशन फरमा जाएँगे।

२३ अप्रैल २०१२