अमर कहानी

 
मैडम कामा
नरसिंहमूर्ति


मोरिया !
यह मात्र एक जहाज का नाम था। वीर सावरकर को लन्दन से भारत की ओर ले जाने का सौभाग्य इस जहाज को प्राप्त था। वीर सावरकर बहादुरी से भारत की आजादी के लिये लड़ रहे थे। विदेशी भूमि पर गिरफ्तार कर इस शूर योद्धा को मुकदमा चलाने हेतु भारत लाया जा रहा था।

वीर योद्धा की मुक्ति का सपना

जुलाई १९१० की पहली तारीख। जहाज भारत की ओर जलमार्ग से आगे बढ रहा है। इधर पेरिस में ऋषिजी और एक अन्य क्रन्तिकारी के बीच एक गुप्त योजना तय हो रही थी - किसी भी प्रकार सावरकर को गिरफ्तारी से रिहा कराना ही चाहिए। सावरकर को छुड़ाने की कोशिश किये बगैर जहाज को भारत पहुँचने नहीं दिया जाएगा। क्रांतिकारी की उम्र करीब ५० वर्ष थी। दुसरे साथी ऋषिजी मुश्किल से ३५ वर्ष के थे। लहराती दाढ़ी और मुछों के कारण उनका नाम 'ऋषिजी ' पड़ गया था। उनका असली नाम था वी. वी. एस. अय्यर।

८ जुलाई की सुबह। पहरेदार सिपाहियों को चकमा देकर सावरकर चलते जहाज से कूद पड़ते हैं। तैरते हुए वह किनारे पर पहुँचते हैं। उनकी सुरक्षा के लिये गुप्त रूप से सभी व्यवस्था हो चुकी है। तट पर एक वाहन में क्रांतिकारी और उनके साथी सावरकर की प्रतीक्षा कर रहें हैं। जैसे ही सावरकर किनारे पहुँचते है, वह महिला और साथी थके हुए सावरकर को वहाँ बिठाते हैं। वाहन द्रुत गति से शुरू हो जाता है। सावरकर की कैद से मुक्ति साकार हो गई ! वह अब एकदम आजाद है ! 'स्वतंत्रता की जय' का घोष और हर्षोल्लास से वायुमंडल थिरक रहा है !
परन्तु ........यह सब मात्र स्वप्न था !

सपना बिखर गया

जब क्रांतिकारी, ऋषिजी एवं उनके साथी मार्सेलीज बंदरगाह पहुँचे, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जहाज से खुद कर तैरते हुए किनारे पहुँचे सावरकर को अनुचित ढँग से पुलिस ने गिरफ्तार कर वापिस जहाज पर खींच लिया था। सप्ताहों के विचार के बाद बनी योजना एक क्षण में टुकड़े - टुकड़े हो गई। सावरकर की रिहाई के बजाय भारी निराशा और असफलता हाथ लगी। उस महिला का पेरिस में फ़र्निचर आदि सुविधावों से सजा सुंदर और बड़ा मकान था। निवास के कमरे में फ़र्निचर करीने से लगा हुआ था। कोने में पूरी ऊँचाई का आईना था। सीधे आकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। चेहरे पर पहले के उत्साह और उमंग के स्थान पर अब उदासी थी। इस बात पर वह कैसे विश्वास कर सकती थी कि उस के जाने में थोड़ी - सी देरी से सावरकर फिर कैदी हुए थे ?

सफलता की सीढियाँ

आईने के प्रतिबिम्ब ने उस में पुन: साहस का संचार किया - 'अरी मूर्ख औरत, हिम्मत मत हार ! भूल मत कि तू मैडम कामा है। असफलताओं को सीढियाँ बनाकर सफलता प्राप्त की जा सकती है। जो हुआ सो भूल जा, और आगे का चिंतन कर।'
नीचे बैठ कर वह सावरकर को आजाद करने के अन्य मार्गों के बारे में सोचने लगी। सावरकर की मुक्ति के लिये वह इतनी बेचैन थी कि इस बाबत शीघ्रता से कुछ सोचने के लिये उसने बम्बई के एक विख्यात देशभक्त एडवोकेट को तार कर दिया। मैडम कामा के रक्त की हर बूँद आजादी के लिये तड़प रही थी। अंग्रेजी हुकूमत के जूतों तले भारतीय लोग पीसे जा रहे थे, अत: भारतीयों को स्वतंत्र कराने का दृढ संकल्प मैडम कामा के रोम-रोम में समाया हुआ था।

दमन से भड़की ज्वाला

मैडम कामा पैदायशी क्रांतिकारी नहीं थी। शुरू में तो वह हिंसा की बात तक बर्दाश्त नहीं करती थी। विद्रोह और दंगा करनेवालों का वह विरोध किया करती थी। परन्तु समय गुजरने के साथ उसे अंग्रेजी हुकूमत का अन्याय और दमन समझ में आने लगा। उसने महसूस किया कि निर्दय प्रशासन पर ढोंग की सवारी चल रही है। देशवासियों को असहाय रूप से यंत्रणाएँ सहते देख उसमे क्रांति की चिनगारी जाग उठी और वह भड़कती ज्वाला बन गई। मैडम कामा क्रांति की वह जननी है जो विदेश की भूमि पर रहते हुए भी, अंग्रेजों के असहयोग के लिये भारतीयों को प्रेरित करती रही।

