हास्य व्यंग्य

चिंता में आनंद है
ब्रह्मदेव


आप कहेंगे, अजीब अहमक है, जबकि महापंडित आचार्याचार्य श्री जयशंकर प्रसाद अपनी सुविख्यात रचना ’कामायनी‘ में ही लिख गये हैं:
ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली।
ज्वालामुखी-विस्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली। और न जाने यह कौन है जो कहता है कि चिंता में भी आनंद है। कहाँ ज्वालामुखी का भीषण विस्फोट और कहाँ आनंद? पागल कहीं का।

अच्छा, अब आप कह चुके अपनी? मैं पागल ही सही, अब मेरी भी तो सुनिए। अभी-अभी आपने एक पत्र अपने किसी मित्र को इसी चौराहे पर एक ओर झोला फैलाये संन्यासी की भाँति खड़े लाल बक्स में डाला है, क्या आप बिलकुल निश्चिंत हैं कि आपने घर का नंबर ३७९ ही लिखा है या २७९ लिख दिया है, जो कि अपने घर का नंबर है। कहीं लाजपत राय मार्ग के स्थान पर सुभाष मार्ग पड़ गया हो, जो कि आपके एक अन्य मित्र का पता है? कलकत्ता २९ के स्थान पर कलकत्ता २६ लिखा गया हो, क्योंकि बंबई २६ में आपके बड़े भैया रहते हैं।

ये सब त्रुटियाँ संभव हैं, क्योंकि आप जब लिफाफे पर पता लिख रहे थे, आपका मस्तिष्क तो उलझा हुआ था, डालडा घी में, जो घर पर समाप्त हो गया है और दुकानदार ने कहा है कि चार दिन पश्चात मिलेगा, शेष कई दुकानों पर पड़ा है, परंतु वहाँ आपका खाता तो है नहीं, जिससे उधार मिल सके। नकद महाराज की आजकल कुछ कृपा दृष्टि बाँकी तिरछी हो रही है। हाँ ताज्जुब नहीं, यह भी संभव हो कि जूता पाँव में लग रहा था और आपका ध्यान उधर अँगुलियों को उसी कैदखाने में सीधा करने की ओर लगा हुआ था और उधर आपकी कलम से लिफाफे पर पता लिखा जा रहा था। चिंता हमें कब नहीं करनी पड़ी? जब असभ्य थे, तब भी चिंता रहती थी कि अच्छी मजबूत लकड़ी का लट्ठ कहाँ से मिले और फिर उस लट्ठ से मारने को शिकार कहाँ से मिले? किस स्थान पर फल-फूल, कंद-मूल मिलें, पहनने को खाल मिले और जलाने को ईंधन? इतिहासों के पौधे देखने पर पता चलता है कि चिंता महारानी सदा से विद्यमान रही हैं और निकट भविष्य में इनसे छुटकारा मिलना तो दूर, यह अपना साम्राज्य आजकल समाजवाद के दिनों में भी डंके की चोट के साथ बढ़ाने में व्यस्त हैं।

आज किसी चिंता को शीघ्र और सरलता से दूर कर देना एक कला है। सितार पर किसी की अँगुलियाँ दक्षता से चलती देखकर आप वाह-वाह कर उठते हैं। किसी कुशल चित्रकार के पीछे कैनवस पर कुछ क्षणों में ही अपनी महान कलाकृति बनाते देखकर आप उसके प्रत्येक ब्रुश की मार के साथ असमंजस में अपना मुँह एक बटा सोलट इंच खोलते चले जाते हैं। उदय शंकर के नृत्य के साथ जो तबला वादक है, उसके हाथ एक साथ तेरह तबलों पर नाचते देखने के लिए आप अपनी सीट पर उचककर बैठ जाते हैं। आपको यह पता नहीं कि इन लोगों ने यह दक्षता कितने श्रम, कितने अभ्यास के पश्चात प्राप्त की है। प्रत्येक कला अभ्यास चाहती है, तो क्यों न चिंता का भी अभ्यास किया जाए। जिसके साथ रहना ही है, उससे मुख मोड़ना बुद्धिमानी नहीं होगी।

