अमर कहानी

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
रामप्रसाद


२२ वर्ष और ७ माह की अल्पायु में भी अपनी बुद्धि, अपने शौर्य और अपने असाधारण कौशल से अमर हो गई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इतिहास के उन प्रकाशमान नक्षत्रों में प्रमुख हैं जिनकी प्रेरणा आज भी सहस्त्रों हृदयों को मार्गदर्शन करती हैं। उसी रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी प्रस्तुत है।


वीर बाला

वर्षा ऋतु के पश्चात की वह एक सायंकाल थी। बिठुर के बाहर सड़क पर, गंगा नदी के किनारे – किनारे तीन घुड़सवार तेजी से जा रहे थे। दो घोड़ों पर दो नवयुवक सवार थे और तीसरे पर थी एक बालिका। जब एक नवयुवक ने अपना घोडा आगे बढ़ा लिया तो उस बालिका ने अपने घोड़े की रफ्तार तेज की और वह आगे बढ़ गई। वह नवयुवक इस पराजय को स्वीकार करनेवाला नहीं था। उसने भी उस बालिका से आगे बढ़ने का प्रयास किया, किन्तु उसका घोडा ठोकर खाकर गिरा और वह भी गिर पड़ा।
“ओ मनु, मैं मर गया। ”
बालिका ने जब यह आवाज सुनी तो उसने अपना घोडा मोड़ा। नवयुवक को चोट आ गई थी। उसके शरीर से खून बह रहा था। बड़ी कठिनाई के साथ उसने उसे उठाया और अपने घोड़े पर बैठाया। इस समय तक दूसरा घुड़सवार भी वहाँ पहुँच चुका था। तीनों महल की ओर लौट पड़े। जब घोडा बिना सवार के लौटा तो पेशवा बाजीराव द्वितीय बहुत परेशान हुए। मोरोपंत ने, जोकि उनके साथ थे, उन्हें समझाने का प्रयास किया। किन्तु उनकी बेचैनी कायम रही। जब उनके बच्चे लौट आए तब कहीं उन्होने राहत की सांस ली। वह घायल नवयुवक था बाजीराव का गोद लिया हुआ पुत्र नानासाहेब, और उसका साथी था, उसका छोटा भाई रावसाहेब। और बालिका थी पेशवा के सलाहकारमण्डल के एक सदस्य मोरोपंत की इकलौती पुत्री मनुबाई।

जब वे घर लौटे तो मोरोपंत ने कहा : “मनु, नाना गंभीर रूप से घायल हो गए हैं?”
“नहीं पिताजी, उन्हें तो मामूली चोट आई है। अभिमन्यु तो जब गंभीर रूप से घायल हो गया, तब भी लड़ता रहा था।”
“बेटा, वह जमाना अलग ही था, ”मोरोपंत ने कहा। “फर्क क्या है, पिताजी? वही नीला आकाश है, वही पृथ्वी है। सूर्य और चन्द्र भी तो वही है ?”
“परंतु मनु देश का भाग्य बदल गया है। यह ब्रिटिश युग है। हम उनके समक्ष शक्तिहीन हैं।”
पिता की बात पुत्री को नही भायी। पिता ने स्वयं सती सीता, माता जीजाबाई, वीरांगना ताराबाई की जीवनी के आदर्श उसके सामने रखे थे। उसी बिठुर नगर में एक और घटना घटी। एक दिन नाना साहेब और रावसाहेब हाथी पर सवारी कर रहे थे। बाजीराव मनुबाई को उनके साथ भेजना चाहता था। मनु की भी यही इच्छा थी। किन्तु उनकी इच्छा पूरी नही हुई। नाना साहेब ने महावत से आगे बढ़ने के लिए कहा। मनु निराश हो गई।
जब वे घर वापिस आए तो पिता ने पुत्री से कहा, “ मनु, हमें समय के साथ चलना चाहिए। क्या हम राजा हैं जो हाथी पर चलें ? हमें ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए जो हमारे भाग्य में नहीं।”
मनु ने उत्तर दिया “ पिताजी, मेरे भाग्य में एक नहीं अनेक हाथी हैं। ”
“ऐसा ही हो बेटी”, मोरोपंत ने गदगद हो कहा।
“पिताजी, मैं अब राइफल से गोली चलाने का अभ्यास करूँगी, ”यह कहते हुए वह चली गई।
मोरोपंत यह देखकर बहुत परेशान थे कि मनु में पुरुषोचित गुण हैं।

बालिका का जन्म और विवाह

बाजीराव द्वितीय केवल नाम के पेशवा थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी उन्हें प्रतिवर्ष आठ लाख रुपए पेंशन दे रही थी और उन्हें बिठुर की जागीर दी गई थी।
मोरोपंत की पत्नी का नाम भागीरथीबाई था। वह सुंदर, सुसंस्कृत, विदुषी और धार्मिक वृत्ति की थी। मनु इसी आदर्श दंपत्ति की पुत्री थी। कार्तिक द्वितीया (१९, नवंबर १८३५) को जन्मी यह बच्ची अपनी माता के समान ही सुंदर थी। उसका भाल विशाल था। आँखें भी बड़ी थीं। उसके चेहरे से राज तेज प्रकट हो रहा था। मनु जब ४ वर्ष की थी, उसकी माता का देहांत हो गया। पुत्री के पालन-पोषण का संपूर्ण भार पिता पर आ पड़ा। औपचारिक शिक्षा के साथ ही उसने तलवार चलाने, घुड़सवारी करने तथा बँदूक चलाएँ का प्रशिक्षण प्राप्त किया। सन १८४२ में झाँसी के महाराजा गंगाधरराव के साथ उसका विवाह हुआ। गरीब ब्राहम्ण की बालिका झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई बन गई।

