हास्य व्यंग्य

भीड़तंत्र की महिमा
श्रीप्रकाश


 भीड़तंत्र यानी लोकतंत्र का विकृत रूप। जहाँ तक निगाह जाती है वहाँ तक भीड़ ही भीड़ नजर आती है। सिनेमा हाल की टिकट खिड़की पर टिकट लेना हो तो भीड़, ट्रेन का टिकट लेना हो तो भीड़, मेला जाता हूँ तो भीड़, होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, बैशाखी जहाँ तक दृष्टि फैलाता हूँ वहाँ भीड़ का ही नज़ारा देखने को मिलता है।

सियासत के क्षेत्र में नेताओं की भीड़, राजनीतिक दलों के क्षेत्र में भीड़, संसद से वोटर तक सब भीड़ ही भीड़। भला आप ही बताइए इस भीड़ में अकेले एक आदमी का कल्याण कैसे हो सकता है? अकेला आदमी इस भीड़ में खो सा गया है। जहाँ जाता है जिधर जाता है भीड़ उसके आस पास इकट्ठा हो जाती है।

राजनीति में ही देखिये तो सर्वप्रथम जनतादल की भीड़ में लालू यादव लालटेन दिखाते हुए नज़र आते हैं। बी.जे.पी. के लोग कमल के फूल की सुगंध सुंघाते हैं। सायकिलों की भीड़ में मुलायम पैदल नज़र आते हैं, पंजों की भीड़ में हाथ ही गायब हैं। कम्युनिस्टों की भीड़ में ज्योति बसु बीमार पड़े हैं। भगवान् जाने यह भीड़ देश को किधर ले जाएगी। समाचारों की भीड़ में आतंकवाद व भ्रष्टाचार छाया है और भी न जाने कितनी अनगिनत छायाएँ इस भीड़ में गुम होती चली गयीं। भीड़ इतनी बढ़ गयी है कि लादेन को खोजना मुश्किल पड़ रहा था। पश्चिमी दुनिया की भीड़ में हिन्दुस्तान की भीड़ जब-जब मिली तब-तब भीड़ का नज़ारा और भी रोचक हो गया है। कर्मचारियों की भीड़ में हड़तालों की भीड़, बिजलीघरों में बिल जमा कराने वालों की भीड़, थाने में दलालों की भीड़, चौराहे पर बातूनियों की भीड़, किसी पान की दुकान पर क्रिकेट कमेन्ट्री सुनने वालों की भीड़। भीड़ पर भीड़ बढ़ती ही जा रही है।

घोर अमावस्या की रात में एक दार्शनिक सितारों की भीड़ जब शून्य में देखता है तो वह अनुभव करता है कि इस अनंत शून्य में काली अमावस्या के मध्य इतनी सी रौशनी! भीड़ हमारे रक्त में समाई, रक्त कणिकाओं के मध्य भीड़ में तूफानी दौरा करने लगती है तब केवल दो ही पक्ष रह जाते हैं- नेगेटिव तथा पॉजिटिव। सच तो यह है कि भीड़ ही जीवन है, गति है। बचपन की एक घटना याद आती है-‘मेरे एक दोस्त की बहन की शादी थी। बारात में इतनी भीड़ थी कि कन्या पक्ष के लोगों के द्वारा कुएँ में नीचे चटाई बिछवाकर उसमें शकर की बोरियाँ खुलवा दी गयीं। इस प्रकार शरबत का वितरण बाल्टियों द्वारा खींचकर हुआ।

भीड़ कभी-कभी घातक सिद्ध होती है और उसका रुख जब क्रांति की तरफ होता है तो उसकी स्थिति और विकराल हो जाती है जैसे इंग्लैंड की रक्तक्रांति, भारत में महाभारत एवं भारत की स्वतंत्रता क्रांति।

संसद में नेताओं की भीड़ देखकर तो ऐसा लगता है कि इस देश को केवल ईश्वर ही चला रहा है। शेयर बाजारों में शेयरों की भीड़, बैंकों के खजानों में नोटों की गड्डियों की भीड़। पूँजीपतियों के काले धन के गुप्त खजानों में रुपयों के ढेर देखकर ऐसा लगता है मानो देश का वह गरीब जिसके पेट में रोटी नहीं है, बदन पर कपड़े नहीं हैं। ऐसे लोगों की भीड़ भी कम नहीं है लेकिन कमजोर है। भीड़ें जब लडती हैं तभी क्रांति होती है।

आजकल के रोडछाप कविसम्मेलन में कवियों की भीड़ पैसे के लिए अपनी कविता बेचती है, क्योंकि पापी पेट का सवाल है। महाकुम्भ जैसे मेलों में गिरहकटों की कम भीड़ नहीं है। कोई बढ़िया पिक्चर आ जाने पर सिनेमाहालों पर उमड़ती भीड़ देखकर आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं, आदमी तब तिलमिलाकर रह जाता है और उसे हाउसफुल का बोर्ड टँगा मिलता है।

भीड़ पर अगर कुछ कहा जाए तो वह हमेशा कम ही प्रतीत होगा मगर संक्षेप में एक व्यक्ति अपने आप को इस भीड़ में अकेला खड़ा महसूस कर रहा है और अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रहा है। जैसी मनःस्थिति उस व्यक्ति की है वैसी स्थिति भीड़ के अन्य लोगों की भी है और वे परस्पर भीड़मभीड़त में उलझे हैं। कहाँ तक कहूँ भीड़ की तो महिमा ही न्यारी है। सच ही है-
“हियाँ तो भीड़ तंत्र की है बलिहारी।
गवर्नमेंट से जनता हारी॥

 १० मार्च २०१४