मेघावी मुन्नी

मैडम कामा का जन्म २४ सितम्बर १८६१ को बम्बई में हुआ था। कामा के पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल बम्बई की जानी मानी हस्ती थे। उनका बड़ा व्यापार था और वे अमीर थे। नौ बच्चों से भरापूरा उनका बड़ा परिवार था। आगे चल कर अंग्रेज सरकार को आतंकित करनेवाले रुस्तम भिकाजी कामा इसी परिवार के थे। पिता सोराबजी ने बड़े लाड प्यार से कामा का लालन - पालन किया। कामा को प्यार से वह मुन्नी कह कर पुकारते। योग्य उम्र में कामा को अलेक्झांड्रा पारसी कन्या विद्यालय में दाखिल किया गया।

मुन्नी बहुत मेघावी थी। पूरी कक्षा में सब विषयों में वह पहले नंबर पर रहती। जब तक दिन भर की पढाई पूरी नहीं कर लेती, तब तक वह रात का खाना नहीं खाती थी। सोती भी वह तब तक नहीं थी जब तक घर पर करने के पाठ पूरे नहीं कर लेती। इस कारण वह सब विषयों में ऊँचे अंक प्राप्त करती। स्वाभाविक ही थी कि मुन्नी सब अध्यापकों की लाडली हो गई थी।

उस कच्ची उम्र में भी मुन्नी की आकांक्षा रहती थी कि वह कई भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ले। बचपन में ही स्वतंत्रता की लड़ाई में उसे काफी रूचि थी। देश के लिये बलिदान करनेवाले देशभक्तों की वह पूजक थी।  देश के हित में जूझनेवालों के लिये उसके दिल में सम्मान था। उसके कारनामों से पिता सोराबजी परेशान थे। आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने से वे अपनी लड़की को रोकना चाहते थे।

विवाह - बतौर उपाय

परंतु यह हो कैसे ? विवाह ? हाँ, शादी हो जाने पर वह आज जैसी स्वच्छंद नहीं रह सकेगी। आखिर पिता ने अपनी कन्या के लिये योग्य वर ढूँढ ही लिया कामा को राजनीति से दूर रखने के लिये ! होनेवाले दामाद का नाम था रुस्तम के. आर. कामा। सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ उसका राजनीति में भी अच्छा नाम था। पेशे से वकील इस युवक की अंग्रेजी राज में आस्था थी। ऐसे युवक ने यह जानते हुए भी कि मैडम कामा अजादी की प्यासी सिंहनी है, उससे शादी के लिये सम्मति दे देना बड़ी अजीब बात थी। ' सचमुच वह रुस्तम था - एक साहसी पुरुष।' ३ अगस्त १८८५ को बड़ी धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद सिर्फ दो दिन मैडम कामा की राजनितिक गतिविधियाँ थम गई थीं ; तीसरे दिन राजनैतिक कारनामे फिर शुरू हो गए। अपनी लड़की के वजह से उत्पन्न सिरदर्द पिता ने अब दामाद पर मढ़ दिया था !

पति पत्नी - दो दल

मैडम कामा का पति बहुत खूबसूरत था। लगता था संपत्ति और बुद्धि के मामले में दोनों एक - दूसरे के लिये ही बने थे। लेकिन अंग्रेजी राज के बारे में दोनों के विचारों में जमीन - आसमान का विरोध था। पति के विचार में इंग्लैण्ड नंदनवन था और अंग्रेज साक्षात् ईश्वर। उसके मत में अन्य कोई सत्ताशक्ति ऐसी नहीं थी, जो अंग्रेजी हुकूमत से बेहतर तो क्या बराबरी भी कर सकती हो। उधर मैडम कामा की दृष्टि में अंग्रेज भारत का रक्त पीनेवाले जुल्मी लोग थे। वे ऊपर से सभी दिखनेवाले पक्के धोखेबाज लोग थे। वे ऐसे सिद्धान्तहीन हमलावर थे जो भारत का इतना रक्त चूसना चाहते थे कि अंत में केवल हड्डियों का जर्जर ढाँचा मात्र रह जाए।
थोथे अंग्रेजी आदर्शों का अंधभक्त पति मैडम कामा के लिये तकलीफ का कारण बन गया। उसने अपने पत्नी को चेतावनी दे रखी थी कि वह स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिस्सा न ले। परन्तु पति की सख्ती और बंधनों का मैडम कामा पर कोई असर नहीं हुआ। उनका घर दो निष्ठाओं में विभाजित हो गया - पत्नी भारतीयों के साथ और पति अंग्रेजों के साथ। गुलामी की जंजीरों से भारत को मुक्त करने के मैडम कामा के पावन संकल्प के कारण कामा के घर ने युद्ध के छोटे मैदान का रूप धारण कर लिया। विवाहित जीवन कोई खुशियाँ नहीं लाया। साध्वी मीरा ने अपने गिरिधर गोपाल के लिये संपन्न परिवार और पति को तज दिया था। उसी भाँति माँ-भारती को विदेशी दासता से मुक्त करने सामाजिक प्रतिष्टा - प्राप्त, अमीर पति को मैडम कामा भूल-सी गई।