वह युग १९ शताब्दी की शुरुवात थी। अंग्रेजों ने, जो भारत में व्यापार करने आए थे, ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पर तेजी से राजनैतिक सत्ता हथियाना प्रारम्भ कर दिया था। भारतीय राजाओं और महाराजाओं ने, जो कि परस्पर झगड़ों में उलझे हुए थे, अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनने में एक–दूसरे से होड़ लगी थी। भारत की दृष्टि से हो रही प्रत्येक दुर्भाग्यपूर्ण घटना उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में सहायक हो रही थी।

सत्ता का ह्रास

अंग्रेजों द्वारा अंतिम पेशवा को सत्ता से हटा देने के बाद उन्हें अभिमान हो गया था। उन्होने मुगल सम्राट की भी उपेक्षा की। एक ओर स्वतन्त्रता को नष्ट करने का निश्चित प्रयास चल रहा था तो दूसरी ओर गुलामी से मुक्ति के लिए प्रयास किए जा रहे थे। स्वातंत्र्यप्रेम को कतई दबाया नहीं जा सकता। उसे जितना ही दबाया जाता है, वह उतना ही प्रबल हो जाता है। एक ओर राजाओं के ताज लड़खड़ा रहे थे, कंपनी सरकार द्वारा लादी गई अपमानास्पद शर्तों को राजा स्वीकार कर रहे थे और उनकी रियासतों को संरक्षित राज्य बनाया जा रहा था, तो दूसरी ओर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फ़ेंकने और देश की स्वतन्त्रता तथा सम्मान की रक्षा करने की इच्छा दृढ़ होती जा रही थी। किन्तु बाहर से शांति दिखाई देती थी। सब कुछ गुप्त रूप से किया जा रहा था। देश उस ज्वालामुखी के समान था, जोकि लावा उगलने के पूर्व असाधारण रूप से शांत नजर आता है।

झाँसी की कहानी

झाँसी उत्तरप्रदेश का एक जिला -केंद्र है। अंग्रेजों तथा झाँसी के राजा के बीच जो संधि थी हुई थी उसकी दो शर्तें थी। प्रथम यह कि जब कभी अंग्रेजों को सहायता की आवश्यकता होगी, झाँसी उसकी सहायता करेगा। दूसरी यह कि झाँसी का शासक कौन हो, यह निश्चित करने के लिए अंग्रेजों की स्वीकृति आवश्यक है। इस प्रकार पूर्ण बरबादी के बीज बो दिए गए थे। सन १८३८ में अंग्रेजों ने गंगाधरराव को झाँसी का राजा नियुक्त किया। भूतपूर्व राजा रघुनाथराव के काल में राजकोष खाली हो चुका था। प्रशासन रहा ही नहीं था और जनता को कोई स्थान नहीं रह पाया था। गंगाधरराव ने बागडोर संभालते ही राज्यशासन को सुस्थिर किया। महल में अब गोधन, हाथी और घोड़े अच्छी संख्या में आ गए। शस्त्रागार में शस्त्रों तथा गोला –बारूद का विपुल भंडार हो गया। सेना में ५ हजार सैनिकों की थल सेना और ५०० घुड़सवार थे। इनके साथ ही तोपखाना भी था। किन्तु राज्य में ब्रिटिश सेना भी मौजूद थी। केवल सेना पर खजाने से २२ लाख ७ हजार रुपए खर्च किए जाते थे।

गंभीर आघात

१८५१ में महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। किन्तु भाग्य क्रूर था। ३ माह के अंदर ही बच्चे की मृत्यु हो गई। गंगाधरराव को राज्य के भविष्य की चिंता हो गई। इसके कारण उन्हें मानसिक विकार हो गया। उनके दुख का एक कारण और था। वह था तत्कालीन गवर्नर – जनरल लार्ड डलहौजी का क्रूर शासन। जब कुछ राजाओं ने अंग्रेजों की सहायता स्वीकार कर ली थी तो बदले में उनपर एक शर्त लाद दी गई थी कि, यदि संतानहीन रहते हुए राजा की मृत्यु हो जायेगी तब वह राज्य अंग्रेज़ अपने हाथ में लेंगे। यहाँ तक कि कोई राजा लड़के को गोद लेता है तो उस लड़के को भी शासन करने का अधिकार नहीं होगा। इस प्रकार का था लार्ड डलहौजी का शासन। आश्रितों के लिए वार्षिक पेंशन निश्चित की जायेगी और राज्य के संरक्षण का पूर्ण उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार का होगा। यह नियम लागू कर अंग्रेजों ने अनेक राज्य हड़प लिए। अब झाँसी की बारी थी। महाराजा गंगाधरराव के लिए, जोकि वृद्ध थे, यह एक गंभीर आघात था। वे बीमार पड़ गए। १८५३ में महाराजा और लक्ष्मीबाई ने आनंद राव नामक बालक को गोद लेने का निश्चय किया। धार्मिक विधि के बाद गोद लिये बालक का नाम दामोदर राव रखा गया।

