आज सिरहाने

 

रचनाकार
डॉ. इंदुजा अवस्थी

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प्रकाशक
 राधाकृष्‍ण प्रकाशन
नयी दिल्‍ली

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पृष्ठ - २८०

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मूल्य : ३५० रुपए

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आई एस बी एन
८१७१७९५८४९

'रामलीला परंपरा और शैलियाँ (शोधग्रंथ)

'काव्‍येषु नाटकं रम्‍यम्' इस पंक्ति से संस्‍कृत की एक उक्ति का आरम्‍भ होता है। काव्‍य के विविध प्रकारों में नाट्य एक ऐसी विधा है जिससे मानव सर्वाधिक समरस होता है। इस मान्‍यता का आधार एक निश्चित विचारधारा है जो वामन (ईस्‍वी की आठवीं - नवीं शताब्‍दी) के काव्‍यालंकारसूत्राणि ग्रंथ में मिलती है - दीर्घ साहित्यिक रचनाओं में विवध प्रकार का नाट्य श्रेष्‍ठ है ऐसी वामन की मान्‍यता है। संयोग की बात है कि कुछ ऐसी ही विचारधारा पश्चिम में भी दिखाई देती है। (अशोक रा. केलकर, पूर्वग्रह अंक, १०४) नाटक के सम्‍बन्‍ध में उपर्युक्‍त उद्धरण के अतिरिक्‍त भी उसकी लोकोन्‍मुखता का उल्‍लेख बार-बार हुआ है, बल्कि आद्याचार्य भरत मुनि के नाट्यशास्‍त्र में तो नाटक की उत्‍पत्ति के संदर्भ में जो कथा-प्रसंग दिया गया है उसी में उसकी लोकाभिमुखता का संकेत भी स्‍पष्‍ट है।

नाट्यशास्‍त्र के अनुसार देवताओं ने ब्रह्मा से मनोरंजन के एक साधन नाट्यवेद का सृजन करने की प्रार्थना की, क्‍योंकि जनसामान्‍य वेद निर्दिष्‍ट व्‍यवहार से विमुख हो ईर्ष्‍या, द्वेष, काम और क्रोध के वशीभूत हो गए हैं। अत: ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ और यश की प्राप्ति कराने वाले शास्‍त्रवचनों के उपदेश से युक्‍त, लोकज्ञान से युक्‍त, सभी शिल्‍पों को प्रेरणा देने वाले तथा सभी जातियों और वर्गों के लिए समान रूप से आनंददायी दृश्‍य का आयोजन किया। ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय, अथर्ववेद से रस लेकर नाटक की रचना की, संभवत: इसीलिए
नाटक को पंचमवेद की संज्ञा से भी अभिहित किया गया।

नाटक को पंचम वेद कहा जाना लोक में उसकी महत्‍ता तो दर्शाता ही है, उसकी प्रतिष्‍ठा की ओर भी इंगित करता है - कहना न होगा कि नाटक के लोक में यह महत्‍ता और प्रतिष्‍ठा का बहुत बड़ा कारण उसकी प्रभाविष्‍णुता ही है। यह बात दूसरी है कि लोक से सीधे-सीधे जुड़े होने के बावज़ूद भी कुछ नाटकों को विशेष रूप से लोकनाट्य कहा गया है और जिसे 'अनायासता' और अनगढ़पन से परिभाषित किया गया। भारत (और भारत के बाहर भी) भर में गली-गली, गाँव-गाँव में होने वाली रामलीला को इसी लोकनाट्य रूपों की एक शैली के रूप में स्‍वीकारा गया है। राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज़ पर वास्‍तव में कितनी विविध शैलियों वाली है, इसका खुलासा इन्‍दुजा अवस्‍थी ने अपने शोध-प्रबंध 'रामलीला : परंपरा और शैलियाँ' में बड़े विस्‍तार से किया है।

इंदुजा अवस्‍थी के इस शोध प्रबंध की यह विशेषता है कि यह शोध पुस्‍तकालयों में बैठकर न लिखा जा कर विषय के अनुरूप (रामलीला) मैदानों में घूम-घूम कर लिखा गया है। रामकथा तो ख्‍यात कथा है, किंतु जिस प्रकार वह भारत भर की विभिन्‍न भाषाओं में अभिव्‍यक्‍त हुई है तो उस भाषा, उस स्‍थान और उस समाज की कुछ निजी विशिष्‍टताएँ भी उसमें अनायास ही समाहित हो गई हैं - रंगनाथ रामायण और कृतिवास या भावार्थ रामायण और असमिया रामायण की मूल कथा एक होते हुए भी अपने-अपने भाषा-भाषी समाज की 'रामकथाएँ' बन गई हैं।

साहित्यिक कृतियों से इतर बोलियों और लोकगीतों तक में निजी विशिष्‍टताओं से भरपूर रामकथाएँ हैं - शायद इसीलिए 'अपनी-अपनी रामकहानी' मुहावरा भी चल पड़ा हो। स्‍वाभाविक है कि जब इतनी रामकथाएँ हैं तो भाषा, समाज और स्‍थान की विशिष्‍टता उस राम‍कथा के मंच पर प्रदर्शन में भी होगी ही। सिर्फ उत्‍तर प्रदेश में ही ऐतिहासिक रामनगर की रामलीला, अयोध्‍या, चित्रकूट की रामलीला, अस्‍सी घाट (वाराणसी की रामलीला) इलाहाबाद और लखनऊ की रामलीलाओं की प्रस्‍तुतिकरण की अपनी-अपनी शैली है, अपनी विशिष्‍ट परंपरा है।

