मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


गदल ने कहा, ''मुझे क्यों बुलाया है तूने?''
डोड़ी ने इस बात का उत्तर नहीं दिया। पूछा, ''रोटी खाई है?''
''नहीं, '' गदल ने कहा, ''खाती भी कब? कमबखत रास्ते में मिले। खेत होकर लौट रही थी। रास्ते में अरने-कंडे बीनकर संझा के लिए ले जा रही थी।''

डोड़ी ने पुकारा, ''निहाल! बहू से कह, अपनी सास को रोटी दे जाय!''
भीतर से किसी स्त्री की ढीठ आवाज सुनाई दी, ''अरे, अब लौहरों की बैयर आई हैं; उन्हें क्यों गरीब खारियों की रोटी भाएगी?''
कुछ स्त्रियों ने ठहाका लगाया।
निहाल चिल्लाया, ''सुन ले, परमेसुरी, जगहँसाई हो रही है। खारियों की तो तूने नाक कटाकर छोड़ी।''

गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था। गदल विधवा हो गई। गदल का बड़ा बेटा निहाल तीस वर्ष के पास पहुँच रहा था। उसकी बहू दुल्ला का बड़ा बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी।

निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिनों थी चम्पा और चमेली, जिसका क्रमश: झाज और विश्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था। आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतरकर धूल में घुटरूवन चलने लगे थे। अंतिम पुत्र नारायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ बननेवाली थी। ऐसी गदल, इतना बड़ा परिवार छोड़कर चली गई थी और बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर के यहाँ जा बैठी थी।

डोड़ी गुन्ना का सगा भाई था। बहू थी, बच्चे भी हुए। सब मर गए। अपनी जगह अकेला रह गया। गुन्ना ने बड़ी-बड़ी कही, पर वह फिर अकेला ही रहा, उसने ब्याह नहीं किया, गदल ही के चूल्हे पर खाता रहा। कमाकर लाता, वो उसी को दे देता, उसी के बच्चों को अपना मानता, कभी उसने अलगाव नहीं किया। निहाल अपने चाचा पर जान देता था। और फिर खारी गूजर अपने को लौहरों से ऊँच समझते थे।

गदल जिसके घर बैठी थी, उसका पूरा कुनबा था। उसने गदल की उम्र नहीं देखी, यह देखा कि खारी औरत है, पड़ी रहेगी। चूल्हे पर दम फूँकनेवाली की जरूरत भी थी।

आज ही गदल सवेरे गई थी और शाम को उसके बेटे उसे फिर बाँध लाए थे। उसके नए पति मौनी को अभी पता भी नहीं हुआ होगा। मौनी रँडुआ था। उसकी भाभी जो पाँव फैलाकर मटक-मटककर छाछ बिलोती थी, दुल्लो सुनेगी तो क्या कहेगी?
गदल का मन विक्षोभ से भर उठा।
आधी रात हो चली थी। गदल वहीं पड़ी थी। डोड़ी वहीं बैठा चिलम फूँक रहा था।
उस सन्नाटे में डोड़ी ने धीरे से कहा, ''गदल!''
''क्या है?'', गदल ने हौले से कहा।
''तू चली गई न?''
गदल बोली नहीं। डोडी ने फिर कहा, ''सब चले जाते हैं। एक दिन तेरी देवरानी चली गई, फिर एक-एक करके तेरे भतीजे भी चले गए। भैया भी चला गया। पर तू जैसी गई; वैसे तो कोई भी नहीं गया। जग हँसता है, जानती है?''

गदल बुरबुराई, ''जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आई थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमर गई, अब उसे खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई?''
''नहीं।''
''तू तो बस यही सोच करता होगा कि गदल गई, अब पहले-सा रोटियों का आराम नहीं रहा। बहुएँ नहीं करेंगी तेरी चाकरी देवर! तूने भाई से और मुझसे निभाई, तो मैंने भी तुझे अपना ही समझा! बोल झूठ कहती हूँ?''
''नहीं, गदल, मैंने कब कहा!''
''बस यही बात है देवर! अब मेरा यहाँ कौन है! मेरा मरद तो मर गया। जीते-जी मैंने उसकी चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई। पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हड़कंप उठाऊँ? यह लड़के, यह बहुएँ! मैं इनकी गुलामी नहीं करूँगी!''
''पर क्या यह सब तेरी औलाद नहीं बावरी। बिल्ली तक अपने जायों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है। तेरी माया-ममता कहाँ चली गई?''
''देवर, तेरी कहाँ चली गई थी, तूने फिर ब्याह न किया।''
''मुझे तेरा सहारा था गदल!''
''कायर! भैया तेरा मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था। तूने मुझे पेट के लिए पराई ड्यौढ़ी लँघवाई।
चूल्हा मैं तब फूँकूँ, जब मेरा कोई अपना हो। ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके। मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी।
समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब। अब कुनबे की नाक पर चोट पड़ी, तब सोचा। तब न सोचा, जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेरकर देखा। अरे, कौन किसकी परवा करता है!''
''गदल!'' डोड़ी ने भर्राए स्वर में कहा, ''मैं डरता था।''
''भला क्यों तो?''
''गदल, मैं बुढ्ढा हूँ। डरता था, जग हँसेगा। बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्माँ से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया। गदल, भैया की भी बदनामी होती न?''
''अरे चल रहने दे!'' गदल ने उत्तर दिया, ''भैया का बड़ा ख्याल रहा तुझे? तू नहीं था कारज में उनके क्या? मेरे सुसर मरे थे, तब तेरे भैया ने बिरादरी को जिमाकर होठों से पानी छुलाया था अपने। और तुम सबने कितने बुलाए? तू भैया दो बेटे। यही भैया हैं, यहीं बेटे हैं? पच्चीस आदमी बुलाए कुल। क्यों आखिर? कह दिया लड़ाई में कानून है। पुलिस पच्चीस से ज्यादा होते ही पकड़ ले जाएगी! डरपोक कहीं के! मैं नहीं रहती ऐसों के।''
हठात् डोड़ी का स्वर बदला। कहा, ''मेरे रहते तू पराए मरद के जा बैठेगी?''
''हाँ।''
''अबके तो कह!'', वह उठकर बढ़ा।
''सौ बार कहूँ लाला!'' गदल पड़ी-पड़ी बोली।
डोड़ी बढा।
''बढ़!'', गदल ने फुफकारा।