डलहौजी का कुटिल आदेश

समारोह समाप्त होने के पश्चात गंगाधरराव ने कंपनी को एक पत्र लिखा। उन्होने इस दत्तक-विधान के संबध में पूर्ण ब्यौरा दिया और कंपनी से अनुरोध किया कि गोद लिये हुए बालक को उनके उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी जाय। उन्होने सुझाव दिया कि दामोदरराव के वयस्क होने तक रानी लक्ष्मीबाई को उसके प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी जाय। महाराजा ने कंपनी तथा झाँसी के बीच मैत्री पूर्ण सम्बन्धों का कंपनी को स्मरण दिलाया। महाराजा ने मेजर एलिस को पत्र सौंप दिया और उसे लार्ड डलहौजी के पास पहुँचाने का अनुरोध किया।

गंगाधरराव ने मेजर से कहा था, “मेजर साहेब, मेरी रानी एक महिला है किन्तु उसमें ऐसे अनेक गुण हैं जो कि विश्व के श्रेष्ठतम पुरुषों में होने चाहिए।” जब वे बोल रहे थे तब अंजाने में ही उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे।
उन्होने कहा, “मेजर साहेब, कृपा कर यह ध्यान रखिये कि झाँसी किसी भी हालत में अनाथ न होने पावे।” कुछ दिनों के बाद २१, नवंबर १८५३, को गंगाधरराव का निधन हो गया। अनुभवशून्य १८ वर्षीय लक्ष्मीबाई विधवा हो गई। एक हिन्दू महिला- वह भी युवती और विधवा, अनेक रीति- रिवाजों से बँधी। इसके अतिरिक्त उस पर एक राज्य का उत्तरदायित्त्व जिसे कोई संरक्षण प्राप्त नहीं था। एक ओर डलहौजी राज्य को हड़पने की प्रतीक्षा में था, तो दूसरी ओर लक्ष्मीबाई के हाथों में नन्हा शिशु दामोदरराव - यह थी लक्ष्मीबाई की दीन अवस्था। उसकी समस्याएँ और दुख असीमित थे। महाराजा के प्रतिनिधित्व के लिए लक्ष्मीबाई ने अनेक याचिकाएँ डलहौजी को भेजी। ३ माह बीत गए, किन्तु कोई उत्तर नहीं आया। मार्च १८५४ का दुर्भाग्य का दिन आया। डलहौजी का आदेश पहुँचा।

उसमें लिखा था, उत्तराधिकारी को गोद लेने के स्वर्गीय महाराजा गंगाधरराव के अधिकार को कंपनी मान्यता नहीं देती। अत: झाँसी को ब्रिटिश प्रान्तों में विलीन करने का निश्चय किया गया है। रानी को किला खाली कर देना चाहिये और नगर में स्थित महल में रहना चाहिये। उसे ५ हजार रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी। पहले तो रानी इस पर विश्वास नहीं कर सकी। कुछ समय तक वह स्तंभित-सी रही। और फिर उसने कहा : “नहीं असंभव ! मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि ब्रिटिश शक्ति और उसकी चालाकी का विरोध करना झाँसी जैसे छोटे राज्य के लिए कितना कठिन था। विशेषकर ऐसे समय जबकि पेशवा अंग्रेजों के सामने झुके हुए थे। दिल्ली के बादशाह ने भी घुटने टेक दिए थे।
जब अंग्रेजों ने शासन का भार हाथ में ले लिया तो रानी की दिनचर्या बदल गई। प्रतिदिन प्रात:काल ४ बजे से ८ बजे तक का समय स्नान, पूजा, ध्यान और प्रार्थना में बीतता था। ८ से ११ बजे तक वह घुड़सवारी करती। बँदूक, तलवार तथा तीर चलाना सीखती। यह सब करते समय वह घोड़े की लगाम दांतों से दबाये रहती थी। इसके बाद वह पुन: स्नान करती।
भूखों को भोजन व गरीबों को भिक्षा देती और उसके बाद करती। भोजन के पश्चात वह थोड़ी देर विश्राम करती। इसके बाद वह रामायण का पाठ करती थी। सायंकाल वह हल्का व्यायाम करती बाद में कुछ धार्मिक पुस्तके पढ़ती और धर्मोपदेश ग्रहण करती। इसके बाद वह अपने इष्ट देव की आराधना करती। यह सब कुछ व्यवस्थित ढंग से और निश्चित समय के अनुसार होते।

विस्फोट के लिए तैयारी

जो लोग मूक रहकर अत्याचार तथा अन्याय सहन कराते हैं, वे जीवित रहकर भी मृतक के समान हैं। न्याय का सम्मान नैतिकता का गुण है और अन्याय के समक्ष झुकना कायरता। सरौते के बीच में आने पर सुपारी भी उछल पड़ती है। तेज दबाव पड़ने पर तोप का गोला फूट पड़ता है। पशु भी क्रूरता के विरुद्ध बदला लेने के लिए तैयार हो जाता है, यह सोचे बिना कि उसका परिणाम क्या होगा। वे सभी राजा जो पुत्र न होने के कारण अपने राज्य खो चुके थे, उनके परिवार के सदस्य, उनके आश्रित, उनकी बहंग हुई सेना के सैनिक, शुभचिंतक सभी असंतोष से उबाल रहे थे। तात्या टोपे, रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह और इसी प्रकार के अन्य स्वतन्त्रताप्रेमी गुप्त रूप से रानी लक्ष्मी बाई से मिलने आ रहे थे। वे अपने और जनता के असंतोष का ब्योरा रानी को देते थे। रानी लक्ष्मी बाई ने अपने राज्य की भौगोलिक स्थिति, सामरिक महत्त्व के क्षेत्रों तथा ब्रिटीशों के साथ लड़ाई में पंजाब में पंजाब की सीख सेना के गठन का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया था।