प्लेग से लड़ाई

इसी समय बम्बई में प्लेग की बीमारी फैल गई। इस भयावह बीमारी से जब लोग मरने लगे तब अपनी जान की परवाह न करते हुए मैडम कामा ने खुद को मरीजों की सेवा में झोंक दिया। नर्स की भाँति मरीजों की सेवा में जुटते हुए उसने माँ की सांत्वना दी। मरीजों की पानी की प्यास बुझा कर, उन्हें चंगा कर मैडम कामा ने उनमे आजादी की प्यास पैदा कर दी। नींद और भूख की चिंता न करते हुए मैडम कामा बीमारों की सेवा में लगी रही। परिणामतया वह भी प्लेग का शिकार हो गई। परन्तु इस शेर-दिल महिला के निकट आने के लिये प्रत्यक्ष यमराज भी काँप रहे थे। कामा की तबियत तो सुधर गई किन्तु पहले की शक्ति और उत्साह लौट कर कर नहीं आ सका। मित्रों और रिश्तेदारों ने अंतत: बलपूर्वक उसे १९०२ में पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करने यूरोप रवाना कर दिया।

यूरोप में

जर्मनी, स्कॉट्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशों में एक-एक साल बिताने के बाद १९०५ में कामा लन्दन पहुँची। एक ऑपरेशन (शल्यक्रिया) के बाद उस में शक्ति और स्फूर्ति लौट आई। भारत के एक मान्यवर नेता दादाभाई नौरोजी उस समय लन्दन में थे। उनके निजी सचिव के रूप में डेढ़ साल काम करने तक मैडम कामा कई देश-भक्तों और विद्वानों के सम्पर्क में आ गई थी।

वह अगस्त १९०७ का तीसरा सप्ताह था। मैडम कामा को पता चला कि जर्मनी स्थित स्टुटगर्ट में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन का आयोजन है। गुलाम भारत की दु:स्थिति का विश्वजनमत के सम्मुख पर्दाफाश करने का मैडम कामा के लिये यह सुनहरा मौका था। विश्व के अनेक देशों के एक हजार प्रतिनिधि सम्मलेन में भाग ले रहे थे। भारत की बारी आने पर मैडम कामा मंच पर चढ़ी। उसने रंगीन साड़ी पहनी हुई थी। श्रेष्ठता की आभा से उसका मुखमंडल दमक रहा था। प्रतिनिधियों को लगा यह तो भारत की राज-कन्या है। 'मानवजाति का पाँचवा हिस्सा भारत में बसता है। स्वतंत्रताप्रेमी सभी को इन्हें गुलामी से छुड़ाने में योगदान देना चाहिए।' साहस के साथ सम्मलेन में रखे उस प्रस्ताव का यह आशय था। अंग्रेज सरकार का धिक्कार करते हुए उसने कहा कि वे प्रतिवर्ष भारत से साढ़े तीन करोड़ रुपया लूट रहे हैं। उसने स्पष्ट किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था अंग्रेज साम्राज्यवादियों द्वारा हो रहे शोषण के कारण दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। भाषण के अंत में उसने भारतीय झंडा फहराते हुए कहा- 'भारतीय स्वतंत्रता का यह झंडा है। देखो, यह आ गया है। जीवन का बलिदान करने-वाले तरुणों के खून से यह पावन हुआ है। मैं आपको आवाहन करती हूँ। सज्जनों, उठो और भारतीय स्वतंत्रता के इस झंडे को प्रणाम करो। इस झंडे के नाम पर मैं समस्त विश्व के स्वतंत्रताप्रेमियों से प्रार्थना करती हूँ कि इस झंडे को स्वतंत्र कराने में वे सहयोग करें। '

सारा श्रोतृवृंद मंत्रमुग्ध हो उठ खड़ा हुआ और उन्होंने झंडे का सम्मान के साथ अभिवादन किया। मैडम कामा वह महिला थी जिसने विदेश की भूमि पर, अनेक देशों के प्रतिनिधियों के बीच भारत का झंडा सर्वप्रथम फहराया। 'अपने देश के झंडे तले बोलने की मेरी परिपाटी है', यह कहते हुए वह किसी समारोह में बोलने से पहले, झंडा फहरा देती।

यह पावन झंडा

मैडम कामा, वीर सावरकर और कुछ अन्य देशभक्तों ने मिलकर सन १९०५ में तिरंगे झंडे का प्रारूप तैयार किया। सर्वप्रथम बर्लिन में १९०५ में और बाद में बंगाल में १९०७ को झंडा फहराया गया। तिरंगे झंडे में तीन रंग के पट्टों-हरा, केसरी व लाल का - समावेश था। सब से उपर हरे रंग के पट्टे में आठ खिलते हुए कमल अंकित थे। भारत के तत्कालीन आठ प्रदेशों के ये आठ कमल प्रतीक थे। बीच के केशरी पट्टे पर देवनागरी लिपि में 'वन्दे-मातरम' ये शब्द भारतमाता के अभिवादन स्वरुप अंकित थे। सबसे नीचे लाल पट्टे में दाहिनी तरफ अर्धचन्द्र एवं बायीं तरफ उगता सूरज चित्रित था। लाल रंग बल, केशरी रंग विजय और हरा रंग साहस तथा उत्साह दर्शाता है। मैडम कामा ने बताया: 'इस झंडे का प्रारूप एक सुविख्यात, नि:स्वार्थ, युवा भारतीय देशभक्त ने बनाया था।' उसका संकेत वीर सावरकर की ओर था।

