हास्य व्यंग्य

हमारा पप्पू पास क्यों नहीं होता
सुरेन्द्र चतुर्वेदी


सबसे पहले तो यह बता देना जरूरी है कि हमारे 'पप्पू' और 'पापे' का इस देश के किसी जिंदा या मुर्दा नेता से कोई ताल्लु्क नहीं है। यदि इनके क्रिया-कलाप किसी नेता से मेल खाते हैं, तो यह सिर्फ इत्तिइफाक हो सकता है। जिस तरह देश की जनता किसी नेता के आचरण को गंभीरता से नहीं लेती, इसी तरह हमारे 'पप्पू जी' और 'पापेजी' के आचरण को भी गंभीरता से न लिया जाय। ये दोनों सिर्फ विपक्ष के सहयोग से जनता का मनोरंजन कर रहे हैं।

हमारा 'पप्पू' एक बार फिर फेल हो गया। कोई कहता है कि 'पप्पू' शादी होने से पहले वाला वो 'कालिदास' है जो उसी शाख को काटता है जिस पर वह बैठा है, तो कोई-कोई यह भी कहता है कि पप्पू को शादी से पहले ही ज्ञान प्राप्त हो गया है और उसे किसी 'विद्योत्तमा' की जरूरत नहीं है। खुद पप्पू भी यही कहता है कि उसके जीवन में 'विद्योत्तमा' का कोई महत्व नहीं है। वह तो यह भी कहता है कि लोग उससे 'विद्योत्तमा' संबंधी फालतू के सवाल करना बंद करें।

इस बीच 'पप्पू' की बातों के निहितार्थ कुछ-कुछ 'पापेजी' को समझ आने लगे हैं और वो स्वचालित मुद्रा में एक हाथ अपनी जवाहरकट जेकेट की जेब के अंदर डालकर गर्दन बिना घुमाए पत्रकारों से कहते हैं कि मुझसे कुछ मत पूछिए। पप्पू की गूढ़ बातों का मर्म समझिए और खुद अंदाज लगाइए कि देश को मैं आखिर किसके हवाले सौंपकर जाऊँ।

पप्पूजी ...... नहीं बनना चाहते तो इसमें इतना परेशान होने वाली बात क्या‍ है।
खाली जगह को आप खुद भर लीजिए। आप चाहें तो यहाँ पीएम भी भर सकते हैं।
इस बीच पार्टी के कुछ लोगों ने पप्पू जी को समझा दिया है कि जो कुछ बोलना और जो भी कहना, इशारों-इशारों में उसी तरह कहना जिस तरह कालिदास ने विद्योत्तइमा से शादी के पूर्व कहा था। ऐसा करते रहोगे तो कोई तुम्हारी बुद्धि पर
शक नहीं करेगा, सिवाय पापेजी के। पापेजी से कोई प्रॉब्लदम नहीं है, अपने तो अपने होते हैं।

ये बात दीगर है कि स्वामिभक्त इन पार्टीजनों से भी पप्पूजी पूछ बैठे कि कालिदास आखिर किस चिड़िया का नाम था और वो किस पेड़ की शाख पर बैठकर उसे काट रही थी।

पार्टीजन तो जानते हैं कि पास होना पप्पू के बस की बात नहीं लेकिन वो करें तो करें क्या। वो चाहते हैं देश की आन-बान और शान तथा राजनीति में 'परिवारवाद' के प्रतीक 'पप्पू जी' को कैसे भी एक बार पास करवा दें।

उनकी मंशा साफ है। वह 'अतुलनीय भारत' की इस विशेषता के कायल हैं कि यहाँ बुद्धिमत्ता से पद नहीं मिलता, अलबत्ता पद की प्राप्ति के बाद हर 'पप्पू' पास हो जाता है। फिर पब्लिक यह मान लेती है कि इतने बड़े पद को सुशोभित करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान तो होगा ही। कुल मिलाकर करना यह है कि पप्पू पास हो या न हो लेकिन उसे पद दिलवाना है। एक बार पद मिला नहीं कि पप्पू हमेशा-हमेशा के लिए हो लेगा पास।

अब इसमें मात्र एक समस्या है, और वह समस्या- खुद पप्पू पैदा कर रहा है। पप्पू सांकेतिक भाषा में कह रहा है कि एक आदमी देश नहीं चला सकता। एक गुजराती तो कतई नहीं चला सकता। लेकिन लोग समझ रहे हैं कि पप्पू खुद के बारे में बात कर रहा है। लोगों को गलतफहमी भी यों ही नहीं हो रही।

दरअसल पप्पू अपनी शादी पर आपत्ति की तरह इस बात पर भी आपत्ति करता है कि पता नहीं लोग उसे कुर्सी क्यों देना चाहते हैं। वह कहता है कि वह घाघ राजनेता नहीं है और इसलिए उसे कुर्सी की दरकार नहीं हैं। उसकी 'आपत्ति' उसके अपनों को 'विपत्ति' लगती है।

प्पू जब कहता है कि वह १०० करोड़ लोगों को साथ लेकर कुर्सी पर बैठना चाहता है तो पार्टी के ही लोग मुँह पर हाथ रखकर कह देते हैं- शेखचिल्ली का उवाच न सुना हो तो हमारे पप्पू़ को सुन लो। इस सबके बीच मुझे ऐसा लगता है कि देश में दो ही लोग बुद्धिमान हैं। एक वो जो अक्सर कहते रहते हैं कि ९० प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं और दूसरा पप्पू जो कहता है कि ९० प्रतिशत लोग अक्लमंद हैं। अब पता नहीं ये दोनों लोग खुद को नाइंटी परसेंट में रखते हैं या टेन परसेंट में। बहुमत के साथ हैं या अल्पमत के साथ।

जो भी हो, पर पप्पू के पास न हो पाने से पापेजी की खुशी छिपाए नहीं छिप रही। वह मंद-मंद मुस्कुराते महसूस किये जा सकते हैं और मन ही मन कह रहे हैं- वाह रब, तेरी मेहर जिस पर हो उसकी लॉटरी बिना नंबर लगाए भी खुल सकती है। वह भी एक बार नहीं, तीन-तीन बार।
 
यों भी खुद अपने पैरों पर चलने लायक रहो या ना रहो, सरकार चलती रहती है क्योंकि यहाँ दो बैसाखियाँ 'मस्ट' नहीं हैं। यह भी जरूरी नहीं कि चलकर या बैठकर सरकार चलाई जाए। बैसाखियों से बनाई गई अर्थी पर लेटकर भी सरकार चलती है। भरोसा ना हो तो दिल्ली की ओर देख लो। नंगी आँखों से नहीं देख पा रहे हो तो सरकारी बाइस्कोप से देख लो, सब समझ में आ जाएगा। यह भी कि पप्पू क्यों पास नहीं होना चाहता और पापेजी क्यों फेल होने को तैयार नहीं।

१५ अप्रैल २०१३