रानी जब घोड़े पर सवार होकर बाहर निकलती तो वह पुरुषों के समान वेश करती थी। वह धातु का टोप धारण करती थी जिसके ऊपर पगड़ी बँधी हुई होती थी। उसके सीने के निकट संरक्षण के लिए धातु की एक प्लेट बँधी हुई होती, वह पायजामा पहनती और ऊपर एक पटका बँधा रहता था। दोनों ओर वह पिस्तौल और छुरे लटकाए रहती थी। इसके अतिरिक्त वह अपने साथ कृपाण रखती थी। रानी को, जिसकी कि घुड़सवारी में अनोखी निपुड़ता थी, काठियावाड़ के श्वेत घोड़े अधिक पसंद थे। रानी अपने बाल खुले रखती थी। इसलिए टोप धारण करना और पगड़ी बांधना उसके लिए कठिन था। महाराष्ट्र की विधवाएँ अपना सिर मुंडा लेती हैं। रानी ने भी बनारस में अपना सिर मुंडा लेने का निश्चय किया। इसके अतिरिक्त देश के उस भाग में जाकर राजनैतिक स्थिति का अध्ययन करना भी उसका लक्ष्य था। किन्तु ब्रिटिश अधिकारियों उसे यात्रा की अनुमति नहीं दी। रानी ने शपथ ली, “देश को आजादी मिलने के बाद ही मैं अपने केश मुँडाऊँगी। अन्यथा यह काम श्मशान भूमि में ही हो सकता है।” असंतुष्ट नाना साहेब और राव साहेब, दिल्ली के राजा बहादुरशाह और अवध के नवाब के शुभचिंतक ये सभी मिलना चाहते थे। रानी के मन में भी यही विचार आए। किसी धार्मिक समारोह के अवसर पर ही यह सभी नेता मिल सकते थे।

संगठन

गोद लिया पुत्र दामोदर राव इस समय तक ६ वर्ष का हो चुका था और उसने ७वें वर्ष में प्रवेश किया था। उसका यज्ञोंपवीत संस्कार करने की व्यवस्थाएँ की गई। राज्य के ब्रिटिश अधिकारी को एक आवेदन पत्र भेजा गया। खजाने में दामोदरराव के नाम पर ६ लाख रुपए थे। आवेदन पत्र में धार्मिक समारोह के लिए एक लाख रुपए निकालने की अनुमति माँगी गई। ब्रिटिश अधिकारी ने कहा, “दामोदर राव अभी छोटे हैं, यदि ४ व्यक्ति जमानत देकर मुझे संतोष दिलाएँ तो राशि दी जाएगी। ”
रानी ने अपमान का घूँट पी लिया और राशि प्राप्त की। नेतागण धार्मिक समारोह के लिए एकत्र हुए। जब नेताओं की बैठक चल रही थी, महिलाएँ महल के चारों ओर कड़ी निगरानी रखे हुए थीं। नेताओं को कुछ सूचनाएँ मिली थी। ब्रिटिश सेना में हिन्दू सैनिकों में इस बात को लेकर रोष था कि तिलक लगवाने की उन्हें अनुमति नहीं थी। इसी प्रकार मुसलमानों में इस बात को लेकर रोष था कि उन्हें चर्बी मिश्रित गोलियों का उपयोग करने के लिए बाध्य किया जाता था।
सेना में गहन असंतोष व्याप्त था। जल्दबाज़ी अविवेकपूर्ण होती है। सेना भी इस समय पूर्णत: तैयार नहीं थी। इस बात का विश्वास दिलाना आवश्यक था कि युद्ध के दौरान लूटपाट और डकैती नहीं होगी। अन्यथा जनता की सहानुभूति समाप्त हो जाएगी। रानी की यह नीति थी। अन्य लोग भी इस पर सहमत हो गए।