अमरीका में

जर्मनी में हुए सम्मलेन के समापन के बाद वह अमरीका आई। जिस पावन कार्य में वह लगी हुई थी उसके लिये वहाँ के लोगों का समर्थन जुटाने हेतु उसे अभियान शुरू करना पड़ा। न्यूयार्क में उससे मिलने आए पत्रकारों को उसने अपने उद्देश्यों से अवगत कराया। मैडम कामा को सुन कर पत्रकारों ने उस की बहुत प्रशंसा की। उसने संवाददाताओं को बताया कि भारत के लाख-लाख लोग अपढ़ और भूखे रहते हुए भी अपने देश से प्यार करते हैं। अदम्य विश्वास और अटूट आशा से दनदनाती हुई आवाज में मैडम कामा ने कहा- चन्द वर्षों में ही भारतीय लोग आजादी हासिल कर के रहेंगे और स्वतंत्रता, समता एवं बंधुता के साथ जियेंगे।

२८ अक्टूबर १९०७ का वह दिन। मिनर्वा क्लब द्वरा वालडोर्फ होटल में एक सभा आयोजित थी। वक्ता थी मैडम कामा। अपने भाषण में कामा ने पुरजोर माँग की कि भारतीय लोगों को मतदान का राजकीय अधिकार मिलना चाहिए। अपने जोरदार भाषण में मैडम कामा ने कहा: "यहाँ के लोग रूस के बारे में जानते होंगे, परंतु भारत की दु:स्थिति के संबंध में वे ठीक से नहीं जानते होंगे। भारत में अंग्रेजी हुकूमत, पढ़े-लिखे और विचार कर सकने वाले लोगों का सफाया करने में तुली हुई है। यातनाएँ दे कर उन्हें जेलों व अस्पतालों में ठूँसा जा रहा है। हम रक्त - लांछित क्रांति नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण स्थिति चाहते हैं। जहाँ तक संभव हो अहिंसा के मार्ग से हम इस जुल्मी तानाशाही की जड़ें उखड़ फैंकना चाहते है।" अमरीका में मैडम कामा ने स्थान स्थान पर भाषण दिये। उसे वहाँ भारत माँ का दूत कहा जा सकता है।

आगे बढ़ो, मित्र

१९०८ में लंदन लौट कर वहाँ इंडिया हाउस में एक सभा मैडम कामा ने संबोधित की। उसका यह भाषण छोटी पुस्तिकाओं में प्रकाशित किया गया। इस पुस्तिका की प्रतियाँ बड़ी तादाद में भारत पहुँच गईं। इस पुस्तिका में क्रांति के मौलिक सिद्धांतों का संक्षेप सार था। माना कि अहिंसा एक महान सदगुण है परंतु यदि कोई अनुचित ढँग से बलप्रयोग करता है, तो उसका प्रतिकार होना ही चाहिए। हिंसा का जवाब हिंसा से - यही नीति जुल्मी सत्ता के साथ अपनानी चाहिए। इस सिद्धांत के तहत की जानेवाली हर कृति सही है। देशभक्ति का अर्थ है विदेशी सरकार के खिलाफ जबरदस्त संगठित विद्रोह ! यह सब स्पष्ट करते हुए मैडम कामा कहती; देश के प्रति समर्पित होने में ही जीवन की सार्थकताहै।

देश की युवा शक्ति को संदेश देते हुए मैडम कामा ने कहा, आगे बढ़ो मित्र आगे बढ़ो। माँ भारती के शिशु अँग्रेजों के पैरों तले रौंदे जा रहे हैं। उन्हें स्वाराज की सुखद शैय्या की ओर बढ़ाओ। दादाभाई नौरोजी की निजी सचिव के रूप में कार्य करते हुए मैडम कामा ने कई स्थानों पर भाषण दिये थे। भारत की आज़ादी के लिये लड़ने वाली तूफानी वक्ता के रूप में वे प्रसिद्ध हो चुकी थीं। अंग्रेज सत्ताधीश भयभीत थे कि मैडम कामा की कीर्ति फैलने के साथ उनकी तकलीफें बढ़ जाएँगी। अतः डरा धमकाकर उसे लंदन छोड़ने के लिये मजबूर करने की अंग्रेज सत्ता ने कोशिश की। मैडम कामा ने सरकार का कड़ा विरोध किया। लेकिन कुछ अंग्रेज अधिकारियों द्वारा उस की हत्या के प्रयत्नों के बाद उसने गुप्त रूप से इंगलैंड छोड़ दिया और इंगलिश खाड़ी को पार कर फ्रांस पहुँची जहाँ फ्रांसीसी साम्यवादियों ने उसका हार्दिक स्वागत किया।

भारत जाओ, मत जाओ !

