आज सिरहाने

 

रचनाकार
सूर्यबाला

*

प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ,
१८ इंस्‍टीट्यूशनल एरिया
लोदी रोड, नयी दिल्‍ली ११००३२

*

पृष्ठ - ९६

*

मूल्य: १२० रुपए

*

'गौरा गुनवंती' (कहानी संग्रह)

सूर्यबाला की १२ कहानियों का संग्रह ‘गौरागुनवंती’ एक ऐसा साहित्यिक दस्तावेज है, जिसकी हर कहानी में मानवीय संबंधों को रेशा-रेशा उघाड़ कर देखने की कोशिश की गई है, अगर विज्ञान की भाषा से विषेषण लिए जाएँ तो ये कहा जा सकता है कि सूर्यबाला के पात्र तरल, पारदर्शी और ज्वलंशील हैं। ‘नीली थैली वाला पैराशूट’ की कौशल्याबाई हो, या ‘कपड़े’ कहानी का चन्दू – सभी पात्र इतने तरल और पारदर्शी कि पाठकों को उनके अन्दर झाँकने की युक्ति नहीं ढूँढनी पड़ती।

सूर्यबाला की शैली ऐसी है कि वे पाठक की अंगुली पकड़कर अपने पात्रों के अन्दर प्रवेश कराती हैं और अपने पात्र के अन्दर कुछ देर फिर रहने का मौका भी देती हैं, इतना ही नहीं, सूर्यबाला पाठक को पात्र के अन्दर प्रवेश करा कर दूर खड़ी हो जाती हैं ताकि पाठक ही समझे पात्र के आन्तरिक व्यक्तित्व और उसके ताप को...।

अपनी संपूर्ण ११ कहानियों में सूर्यबाला साहित्य के किसी वाद या आन्दोलन का समर्थन या विरोध करती हुई नहीं नज़र आतीं, उन्हें मतल्ब है तो अपनी कहानी के नायक/ नायिका और उससे जुड़े पात्र/सहपात्रों से दुनियावी भाषा में ‘स्वार्थ परकता’ और साहित्य की भाषा में सौ प्रतिशत ईमानदारी। ‘कौमुदी: एक प्रश्न’ ‘यह क्या सर जी!’ ‘तलाश’ आदि कहानियों में सूर्यबाला पहले एक सामाजिक व्यवस्था का तानाबाना गढ़ती है।

सूर्यबाला की हर कहानी सवाल छोड़ते हुए जाती है और सवाल भी ऐसे सशक्त कि पाठक अपनी संवेदना के भंवर में डूबता-उतरता रहे। ‘ब्यूटीफुल शॉट’ कहानी क एक संवाद देखिए- “मैं हिन्दू सा भी दीखता था मुसलमान सा भी न... मिसेज माथुर...। इसलिए मुझे दोनों ने ही नहीं......यों कहिए कि इसलिए मुझे दोनों में से कोई नहीं बचा पाया...“ ढाई पंक्तियों का यह संवाद भारत की वर्तमान सांप्रदायिक परिस्थितियों पर इतना कड़ा प्रहा हि कि संवेदनशील पाठक तिलमिला कर रह जाता है। इन ढाई पंक्तियों की व्याख्या के लिए ढाई ग्रन्थ भी कम पड़ जाएँ।


साहित्य का एक संलग्न सत्य और उभरता है सूर्यबाला की कहानियों से... वह यह कि बांगला के कुछ रचनाकारों और फणीश्वर नाथ रेणु के जे.पी. आन्दोलन में शिरकत को छोड़ दें तो भारतीय साहित्यकारों का शाब्दिक क्रांति में तो विश्वास है मगर वे व्यवहारिक रूप से सामाजिक क्रांति का हिस्सा नहीं बनना चाहते। साहित्यकारों की यह विवशता स्वतंत्रता के बाद स्पष्ट भी दिखाई पड़ती है और उनके साहित्य से भी परिलक्षित होती है। ‘कौमुदी: एक प्रश्न’ कहानी में सूर्यबाला की यह विवशता दिखाई देती है – “मैं खुद ही तुम्हारी पक्ष में कहाँ खड़ी हो पाई कौमुदी? काश ! मुझमें इतनी हिम्मत होती... किया तो सिर्फ इतना कि अलमारी से कुछ मुड़े तुड़े नोट निकाले और हल्दी-अक्षत के साथ तुम्हारी हथेलियों में दबा दिए।”

अंत में, यही कि समाज के खुरदुरेपन को को कालीन की भाषा में कहने का जो शिल्प सूर्यबाला को कहानियों में है, वह साहित्य की छात्रों के लिए अनुकरणीय है। समाज की विषमताओं, वर्ग संघर्ष की पीड़ाओं, आर्थिक-संस्कारिक मजबूरियों, कुरीतियों और रूढ़ियों को ओस भर क़लम से अभिव्यक्त करना पाठकों के लिए शब्दों के हरसिंगार परोसने जैसा है। ‘गौरागुनवंती’ संग्रहणीय और स्मृति में बसने जैसा कहानी संग्रह है।

अभिलाष अवस्थी
८ अगस्त २०११