विस्फोट

महिलाएँ भी गीतों, उत्सवों तथा मनोरंजन की कला के द्वारा सेना के शिविरों में असंतोष फैलाने में लग गईं। जो कुछ होता था, उसकी सूचना रानी को दी जाती थी। पूर्णिमा बीत चुकी थी। फरवरी में एक रात्रि को तात्या टोपे रानी से मिलने आया। तात्या टोपे अपने साथ एक पर्चा लाया था, जिसमें लिखा था, “अब अधिक क्षति उठाना असंभव है। सीने में भोंके गए छुरे को हम कब तक बरदाश्त कर सकते हैं। उठो और न्याय के लिए बलिदान देने को तैयार हो जाओ। कुछ निष्ठुर शासकों ने इस देश को गुलाम बना रखा है, उन्हें खदेड़ दो। देश को आजाद करो। अपना अधिकार प्राप्त करो।” रानी ने महसूस किया कि अभी समय उपयुक्त नहीं है। पर तात्या ने कहा कि, सेना में इतना तीव्र असंतोष है कि राशि जुटाना अधिक कठिन नहीं है और शस्त्र तथा गोलाबारूद तैयार हैं। यह निश्चय किया गया कि सम्पूर्ण देश में जनता, रविवार ३१ मई को विद्रोह करे। कमल का फूल विद्या की देवी सरस्वती और धन की देवी लक्ष्मी की महानता का प्रतीक है। इसी कमल को क्रान्ति का प्रतीक चुना गया। रोटी भी क्रान्ति का चिन्ह बन गई। क्रान्ति का संदेश फैलाने का तरीका यह था- एक नगर से भेजी जानेवाली रोटी दूसरे नगर में स्वीकार की जाएगी और उसके स्थान पर अन्य रोटी दूसरे नगर को भेजी जाती। किन्तु बैरकपुर में निर्धारित दिन के पूर्व ही उपद्रव भड़क उठा। १० मई को मेरठ में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। मेरठ और दिल्ली में भारतीय सेना मिल गई और उसने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार जमा लिया। बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित किया गया।

सिपाही- विद्रोह

ब्रिटिश शासकों ने अपने अनुकूल ढंग से जो इतिहास लिखा है उसमें उन्होने इसे “ सिपाही विद्रोह”की संज्ञा दी है। इससे यह धारणा बनती है, कि केवल सैनिकों ने विद्रोह में भाग लिया, अन्य लोगों ने नहीं। यह सत्य है कि सैनिकों ने जनता के इस युद्ध में अग्रणी भूमिका निभाई। किन्तु विद्रोह करनेवाले केवल सैनिक नहीं थे। न केवल राजा- महाराजाओं, सरदारों, पेशवा, नवाबों और दिल्ली के सम्राटों ने, बल्कि हिंदुओं, मुसलमानों, मौलवियों और पुराहितों ने भी विद्रोह में भाग लिया। महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। १८ से २० माह तक रक्तपात चलता रहा। यह सत्य है, जैसा कि इतिहास कहता है, हम पराजित हुए। एक गुलाम देश स्वतन्त्रता के लिए अपनी लड़ाई में कितनी ही बार पराजित हो तो उसके लिए इसमें शर्म की कोई बात नहीं। संघर्ष स्वय जीवित जनता की निशानी है। वह स्वयं ही एक यश है। १७५२ में जब ब्रिटिशों ने मुगल सम्राट के समक्ष घुटने टेककर व्यापार के लिए अनुमति माँगी थी, उस समय कंपनी के पास केवल तीन गोदाम थे। उनके पास कुल बीस वर्ग मील भूमि थी। और सौ वर्ष में भी ६ लाख वर्ग मील भूमि पर उनका शासन हो गया। कंपनी के लिए यही पर्याप्त नही था कि देश का राजनैतिक और आर्थिक जीवन उनाके नियंत्रण में हो, कंपनी चाहती थी कि भारत उसका धर्म भी स्वीकार करे। उसने ईसाई धर्म फैलाने के अपने प्रयास तेज किए। इस प्रकार जनआंदोलन के लिए अनेक कारण बन गए।

आग फैलती गई

रानी की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पूजा, प्रार्थना और धार्मिक कार्यों के बीच युद्ध की तैयारियाँ भी चलती रही।
एक बार किसी ने उनसे प्रश्न किया, “रानीजी, अभी यह युद्ध प्रशिक्षण क्यों ? क्या आप कुछ और समय भागवत भक्ति में नहीं दे सकती?” “मैं एक क्षत्रिय महिला हूँ। अपना कर्तव्य पालन करा रही हूँ। देश तथा न्याय की रक्षा करना क्षत्रियों का कर्तव्य है। हमें लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। मैं शत्रु के समक्ष आत्म समर्पण नहीं कर सकती। एक असहाय विधवा के समान रो-रोकर मैं प्राण नहीं दे सकती। मैं अपने उद्देश्य के लिए लड़ूँगी और मुसकुराते हुए मृत्यु को स्वीकार करूँगी।”
४ जून को मेरठ में क्रान्ति भड़क उठी। उसी दिन झाँसी में भी संकट के आसार दिखाई देने लगे। एक हवलदार ने कुछ सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा नव निर्मित स्टार फोर्ट में प्रवेश किया और वहाँ रखी युद्ध सामग्री और राशि हथिया ली। ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों की, जोकि अपने कैंप में थे, तत्काल किले में स्थानांतरित करने की व्यवस्थाएँ की गई। ब्रिटिश अधिकारी सहायता के लिए रानी से अनुरोध करने आए।
उन्होने अनुरोध किया,  हमें स्थिति को नियंत्रण में लाने का पूर्ण विश्वास है। परंतु इस कठिन समय मे आपको भी हमारी सहायता करनी चाहिए।”
रानी ने उत्तर दिया,” मेरे पास सेना अथवा शस्त्र नहीं है। यदि आप सहमत हो तो जनता की रक्षा के लिए सेना जुटाने के लिए मैं तैयार हूँ।” ब्रिटिश,इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए। किन्तु दूसरे दिन जब सैनिकों ने गोली मारकर एक ब्रिटिश अधिकारी की ह्त्या कर दी, तो वे भयभीत हो गए।
तुरंत एक वरिष्ठ अधिकारी रानी के पास दौड़ा गया। उसने कहा, “हम पुरुष हैं। हमें अपनी चिंता नहीं है। किन्तु हमारी महिलाओं और बच्चों को आप अपने महल में शरण दीजिए।”