फ़्रांस में जिस मकान में मैडम कामा रहती थी, वह शीध्र ही विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों के मिलन का गुप्त किला बन गया। भारत के 'सेनापति' बापट व हेमचन्द्र दास के अलावा रुसी क्रांति के जनक लेनिन एवं अन्य लोगों ने वहाँ जा कर विचारों का आदान-प्रदान किया। स्वतंत्रता के बहादुर सेनानी सावरकर से कामा को असीम मानसिक शांति और प्रेरणा मिली। फ़्रांस में कामा के कार्यकलापों से अंग्रेज सरकार बेतरह परेशान थी। अत: उन्होंने कामा से प्रार्थना की कि वह भारत लौट जाय। अंग्रेज सरकार ने फ्रेंच सरकार से भी प्रार्थना की कि कामा को वह स्वदेश वापिस भेज दे। परंतु मैडम कामा ने भारत लौटने से साफ़ इन्कार कर दिया। फ्रेंच सरकार द्वारा भी कामा को भारत वापिस भेजने की बात अमान्य होने पर, अंग्रेज सरकार ने अपने को अपमानित महसूस किया। न मिलने वाले अंगूर को खट्टा कहने-वाली लोमड़ी की भाँति अंग्रेज शासन ने आदेश जारी किया कि मैडम कामा भविष्य में कभी भारत ना आए। बात यही समाप्त नहीं हुई अंग्रेजों ने मैडम कामा की १ लाख रु. से भी ऊपर मूल्य की संपत्ति पर कब्ज़ा कर उसे हड़प लिया।

खतरे की छाया में

इन घटनाओं से मैडम कामा का नाम और ज्यादा रोशन हो गया। उसके साहस और बहादुरी की कीर्ति अब उन देशों में भी फैल गई जहाँ वह गई नहीं थी। ये सब होने के बाद ही पहले आए उल्लेखानुसार 'स्टुटगर्ट' सम्मलेन हुआ था। तभी से वह अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में मान्य हो गई थी। जर्मनी से वह अमेरिका गई, अनेक सभा मंचों पर उस समय भारत की दु:स्थिति को उसने वाणी दी। १९०८ में वह लंदन लौट गई। तब तक वहाँ का 'इंडिया हाउस' भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हवन कुंड बन चुका था। श्यामजी कृष्णवर्मा, सरदारसिंह राना और अन्य क्रांतिकारी क्रांति की आग को प्रज्वलित कर चुके थे। लंदन में मैडम कामा ने क्रांति-कार्य सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित ढँग से चलाया। वह आयरलैंड, रूस, मिश्र व जर्मनी के राष्ट्रवादियों के बराबर संपर्क में रही। क्रिसमस की आड़ में वह क्रांतिकारियों को खिलौने जैसे दिखनेवाले पिस्तौल भेंट करती। कामा उन्हें पैसे की मदद भी करती।

लंदन में क्रांतिकारियों की हलचल बढ़ने के साथ उनके पीछे गुप्तचरों की तकलीफ भी बढ़ गई। आखिर लंदन छोड़ने के सिवा उनके सामने कोई चारा नहीं रहा। श्यामजी कृष्ण-वर्मा, सरदारसिंह राना और अन्य लोग पेरिस आ गए। साहसपूर्ण कारनामों के कारण मैडम कामा के नाम से लंदन का हर घर परिचित व रोमांचित हो गया। अंग्रेज सरकार यह सोचकर भयभीत हो गई कि यह विप्लवी महिला उन्हें उखाड़ फेंकेगी। सरकार के गुप्तचर उसका परछाईं की तरह पीछा करने लगे। परिस्थिति इतनी विस्फोटक हो गई थी कि किसी भी समय उद्रेक हो सकता था। मैडम कामा ने फैसला कर लिया कि लंदन छोड़ कर पेरिस जाना ही सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर है। १ मई १९०९ को वह पेरिस पहुँच गई।

आजादी के लिये जूझ रहे देशभक्तों को भारी संख्या में विदेशों में बस जाने के लिये विवश कर दिया गया था। ये सब लोग पेरिस में एकत्रित होने लगे। मैडम कामा भी उनके गुट में शामिल हो गई। जा इतने सारे क्रांतिकारी एक स्थान पर इकट्ठे होंगे तो स्वाभाविकतया कुछ असामान्य घटित होगा ही! अत: एक क्रन्तिकारी पत्रिका - 'वन्दे-मातरम' शुरू हो गई। पत्रिका के संपादक की जिम्मेदारी सम्हालने के लिये एक सुयोग्य व्यक्ति कीजरूरत थी। यह निर्णय किया गया कि ज्येष्ठ और निडर क्रांतिकारी लाला हरदयाल को संपादक नियुक्त किया जाय। इस हेतु इंग्लैण्ड से फ़्रांस आना हरदयाल ने सहर्ष स्वीकार किया। प्रथम अंक की प्रथम चिनगारियाँ सितम्बर १९०९ में प्रकाशमान हुईं। प्रकाशन और वितरण का भार सम्हालते हुए मैडम कामा को काम के लिये दिन के २४ घंट भी कम पड़ने लगे।

