सुधा तो मर गई थी, अब ताहिरा थी।
उसने फिर काँपते हाथों से खिड़की खोली, वही लाल हवेली थी उसके
श्वसुर वकील साहब की। वही छत पर चढ़ी रात की रानी की बेल,
तीसरा कमरा जहाँ उसके जीवन की कितनी रस-भरी रातें बीती थीं, न
जाने क्या कर रहे होंगे, शादी कर ली होगी, क्या पता बच्चों से
खेल रहें हों! आँखे फिर बरसने लगीं और एक अनजाने मोह से वह जूझ
उठी।
'ताहिरा, अरे कहाँ हो?' रहमान
अली का स्वर आया और हडबड़ाकर आँखे पोंछ ताहिरा बिस्तरबंद खोलने
लगी। रहमान अली ने गीली आँखे देखीं तो घुटना टेक कर उसके पास
बैठ गया, 'बीवी, क्या बात हो गई? सिर तो नहीं दुख रहा है।
चलो-चलो, लेटो चलकर। कितनी बार समझाया है कि यह सब काम मत किया
करो, पर सुनता कौन है! बैठो कुर्सी पर, मैं बिस्तर खोलता हूँ।'
मखमली गद्दे पर रेशमी चादर बिछाकर रहमान अली ने ताहिरा को लिटा
दिया और शरबत लेने चला गया। सलमा आकर सिर दबाने लगी, बड़ी
अम्मा ने आकर कहा, 'नज़र लग गई है, और क्या।' नहीं नजमा ने
दहकते अंगारों पर चून और मिर्च से नज़र उतारी। किसी ने कहा,
'दिल का दौरा पड़ गया, आंवले का मुरब्बा चटाकर देखो।'
लाड और दुलार की थपकियाँ देकर सब चले गए। पास में लेटा रहमान
अली खर्राटे भरने लगा। तो दबे पैरों वह फिर खिड़की पर जा खड़ी
हुई। बहुत दिन से प्यासे को जैसे ठंडे पानी की झील मिल गई थी,
पानी पी-पीकर भी प्यास नहीं बुझ रही थी। तीसरी मंज़िल पर रोशनी
जल रही थी। उस घर में रात का खाना देर से ही निबटता था। फिर
खाने के बाद दूध पीने की भी तो उन्हें आदत थी। इतने साल गुज़र
गए, फिर भी उनकी एक-एक आदत उसे दो के पहाड़े की तरह जुबानी याद
थी। सुधा, सुधा कहाँ है तू? उसका हृदय उसे स्वयं धिक्कार उठा,
तूने अपना गला क्यों नहीं घोंट दिया? तू मर क्यों नहीं गई,
कुएँ में कूदकर? क्या पाकिस्तान के कुएँ सूख गए थे? तूने धर्म
छोड़ा पर संस्कार रह गए, प्रेम की धारा मोड़ दी, पर बेड़ी नहीं
कटी, हर तीज, होली, दीवाली तेरे कलेजे पर भाला भोंककर निकल
जाती है। हर ईद तुझे खुशी से क्यों नहीं भर देती? आज सामने
तेरे ससुराल की हवेली है, जा उनके चरणों में गिरकर अपने पाप धो
ले। ताहिरा ने सिसकियाँ रोकने को दुपट्टा मुँह में दबा लिया।
रहमान अली ने करवट बदली और
पलंग चरमराया। दबे पैर रखती ताहिरा फिर लेट गई। सुबह उठी तो
शहनाइयाँ बज रही थीं, रेशमी रंग-बिरंगी गरारा-कमीज अबरखी चमकते
दुपट्टे, हिना और मोतिया की गमक से पूरा घर मह-महकर रहा था।
पुलिस बैंड तैयार था, खाकी वर्दियाँ और लाल तुर्रम के साफे
सूरज की किरनों से चमक रहे थे। बारात में घर की सब औरतें भी
जाएँगी। एक बस में रेशमी चादर तानकर पर्दा खींच दिया गया था।
लड़कियाँ बड़ी-बड़ी सुर्मेदार आंखों से नशा-सा बिखेरती एक
दुसरे पर गिरती-पड़ती बस पर चढ़ रही थीं। बड़ी-बुढ़ियाँ पानदान
समेटकर बड़े इत्मीनान से बैठने जा रही थीं और पीछे-पीछे ताहिरा
काला बुर्का ओढ़कर ऐसी गुमसुम चली जा रही थी जैसे सुध-बुध खो
बैठी हो। ऐसी ही एक सांझ को वह भी दुल्हन बनकर इसी शहर आई थी,
बस में सिमटी-सिमटाई लाल चुनर से ढ़की। आज था स्याह बुर्का,
जिसने उसका चेहरा ही नहीं, पूरी पिछली जिन्दगी अंधेरे में
डुबाकर रख दी थी।
'अरे किसी ने वकील साहब के यहां बुलौआ भेजा या नहीं?'