रानी के मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि ऐसा कोई वचन न दें। किन्तु उसने दृढ़तापूर्वक कहा, “हमारा युद्ध केवल अंग्रेज़ पुरुषों के विरुद्ध है, महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध नहीं। यदि मैं अपने सैनिकों को इस मामले में नहीं रोक सकती तो मैं उनकी नेता कैसे हो सकती हूँ? अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों को महल में शरण मिलेगी।”
ऐसा आश्वासन रानी ने दिया और न केवल उन्हें भोजन दिया बल्कि सम्पूर्ण युद्ध के दौरान उनकी देखभाल की। नेतृत्वहीन सेना ने अंग्रेजों पर विजय प्राप्त की। सैनिक झाँसी को लूटना चाहते थे। तब रानी ने उन्हें जवाहरात और रुपए दिए। वे संतुष्ट हो गए। सेना ने दिल्ली की ओर कूच किया।

रानी ने अराजकता दूर करने के लिए तुरंत कार्यवाही की। मुखियों और कमाँडरों ने रानी से, राज्य का शासक बनने के लिए एक स्वर से अनुरोध किया। रानी ने स्वीकृति दे दी और एक बार फिर किले पर राज्य का ध्वज फहरा उठा। झाँसी दिन-रात युद्ध की तैयारी में जुट गई। नए शस्त्र तैयार किए गए। किन्तु चार- पाँच दिन में रानी के समक्ष एक नया खतरा उत्पन्न हो गया। यह सोचकर कि झाँसी का शासन एक कमजोर महिला चला रही है, सदाशिवराव नामक एक व्यक्ति ने राज्य के एक भाग में विद्रोह कर दिया और अपने आप को राजा घोषित कर दिया। महारानी तत्काल वहाँ पहुँची और तुरंत विद्रोह को दबा दिया।

जून १८५७ से मार्च १८५८ तक १० माह की अवधि में लक्ष्मीबाई ने झान्सी का प्रशासन ब्रिटिशों से अपने हाथों में लेने के बाद, उसमें काफी सुधार किया। खजाना भर गया। सेना सुव्यवस्थित हो गई। पुरुषों की सेना की बराबरी में महिलाओं की भी सेना थी। रानी ने अपनी कुछ तोपों के नाम रखे थे “गर्जना , “भवानीशंकर” और “चमकती बिजली ”। ये तोपें महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा बारी-बारी से दागी जाती थी। पुराने शस्त्र तेज किए गए। नए शस्त्र तैयार किए गए। उन दिनों झाँसी में प्रत्येक घर में युद्ध की तैयारियाँ हो रही थी और सब कुछ महारानी के मार्गदर्शन में किया जा रहा था। २३ मार्च १८५८ में सर हयूरोज की सेना ने युद्ध की घोषणा कर दी। १०-१२ दिनों में ही झासी का छोटा-सा राज्य विजय के प्रकाश और पराजय की छाया में डोलता रहा। एक सफलता पर जहाँ राहत मिलती थीं वहीं दूसरे क्षण पराजय का आघात लगता था। अनेक वफादार सरदार धाराशायी हो गए। दुर्भाग्य से बाहर से कोई सहायता नहीं मिली।

युद्ध की देवी

जब अंगेर्जों की शक्ति बढ़ी और हयूरोज की सेना ने झाँसी में प्रवेश किया तब रानी ने स्वय शस्त्र उठाया। उसने पुरुषों के वस्त्र पहिने और वह युद्ध की देवी के समान लड़ी। जब भी वह लड़ी उसने अंग्रेजों की सेना को झुका दिया। उसकी सेनाओं के संगठन और पुरुष के समान उसकी लड़ाई ने हयूरोज को चकित कर दिया। जब स्थिति नियंत्रण के बाहर हुई तब उसने राजदरबारियों को बुलाया और उनके समक्ष उसने अपने सुझाव रखे :”हमारे कमांडर और हमारे बहादुर सैनिक और तोप दागनेवाले सैनिक अब हमारे साथ नहीं है। किले में जो ४००० सैनिक थे उनमें से अब ४०० भी नहीं बचे हैं। किला अब मजबूत नहीं है। अतः हमें यथाशीघ्र यह स्थान छोड़ देना चाहिए। हमें एक सेना का गठन करना चाहिए और तब पुनः हमला करना चाहिए। ” सभी इस बात पर सहमत हो गए। कुछ योद्धाओं के साथ रानी शत्रुओ की पंक्तियों को चीरती हुई झाँसी से निकल गई। बोकर नामक एक ब्रिटिश अधिकारी एक सैनिक टुकड़ी के साथ उसके पीछे पीछे चला। लड़ाई में वह स्वयं घायल हो गया था और पीछे हट गया था। रानी के घोड़े की मुत्यु हो गई थी। उसके बाद भी वह हताश नहीं हुई और काल्पी जाकर तात्या टोपे और रावसाहेब से मिल गई।