विभिन्न कार्यकलापों में व्यस्त रहने के बावजूद कामा को लगता कि वह कम ही काम कर रही है। उसके रक्त की हर बूँद की ताकत माँ - भारती के चरणों में समर्पित थी। 'वन्दे-मातरम' के अतिरिक्त 'मदन की तलवार' नाम से एक और पत्रिका क्रांति की ज्वाला फैलाने के लिये प्रारम्भ की गई। देश के स्वतंत्रता-यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देनेवाले मदनलाल धींगड़ा की अमर स्मृति में यह पत्रिका निकाली गई थी। इसका प्रकाशन बर्लिन से मैडम कामा कर रहीं थी। इसी समय वीर सावरकर मैडम कामा के घर आ गए। लगातार कड़े काम करने से सावरकर का स्वास्थ्य गिर गया था। अत: अपना स्वास्थ्य सुधरने हेतु सावरकर पेरिस आए थे।

अंग्रेज सरकार संभ्रम में

मैडम कामा ने सावरकर की इतनी अच्छी देखभाल और सेवा की कि बहुत जल्द ही उन्हें स्वास्थ्य - लाभ हो गया। सावरकर को श्यामजी, राना, हरदयाल, वीरेंद्रनाथ आदि की भी अच्छी मदद मिली। 'वन्दे मातरम' और 'मदन की तलवार' में लेख लिखने का भी उन्हें अच्छा अवकाश मिला। वहाँ के भारतीयों से संपर्क जोड़ उन्हें संगठित करने का और भारत में हथियार भेजने का धड़ाके से चलता रहा। जनवरी से अगस्त १९१० तक वन्दे- मातरम के अंक गुप्त रूप से जिनेवा में प्रकाशित होते रहे। अत: जिनेवा ने अंग्रेज सरकार का ध्यान आकर्षित कर लिया। प्रकाशन का स्थल इसीलिए तुरंत हट कर हॉलैण्ड में हो गया।

सन १९१२ का मई का महीना था। ऑक्सफर्ड से चुपके से वन्दे-मातरम के अंक भारत भेजने की सारी योजना और प्रयास विफल हो गए। भारत के विभिन्न हिस्सों में क्रान्तिकारियों के बीच वितरित होनेवाले 'वन्दे-मातरम' के अंक एवं अन्य पर्चे अंग्रेज सरकार के हाथ में पड़ गए। क्रांतिकारी लेखन को छापने से भी कठिन काम छपे अंकों को गुप्त रूप से भेजने का रहता है। ऐसी विकट स्थितियों में भी 'वन्दे-मातरम ' के अंक भारतीय स्वतंत्रता - सेनानियों को बराबर मिलते रहे। क्रांतिकारी साहित्य के भारत में गुप्त प्रवेश को रोकने में अंग्रेज सरकार अपने को असमर्थ पा रही थी। अंग्रेज अधिकारी समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें।

३० मई १९१३ को अंग्रेज सरकार के भारत मंत्री (भारतीय मामलों के लिये नियुक्त) को एक शिकायत प्राप्त हुई। शिमला स्थित अपराध - जाँच शाखा निदेशक की यह शिकायत थी। 'वन्दे-मातरम' के हॉलैण्ड में हो रहे प्रकाशन के विरोध में हॉलैण्ड सरकार से शिकायत करने का सुझाव अंग्रेज सरकार को निदेशक महोदय ने दिया था। ३ सप्ताहों तक अंग्रेज सरकार इस मामले पर विचार करती रही। अंत में यह सोच कर कि हॉलैण्ड सरकार मैडम कामा के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करेगी और शिकायत बेकार जाएगी, इस बारे में कुछ न करने का अंग्रेज सरकार ने निर्णय किया।