यह भी सच है कि समूचे उत्‍तर भारत में आज रामलीला का जो स्‍वरूप विकसित हुआ है उसके जनक गोस्‍वामी तुलसीदास ही माने जाते हैं, और यह भी सच है कि इन सभी रामलीलाओं में रामचरितमानस का गायन, उसके संवाद और प्रसंगों की एक तरह से प्रमुखता रहती है। बाबू श्‍यामसुंदर दास हों, कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह हों या फिर आचार्य विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र सभी की यह मान्‍यता है कि रामलीला के वर्तमान स्‍वरूप के उद्घाटक, प्रवर्तक और प्रसारक महात्‍मा तुलसीदास हैं। किंतु यह भी सच नहीं है कि तुलसी के पूर्व रामलीला थी ही नहीं, हाँ यह अवश्‍य है कि गोस्‍वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के पश्‍चात् फिर रामलीलाओं का आधार यही रामचरितमानस ही हो गया।

यूँ लेखिका का तो यह मानना है कि 'मुझे तो विश्‍वास है कि तुलसी ने रामकथा के पारंपरिक - प्रस्‍तुतिकरणों की लोकप्रियता का अनुभव अवश्‍य किया होगा, तभी उनकी प्रभावी शक्ति को पहचानकर रामचरितमानस जनता की भाषा में लिखी और उसके आधार पर इनका रामलीला के नाम से पुनर्गठन किया।' बाबा सरयूदास रचित श्री रामकृष्‍ण लीलानुकरण सिद्धांत नामक ग्रंथ में इसका संकेत मिलता है कि तुलसी के रामचरितमानस से पूर्व चित्रकूट की रामलीला नाम से जो रामलीला वाराणसी में प्रस्‍तुत की जाती है वह पहले वाल्‍मीकि रामायण के आधार पर खेली जाती थी, बाद में तुलसी के शिष्‍य मेघाभगत ने उसे मानस से संबद्ध किया।

प्रस्‍तुत पुस्‍तक में सुविख्‍यात और प्रतिष्ठित रामलीलाओं के प्रदर्शन की बारीकियों का तो उल्‍लेख किया ही गया है, कुछ रामलीलाओं के विशिष्‍ट कथा-प्रसंगों के पाठ भी किए गए हैं। वाचिक परंपरा में ये पाठ बरसों-बरसों से उसी प्रकार चले आ रहे हैं - निर्देशक और अभिनेता बदलते रहते हैं किंतु आलेख वही है, वही उसकी विशिष्‍टता है।

पुस्‍तक में रामलीला से संबंधित अन्‍य छोटी-से-छोटी बातों को भी समाहित कर लिया गया है, उदाहरणार्थ रामलीला समिति, उसका चुनाव, पात्रों का चुनाव में बरता जाने वाला अनुशासन इत्‍यादि। कुल मिलाकर यह एक पारम्‍परिक-समुदायिक कार्यक्रम है, और जिस ग्राम या मुहल्‍ले में इसका प्रस्‍तुतिकरण होता है वहाँ के सभी लोग इससे अपना अनिवार्य संबंध अनुभव करते हैं। अनेक प्रसंगों में अभिनेताओं और दर्शकों के बीच की दूरी बिल्‍कुल समाप्‍त हो जाती है और नाटकीय अनुभव में दर्शक की बड़ी ही भावनात्‍मक और आवेशपूर्ण सहभागिता रहती है।

राम की बारात निकलने पर उस प्रान्‍तर के सभी निवासी मानों राजा जनक के पुरवासी बनकर दूल्‍हे का सत्‍कार करते हैं, राम-वनगमन के समय राम-लक्ष्‍मण और सीता के पीछे अश्रु-विलगित जनता अपने को अयोध्‍यावासी समझती हुई आँसू बहाती चलती है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि चाहे राम-कथा की महती संकल्‍पना के कारण हो, चाहे रामचरितमानस की लोक प्रतिष्‍ठा के कारण हो, रामलीला में दर्शकों का जितना संपूर्ण सहयोग होता है उतना और किसी भी नाट्यरूप में मिल पाना कठिन ही है, और यह तथ्‍य इस लीला नाटक को एक अभूतपूर्व और सशक्‍त आयाम देता है।

भारत ही नहीं भारत के बाहर भी और विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया में भी रामकथा वहाँ के जन-जीवन का अनिवार्य अंग है, बालि, जावा, मलयेशिया में भी रामनाट्य होते हैं, इंडो‍नेशिया के जोग्‍या (अयोध्‍या) में तो प्रत्‍येक पूर्णिमा पर चार दिनों तक रामनाट्य कार्यक्रम होते हैं। लेखिका ने परिशिष्‍ट के रूप में दक्षिण-पूर्व एशिया के इन रामनाट्यों का संक्षिप्‍त परिचय भी दे दिया है। सामान्‍यतया तो शोध-ग्रंथ के प्रकाशन में ही कठिनाई होती है, किन्‍तु इस शोध-ग्रंथ का दूसरा संस्‍करण अभी प्रकाशित हुआ है जो दरअसल पुस्‍तक उत्कृष्टता और संपूर्णता को ही दर्शाता है।

- डॉ. अवनिजेश अवस्‍थी
२४ अक्तूबर २०११