ज्योति बुझने के पूर्व

काल्पी में भी रानी सेना जुटाने में लगी थी। हयूरोज ने काल्पी की घेराबँदी की। जब पराजय निश्चित दिखाई दी तब रावसाहेब, तात्या तथा अन्य लोग रानी के साथ, ग्वालियर की ओर चल पड़े। वे गोपालपुर पहुँचे। रात्रि में रावसाहेब, तात्या और बान्दा के नवाब की बैठक हुई। दूसरे दिन वे रानी से मिले। उनका इरादा युद्ध करने का नहीं था। रानी ने कहा,” हम जहाँ तक किले के अंदर रहे हमने अंग्रेजो का सामना किया। हमें लड़ाई जारी रखनी चाहिए। ग्वालियर का किला समीप है। यह सत्य है कि, वहाँ के राजा का झुकाव अंग्रेजो की ओर है, परंतु मैं जानती हूँ कि सेना और जनता अंग्रेजों के विरुद्ध है। इसके अलावा, वहाँ बँदूकों और गोला बारूदों का भारी भंडार है।” रानी का झुकाव स्वीकार हुआ। जब तात्या एक छोंटी सेना के साथ ग्वालियर पहुँचे तो वहाँ की अधिकांश सेना उनके साथ हो गई। ग्वालियर का राजा भाग खड़ा हुआ और उसने आगरा जाकर अंग्रेज़ो से संरक्षण माँगा।

परंतु उसके बाद जो हुआ वह मूर्खता की पुनरावृत्ति थी। रानी और उसके मित्रों को छोड़, अन्य सरदार आनंद में मग्न हो गए। रानी की सामयिक चेतावनी हवा में उड़ गई। रानी ने, जोकि आनंदोत्सव से दूर थी, ग्वालियर किले के नाजुक भागों का निरीक्षण किया। उसने अपना एक गढ़ तैयार किया किन्तु अन्य सरदारों ने इस महिला की सलाह पर ध्यान नहीं दिया।

युद्ध का अंत

हयूरोज प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था। १७ जून,१८५८ को लड़ाई पुन: आरंभ हुई। रानी ने पुरुषों के वस्त्र पहने और तैयार हो गई। हयूरोज ने एक चाल चली। वह महाराजा जयाजीराव सिंधिया को, जोकि ग्वालियर से भाग गया था और आगरा में ब्रिटिश संरक्षण में रह रहा था, लेकर ग्वालियर आया।

अब पेशवाओं में कुछ विवेक जागा। वे रानी लक्ष्मीबाई के समक्ष आने में लज्जित थे। अंतत : उन्होने तात्या टोपे को भेजा। जब उन्होने क्षमा याचना की तब रानी ने उनके समक्ष युद्ध की अपनी योजना रखी। तात्या टोपे ने उसे स्वीकार कर लिया। यद्यपि रानी की सेना संख्या में कम थी, सरदारों का असाधारण साहस, युद्ध की व्यूह रचना और रानी के पराक्रम ने ब्रिटिश सेना को परास्त किया। इस दिन की विजय रानी के कारण ही हुई। दूसरे दिन ( १८ तारीख को ) सूर्योदय के पूर्व ही अंग्रेजों युद्ध का बिगुल बजाया। महाराजा जयाजीराव द्वारा घोषित क्षमादान से प्रभावित सैनिक अंग्रेजों के साथ सम्मिलित हो गए। यह भी सूचना मिली की रवासाहेब के अंतर्गत जो दो ब्रिगेड थीं उन्होने पुन: अग्रेजों के साथ अपनी निष्ठा प्रकट की।

रानी लक्ष्मीबाई ने रामचंद्र राव देशमुख को बुलाया और कहा: “आज युद्ध का अंतिम दिन दिखाई देता है। यदि मेरे मृत्यु हो जावे तो मेरे पुत्र दामोदर के जीवन को मेरे जीवन से अधिक मूल्यवान समझा जावे और इसकी देखभाल की जावे। ” एक और संदेश यह था : “यदि मेरी मृत्यु हो तो इस बात का ध्यान रहे कि मेरा शव उन लोगों के हाथ में न पड़े जो मेरे धर्म के नहीं।” हयूरोज की शक्ति अधिक थी क्रांतिकारियों की एक बड़ी सेना धराशायी हो गई। उनकी तोपें ब्रिटिश के हाथों में चली गई। ब्रिटिश सेना बाढ़ के समान किले में प्रविष्ट हो गई। रानी के समक्ष अब भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। घोड़े की लगाम अपने दांतों में दबाए हुए और दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई रानी आगे बढ़ी कुछ पठान सरदार, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख भी उसके साथ चल पड़े। ब्रिटिश सेना ने उन्हें घेर लिया था। खून की धार बह रही थी। पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य उसी रंग का दिखाई दे रहा था। अंधकार होता जा रहा था। एक ब्रिटिश सैनिक रानी के बहुत निकट आया और उसने रानी के सीने को लक्ष्य कर छूरा फैका। रानी ने सैनिक को मार डाला ... पर उसके शरीर से खून बह रहा था, किन्तु विश्राम के लिए समय नहीं था। ब्रिटिश सेना उसका पीछा कर रही थी जब रानी स्वर्ण रेखा नहर पार करने ही वाली थी कि एक ब्रिटिश सैनिक की बँदूक से निकली गोली उसकी दाहिनी जांघ में आकार लगी। रानी ने बाएँ हाथ से तलवार चलाते हुए उस सैनिक को मार डाला।