अनेक मोर्चों पर संघर्ष

विदेश में रहते हुए भी मैडम कामा का भारतीय जनमानस पर प्रभाव कम नहीं हुआ। लाला लाजपत राय बहादुरी से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे। १९०७ में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों ने देश से निकाल दिया। इस अन्यायकारक निर्णय के खिलाफ मैडम कामा के आवाहन से भारतीय क्रांतिकारियों का खून खौल गया था। सब जगह लोग विद्रोह कर उठे। अंग्रेजी जहाजों में भारत से बाहर भेजे जानेवाले क्रांतिकारियों की संख्या बढ़ गई। मैडम कामा का कार्य, भाषण एवं आवाहन तक ही सीमित नहीं था। भारतीय क्रांतिकारियों को बम बनाना भी उसने सिखाया। श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा सम्पादित 'इंडियन सोशलाजिस्ट' के माध्यम से जैसे ही मैडम कामा का आवाहन भारत पहुँचा, देश के कई हिस्सों में बम विस्फोट हुए। मैडम कामा गुप्त रूप से शस्त्र और पैसा भारत भेजती थी। १९०८ में सावरकर ने 'स्वतंत्रता के प्रथम भारतीय संग्राम' की स्वर्ण जयंती आयोजित की थी। इस अवसर पर १८५७ के समर में जान गवायें लोगों के परिवारों की मदद - हेतु मैडम कामा ने उदारतापूर्वक धन भेजा। '१८५७ का भारतीय स्वतंत्रता - संग्राम का पहला युद्ध' नाम से सावरकर ने पुस्तक लिखी। छपने से पहले ही अंग्रेज सरकार ने उसके प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी। ऐसे विपरीत समय में आगे आकर मैडम कामा ने वह पुस्तक प्रकाशित कराई। वितरण की ऐसी गुप्त पद्धति उसने अपनाई कि अंक सही हाथों में ही पड़ें। भारतीय क्रांतिकारियों के लिये यह पुस्तक रामायण और महाभारत जैसी पवित्र बन गई। मैडम कामा एवं पी.टी. आचार्य ने इस किताब का अंग्रेजी से फ्रेंच में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया। बाद में लाला हरदयाल, सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह व अन्य क्रांतिकारियों ने इस पुस्तक का पुनः मुद्रण कराया।

मिस्र का अर्धांग कहाँ

मैडम कामा का मत था कि राष्ट्र की प्रगति में महिलाओं कीभूमिका महत्त्वपूर्ण रहती है, अत: सभी कठिनाइयों , जिम्मेदारियों में महिलाओं को अपना हिस्सा बँटाना चाहिए। मिस्र में १९१० में राष्ट्रीय सम्मलेन में बोलते हुए मैडम कामा ने कहा,
"यहाँ मिस्र के आधे हिस्से मात्र के प्रतिनिधि दिखाई दे रहे हैं| सम्मलेन केवल पुरुषों से ही भरा हुआ है। मिस्र का दूसरा अर्धांग किधर है ?"
"इजिप्त - पुत्रों, आपकी माताएँ कहाँ हैं ? आपकी बहनें कहाँ हैं ? याद रखो, जिन हाथों में झूले की डोरी होती है उन हाथों से व्यक्तित्व ढलता है। मत भूलो कि राष्ट्रनिर्माण में स्त्रियों की भूमिका महत्त्व रखती है।"

इस महायुद्ध का बहिष्कार करो

अंग्रेजों के लिये लड़नेवाले भारतीय सैनिकों को चेतावनी देते हुए मैडम कामा ने कहा, "भारत माँ के बच्चों, तुम्हारे साथ धोखा किया जा रहा है। इस युद्ध में हिस्सा मत लो। युद्ध में लड़ते हुए तुम मरने जा रहे हो परंतु भारत के लिये नहीं, इंग्लैण्ड के लिये। भारत माँ के हाथों में इन्हीं अंग्रेजों ने बेडियाँ डाल रक्खी हैं। सोचो यह कि ये हथकड़ियाँ कैसे हटाई जाएँ। अंग्रेजों की मदद करने का मतलब है ये बेडियाँ और कसना।"
मार्सेलीज की सैनिक छावनियों में जाकर वह स्वयं सैनिकों से भेंट करती। वहाँ भारतीय सैनिकों से मिल कर वह उन्हें युद्ध से दूर रहने का आवाहन करती। हथियार लौटाने का उनसे आग्रह करती हुई वह पूछती :" क्या तुम उनके लिये लड़ोगे जिन्होंने तुम्हारी भारत - माँ को कैद किया है ? "
फ़्रांस, इंग्लैण्ड का युद्ध सहयोगी था। अत: मैडम कामा के प्रचार - अभियान पर फ़्रांस सरकार की नाराजगी स्वाभाविक थी। फ्रेंच सरकार ने मैडम कामा को चेतावनी दी कि वह अंग्रेजों के खिलाफ 'झूठा' प्रचार बंद कर दे।

लाइसेंस

विदेश में रह कर भी मैडम कामा की ब्रिटिश सरकार के विरुद्धक कार्यवाहियाँ जारी थीं। उन पर नियंत्रण न कर पाने से अंग्रेज सरकार शर्मिंदा थी। अत: उसे भारत में लाकर कड़े नियंत्रण में रखने का उन्होंने विचार किया। मैडम कामा पर भारत आने की अपने ही पाबंदी हटा कर अंग्रेज सरकार ने उसे पुन: भारत आमंत्रित किया। परंतु उसे भेजने हेतु फ्रेंच सरकार राजी नहीं हुई। बाद में बाद में कुछ प्रतिबंधों के साथ फ्रांस सरकार ने उन्हें पेरिस से बाहर रहने की स्वीकृति दे दी। युद्ध आरम्भ होने पर किसी विदेशी को पेरिस में रहने की अनुमति नहीं थी। किसी विदेशी को वहाँ रहना ही होता, तो उस के लिये लाइसेंस आवश्यक था।