चिंता करने के लिए विषयों के भंडार की कमी नहीं। आप अपने घनिष्ठ मित्र दिनेश से पिछली बार कब मिले थे? आपको याद है, जो बातें हुई थीं? क्या कारण है कि वह नाराज-सा लगता है? कोई बात अनजाने में कही गयी होगी? वह है भी तो बड़ा अक्खड़-सा।

सरला जब भी आपको मिलती है, आपकी साड़ी की ओर ऐसी दृष्टि क्यों डालती है, मानो कह रही हो, ‘ऊँह ऐसी साड़ी तो मैं देखूँ भी नहीं।’ वही कौन-सा पहन लेती है, इंद्रसभा का पहनावा।

इन छोटे-छोटे विषयों से लेकर गुड़ के ब्लैक मार्केट में मुनाफा कमाने का विषय, नये कारखाने बनवाने और बने हुए कारखानों में हड़ताल का विषय अथवा स्वतंत्र भारतवर्ष के चुनाव में राष्ट्रपति बनने का विषय, सभी का आनंद उठाया जा सकता है। इस आनंद के लिए कहीं विशेष जाना नहीं पड़ेगा। यह आप अपनी आराम कुरसी पर बैठे, गद्देदार पलंग पर लेटे, शेव करते हुए, शौच के समय अथवा स्नान करते हुए, किसी स्थान अथवा समय पर ले सकते हैं। यकीन रखिए, किसी को कानों-कान खबर भी न होगी और आप आनंद लिये जाएँगे। कहीं अगर आप उन सौभाग्यशालियों में से हैं, जिनका इस असार संसार में कोई मित्र नहीं, तो अपने स्वास्थ्य की चिंता भी एक अमूल्य निधि है। इसका खजाना कभी खाली नहीं रहता, लेकिन कहीं अगर बंदा परवर ने आपकी परवरिश का ठेका अपने निजी कंधों पर ले रखा है, यानि आप किसी शक्तिदायक दवाई के विज्ञापन में से निकलकर आये हैं, तब मेरी राय है कि आप चार-छह स्वास्थ्य संबंधी पुस्तकें पढ़ लीजिए। शर्त यह है कि वह लिखी विशेषज्ञों द्वारा ही हों। फिर देखिए, आपको अपने लोहा चबानेवाले दाँतों के तहखाने में कीड़े रेंगते हुए अनुभव होंगे। मस्तिष्क रूपी मेज के मनोविज्ञान के दराज में चूहों ने अपने घर बना रखे होंगे। रीढ़ की तेरहवीं हड्डी के नीचे ही सवा तीन इंच हटकर जो छोटा-सा गड्ढा है, वही अढ़ाई इंच की गहराई जो मीठा-मीठा दर्द होता है, वह एक भयानक फोड़े का आरंभ होगा और न जाने क्या, क्या?

सबसे उत्तम और सरल चिंता है धन की। अगर इसका अभाव है, तो यह चिंता कि कहाँ से कैसे आये? इसमें आपके घर के कोने पर स्थित विशाल मंजिल में जो रिजर्व बैंक हैं, उसमें ढाका से लेकर अफरीका के घने जंगल के बीचों-बीच पृथ्वी की सतह के पौने चार मील नीचे गड़े हीरे-जवाहरात की चिंता का आनंद भी लिया जा सकता है। आपकी चिंता का आनंद उतना ही गहरा हो सकता है, जितने आपके अनुभव तथा कल्पना।

यह बहाना व्यर्थ है कि चिंता कल करेंगे, आज जीवन की रंगरेलियों में मस्त हैं। यह सबसे बड़ी भूल है। संभव है कल हम इससे अधिक रंगरेलियों में मस्त हों, फँसे हों और खुदा न ख्वास्ता कोई चिंता आ गयी, तो सिवाय उस रंगरेलियों के दलदल में धँसने के और कोई चारा नहीं रहेगा।

यह आपकी चिंता है, इसका आनंद उठाइये।

२३ सितंबर २०१३