बड़ी अम्मी बोलीं ओर ताहिरा के दिल पर नश्तर फिरा।
'दे दिया अम्मी।' मामूजान बोले, 'उनकी तबीयत ठीक नहीं है, इसी
से नहीं आए।'
'बड़े नेक आदमी हैं' बड़ी अम्मी ने डिबिया खोलकर पान मुंह में
भरा,
फिर छाली की चुटकी निकाली और बोली, 'शहर के सबसे नामी वकील के
बेटे हैं पर आस न औलाद। सुना एक बीवी दंगे में मर गई तो फिर घर
ही नहीं बसाया।'
बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ, चांद-सी दुल्हन आई। शाम को पिक्चर
का प्रोग्राम बना। नया जोड़ा, बड़ी अम्मी, लड़कियाँ, यहाँ तक
कि घर की नौकरानियाँ भी बन-ठनकर तैयार हो गई। पर ताहिरा नहीं
गई, उसका सिर दुख रहा था। बे सिर-पैर के मुहब्बत के गाने सुनने
की ताकत उसमें नहीं थी। अकेले अंधेरे कमरे में वह चुपचाप पड़ी
रहना चाहती थी - हिन्दुस्तान, प्यारे हिन्दुस्तान की आखिरी
साँझ।
जब सब चले गए तो तेज बत्ती जलाकर वह आदमकद आईने के सामने खड़ी
हो गई। समय और भाग्य का अत्याचार भी उसका अलौकिक सौंदर्य नहीं
लूट सका। वह बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग और संगमरमर-सी सफेद देह
-- कौन कहेगा वह एक जवान बेटी की माँ है? कहीं पर भी उसके
पुष्ट यौवन ने समय से मुँह की नहीं खाई थी। कल वह सुबह चार बजे
चली जाएगी। जिस देवता ने उसके लिए सर्वस्व त्याग कर वैरागी का
वेश धर लिया है, क्या एक बार भी उसके दर्शन नहीं मिलेंगे? किसी
शैतान-नटखट बालक की भाँति उसकी आँखे चमकने लगीं।
झटपट बुर्का ओढ़, वह बाहर
निकल आई, पैरों में बिजली की गति आ गई, पर हवेली के पास आकर वह
पसीना-पसीना हो गई। पिछवाड़े की सीढ़ियाँ उसे याद थीं जो ठीक
उनके कमरे की छोटी खिड़की के पास अकर ही रुकती थीं। एक-एक पैर
दस मन का हो गया, कलेजा फट-फट कर मुंह को आ गया, पर अब वह
ताहिरा नहीं थी, वह सोलह वर्ष पूर्व की चंचल बालिका नववधू सुधा
थी जो सास की नज़र बचाकर तरुण पति के गालों पर अबीर मलने जा
रही थी। मिलन के उन अमूल्य क्षणों में सैयद वंश के रहमान अली
का अस्तित्व मिट गया था। आखिरी सीढ़ी आई, सांस रोककर, आँखे
मूँद वह मनाने लगी, 'हे बिल्वेश्वर महादेव, तुम्हारे चरणों में
यह हीरे की अँगूठी चढ़ाऊँगी, एक बार उन्हें दिखा दो पर वे मुझे
न देखें।'
बहुत दिन बाद भक्त भगवान का
स्मरण किया था, कैसे न सुनते? आँसुओं से अंधी ने देवता को देख
लिया। वही गंभीर मुद्रा, वही लट्ठे का इकबर्रा पाजामा और मलमल
का कुर्ता। मेज़ पर अभागिन सुधा की तस्वीर थी जो गौने पर बड़े
भय्या ने खींची थी।
'जी भरकर देख पगली और भाग जा, भाग ताहिरा, भाग! ' उसके कानों
में जैसे स्वयं भोलानाथ गरजे।
सुधा फिर डूब गई, ताहिरा जगी।
सब सिनेमा से लौटने को होंगे। अंतिम बार आँखों ही आँखों में
देवता की चरण-धूलि लेकर वह लौटी और बिल्वेश्वर महादेव के
निर्जन देवालय की ओर भागी। न जाने कितनी मनौतियाँ माँगी थीं,
इसी देहरी पर। सिर पटककर वह लौट गई, आँचल पसारकर उसने आखिरी
मनौती माँगी, 'हे भोलेनाथ, उन्हें सुखी रखना। उनके पैरों में
काँटा भी न गड़े।' हीरे की अँगूठी उतारकर चढ़ा दी और
भागती-हाँफती घर पहुँची।
रहमान अली ने आते ही उसका
पीला चेहरा देखा तो नब्ज़ पकड़ ली, 'देखूँ, बुखार तो नहीं है,
अरे अँगूठी कहाँ गई?' वह अँगूठी रहमान ने उसे इसी साल शादी के
दिन यादगार में पहनाई थी।
'न जाने कहाँ गिर गई?' थके स्वर में ताहिरा ने कहा।
'कोई बात नहीं' रहमान ने झुककर ठंडी बर्फ़-सी लंबी अँगुलियों
को चूमकर कहा, 'ये अँगुलियाँ आबाद रहें। इन्शाअल्ला अब के
तेहरान से चौकोर हीरा मँगवा लेंगे।'
ताहिरा की खोई दृष्टि खिड़की
से बाहर अंधेरे में डूबती लाल हवेली पर थी, जिसके तीसरे कमरे
की रोशनी दप-से-बुझ गई थी। ताहिरा ने एक सर्द साँस खींचकर
खिड़की बन्द कर दी।
लाल हवेली अंधेरे में गले तक
डूब चुकी थी। |