मैडम कामा को जारी किये गए लाइसेंस में उसका उल्लेख 'अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित नागरिक' इस प्रकार किया गया था। इस उल्लेख से मैडम कामा को अचरज हुआ और उसने घोषणा की कि वह भारत की स्वतंत्र नागरिक है। बाद में यह देख कर कि लाइसेंस में परिवर्तन कठिन है और जिनको लाइसेंस नहीं मिला वो जेल भेज दिए गए, कामा ने प्राप्त लाइसेंस में ही संतोष कर लिया। लाइसेंस में चाहे कुछ भी लिखा हो, परंतु वह वहाँ रह तो सकती थी। उसने सोचा यहाँ रहते हुए मेरी गतिविधियाँ चलती रहें, यही काफी है। फ्रेंच सरकार का नया निर्णय सूचित करते हुए मैडम कामा को ताकीद की गई कि युद्ध समाप्त होने तक वह अपनी सब गतिविधियाँ बंद रखें। १ नवम्बर १९१४ को मैडम कामा पर कुछ और बंधन लादे गए। अब उसे सप्ताह में एक बार पुलिस के समक्ष हाजरी देनी पड़ती। जिनेवा में युद्धबंदियों कीहालत जानने की मैडम कामा ने बहुत कोशिश की किन्तु फ्रेच सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। युद्ध ख़त्म होने तक मैडम कामा भी एक प्रकार से कैद का अनुभव कर रही थी।

युद्ध समाप्ति पर सरकार ने उस पर लगाए प्रतिबन्ध हटा लिये। मैडम कामा पेरिस लौट आई। पहले जैसी आजादी से वह पुन: राजनैतिक गतिविधि में संलग्न हो गई। मैडम कामा की महिमा दूर देशों तक फैल गई और उसका नाम साहस का पर्याय माना जाने लगा। सभी ओर के स्वतंत्रता - प्रेमी क्रांतिकारियोंने उसे आदर की दृष्टि से देखा। इस शूर महिला की चीन, मिस्र, तुर्की और इरान में असीम प्रशंसा हुई। इन देशों के क्रांतिकारी मैडम कामा के पास मदद और मार्गदर्शन के लिये आया करते थे। मैडम कामा का स्वास्थ्य अब बीच-बीच में बिगड़ने लगा। क्रांति कार्य में ही सदा व्यग्र रहने से अपनी तबियत पर कामा ने कभी ध्यान नहीं दिया था। प्रथम विश्व - युद्ध के बाद भी कई वर्षों तक स्वतंत्रता का संघर्ष चलता रहा। कामा का शरीर अब थक कर कमजोर हो गया था और उम्र ७० को पार कर गई थी।

प्रिय मातृदेश को वापसी

जीवन के अंतिम कुछ दिन अपनी जन्मभूमि में बिताने की कामा की तीव्र इच्छा हुई। भारत में प्रवेश हेतु अंग्रेज सरकार की अनुमति आवश्यक थी। सर कावसजी जहाँगीर ने इस पर गृह - विभाग से पूछताछ की। काफी लम्बी बहस के बाद, अंत में सरकार मान गई। परंतु सरकार ने एक शर्त लाद दी; लिखित रूप से मैडम कामा यह कहे की आजादी के संघर्ष में वह भाग नहीं लेगी। क्रांतिकारियों से वह कोई सरोकार नहीं रखेगी।

बंधन या शर्तें मानना उसके स्वभाव में नहीं था। अत: कामा ने यह शर्त मानने से इंकार कर दिया। आखिर मित्रों व् संबंधियों के आग्रह और दबाव में उसे राजी होना पड़ा। ३४ वर्ष पूर्व युवा मैडम कामा ने भारत छोड़ा था। जवानी और प्रौढ़ उम्र मातृभूमि को आजाद करने के संघर्ष में बीत गई। यद्यपि उसका शरीर अब ७० वर्ष का हो गया था, फिर भी मन में आजादी व संघर्ष की अदम्य आकांक्षा का वही स्पंदन था। इस अवस्था में मातृभूमि की ओर सफ़र शुरू हुआ। भारत के करीब पहुँचते-पहुँचते वह बीमार हो गई। बिस्तर से उठने की ताकत भी उसमें नहीं रही।

मातृभूमि से एकाकार

अपने जन्मस्थान बम्बई पहुँचते ही उसे अपार हर्ष हुआ। बम्बई बंदरगाह से उसे सीधे पेटिट अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में आठ महीनों तक जीवन और मृत्यु के बीच झूजती रही। १३ अगस्त १९३६ को इस महान वीरांगना का देहांत हो गया। जिस स्वतंत्रता के लिये उसने अपना जीवन होम कर दिया था वह स्वतंत्रता उसकी मृत्यु के ११ वर्ष बाद प्राप्त हो सकी।

अंतिम आवाहन : दमन से संघर्ष करते रहो

चमक दमक से दूर विदेश में कठिन जीवन जीते हुए मैडम कामा ने भारत के आजादी की लड़ाई लड़ी। मातृभूमि के लिये उसने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह बार-बार आवाहन करती- "पराधीनता से मुक्ति पाने के लिये हर कठिनाई से प्रबल मुकाबला करो। अपनी आजादी खोने का मतलब है सब सदगुणों को खो देना। अत्याचार और दमन से जूझने और संघर्ष करने का मतलब है ईश्वर की आज्ञा का पालन करना।"

२२ अक्तूबर २०१२