क्रूर आघात – अंत

रानी के घोड़े ने भी सहायता नहीं दी। उसकी एक जांघ शून्य हो गई थी। पेट से खून बह रहा था। एक ब्रिटिश सैनिक की तलवार से, जोकि तेजी से उसकी ओर बढ़ा था, उसका दाहिना गाल चिर गया था, उसकी आँखें सुर्ख थी। इसके बाद भी उसने बाएँ हाथ से उस सैनिक का हाथ काट दिया। गुल मुहम्मद, जोकि रानी का अंगरक्षक था, उसके दुख को सहन नहीं कर सका। बहदुरी से लड़नेवाले इस योद्धा ने भी रोना शुरू कर दिया। रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने रानी को घोड़े से उतारने में सहायता पहुँचाई। रघुनाथ सिंह ने कहा: “अब एक क्षण भी खोने का वक्त नहीं, हमें शीघ्र ही समीपवर्ती बाबा गंगादास के मठ पर पहुँचना चाहिए।”

रामचंद्र राव ने रोते हुए बालक दामोदर को घोड़े पर बैठाया, रानी को अपनी गोद में लिया और संत बाबा गंगादास के मकान की ओर भागा। उसके पीछे-पीछे अंगरक्षक के नाते रघुनाथसिंह और गुल मोहम्म्द भी गए। अंधकार में भी बाबा गंगादास ने रानी के रक्त से सने मुख को पहिचान लिया। उन्होने ठंडे जल से उसका मुख धोया। गंगाजल पिलाया। उसे थोड़ी चेतना आई और लड़खड़ाते हुए होंठों से उसने कहा : “ हर-हर महादेव।” इसके बाद वह अचेत हो गई। थोड़ी देर बाद रानी ने कठिनाई के साथ अपनी आँखें खोली और तब उसने भगवत गीता के अंशों का,जोकि उसने बचपन में सीखा था, उच्चारण किया। उसकी आवाज क्षीण होती गई, उसके अंतिम शब्द थे, “वासुदेव, मैं आपके समक्ष नतमस्तक हू।” झाँसी का भाग्य अस्त हो गया।

रघुनाथसिंह, गुलमोहमद और दामोदरराव के नेत्रों से अश्रु की धारा फूट पड़ी। बाबा गंगादास ने अपनी पवित्रवाड़ी मे कहा : प्रकाश का कोई अंत नहीं। वह हर कण मे छिपा होता है। उचित समय पर वह पुनः चमक उठता है। रानी का अतुलनीय पार्थिव शरीर अग्नि की ज्वालाओं में लोप हो गया। तेजस्वी महिला झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उसका जीवन पवित्र था। उसका जीवन नारीत्व, साहस, अमर देश बहकती और शहादत की एक उत्तेजक कथा है। शरीर से यद्यपि वह महिला थी किन्तु उसमें सिंह के समान तेज था। राजनीति में भी वह निपुण थी। सभी महिलाओं के समान वह कमजोर अवश्य थी किन्तु जब वह युद्ध के लिए जाती और हाथ में शस्त्र उठाती तब वह युद्ध की देवी काली की ही प्रतिमूर्ति दिखाई देती थी। वह सुंदर और दुर्बल थी किन्तु उसकी प्रतिभा ने पुरुषों को भी मात कर दिया था आयु में वह छोटी थी किन्तु उसकी दूरदर्शिता और दृढ़ निर्णय परिपक्व थे।

पिता के लाड़प्यार में पलने के बाद जब उसने अपने पति के घर में प्रवेश किया तब वह एक आदर्श पत्नी बन गई। पति के निधन के समय यद्यपि जीवन से उयसका कोई लगाव नहीं रहा गया था, वह अपने उत्तरदायित्वों को नहीं भूली थी। वह कट्टर हिन्दू थी। परंतु अन्य धर्मों के विषय में वह सहिष्णु थी। जब कभी वह किसी महायुद्ध में सेना का नेतृत्व करती तो हिंदुओं के समान मुसलमान भी उसकी सेना की पंक्ति में आगे रहते थे।

लक्ष्मीबाई १९ नवंबर १८३५ से १८ जून १८५८ तक २२ वर्ष ७ माह जीवित रही। वह काली रात में बिजली के समान प्रकट हुई और लुप्त हो गई। ब्रिटिश जनरल सर हयूरोज ने, जो रानी से कई बार लड़ा और बार-बार पराजित हुआ और अंत में जिसने रानी को पराजित किया, रानी की महानता के विषय में निम्नलिखिए विचार प्रकट किए “ विप्ल्वकारियों की सबसे बहादुर और सबसे महान सेनापति रानी थी। ” इस अमर शहीद को को सम्मानित करते हुए १९७७ में भारतीय डाक-तार विभाग ने डाक टिकट प्रकाशित किया जिसका चित्र बाँयी ओर दिया गया है।

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भारत-भारती(हिन्दी संस्करण ) बाल पुस्तकमाला, प्रकाशन, प्रभाकर फैजपूरकर, कार्यवाह, श्री बाबासाहेब आपटे स्मारक समिति, रूईकर पथ, नागपुर, महाराष्ट्र से साभार