डोड़ी रुक गया। गदल देखती रही। डोड़ी जाकर बैठ गया। गदल देखती रही। फिर हँसी। कहा, ''तू मुझे करेगा! तुझमें हिम्मत कहाँ है देवर! मेरा नया मरद है न? मरद है। इतनी सुन तो ले भला। मुझे लगता है तेरा भइया ही फिर मिल गया है मुझे। तू?'', वह रुकी- ''मरद है! अरे कोई बैयर से घिघियाता है? बढ़कर जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपनापा मानता हैं। मैं इस घर में रहूँगी?''
डोड़ी देखता ही रह गया। रात गहरी हो गई। गदल ने लहँगे की पर्त फैलाकर तन ढक लिया। डोड़ी ऊँघने लगा।

ओसारे में दुल्ले ने अँगड़ाई लेकर कहा, ''आ गई देवरानी जी! रात कहाँ रही?''
सूका डूब गया था। आकाश में पौ फट रही थी। बैल अब उठकर खड़े हो गए थे। हवा में एक ठंडक थी।
गदल ने तड़ाक से जवाब दिया, ''सो, जेठानी मेरी! हुकुम नहीं चला मुझ पर। तेरी जैसी बेटियाँ है मेरी। देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नहीं।''
दुल्लो सकपका गई। मौनी उठा ही था। भन्नाया हुआ आया। बोला, ''कहाँ गई थी?''
गदल ने घूँघट खींच लिया, पर आवाज नहीं बदली। कहा, ''वही ले गए मुझे घेरकर! मौका पाके निकल आई।''

मौनी दब गया। मौनी का बाप बाहर से ही ढोर हाँक ले गया। मौनी बढ़ा।
''कहाँ जाता है?'' गदल ने पूछा।
''खेत-हार।''
''पहले मेरा फैसला कर जा।'' गदल ने कहा।

दुल्लो उस अधेड़ स्त्री के नक्शे देखकर अचरज में खड़ी रही।
''कैसा फैसला?, मौना ने पूछा। वह उस बड़ी स्त्री से दब गया।
''अब क्या तेरे घर का पीसना पीसूँगी मैं?'', गदल ने कहा, ''हम तो दो जने हैं। अलग करेंगे खाएँगे।'' उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही यह कहती रही, ''कमाई शामिल करो, मैं नहीं रोकती, पर भीतर तो अलग-अलग भले।''

मौनी क्षण-भर सन्नाटे में खड़ा रहा। दुल्लो तिनककर निकली। बोली, ''अब चुप क्यों हो गया, देवर? बोलता क्यों नहीं? देवरानी लाया है कि सास! तेरी बोलती क्यों नहीं कढ़ती? ऐसी न समझियो तू मुझे! रोटी तवे पर पलटते मुझे भी आँच नहीं लगती, जो मैं इसकी खरी-खोटी सुन लूँगी, समझा? मेरी अम्माँ ने भी मुझे चूल्हे की मट्टी खाके ही जना था। हाँ!''

''अरी तो सौत!'', गदल ने पुकारा, ''मट्टी न खा के आई, सारे कुनबे को चबा जाएगी डायन। ऐसी नहीं तेरी गुड़ की भेली है, जो न खाएँगे हम, तो रोटी गले में फंदा मार जाएगी।''

मौनी उत्तर नहीं दे सका। वह बाहर चला गया। दुपहर हो गई। दुल्लो बैठी चरखा कात रही थी। नरायन ने आकर आवाज दी, ''कोई है?''
दुल्लो ने घूँघट काढ़ लिया। पूछ, ''कौन हो?''
नरायन ने खून का घूँट पीकर कहा, ''गदल का बेटा हूँ।''
दुल्लो घूँघट में हँसी। पूछा, ''छोटे हो कि बड़े?''
''छोटा।''
''और कितने है!''
''कित्ते भी हों। तुझे क्या?'' गदल ने निकालकर कहा।
''अरे आ गई!'' कहकर दुल्लो भीतर भागी।
''आने दे आज उसे। तुझे बता दूँगी जिठानी!'' गदल ने सिर हिलाकर कहा।
''अम्माँ!'', नरायन ने कहा, ''यह तेरी जिठानी!''
''क्यों आया है तू? यह बता!'', गदल झल्लाई।
''दंड धरवाने आया हूँ, अम्माँ!, कहकर नरायन आगे बैठने को बढ़ा।
''वहीं रह!'' गदल ने कहा।

उसी समय लोटा-डोर लिए मौनी लौटा। उसने देखा कि गदल ने अपने कड़े और हँसली उतारकर फेक दी और कहा, ''भर गया दंड तेरा! अब मरद का सब माल दबाकर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है।''
नरायन का मुँह स्याह पड़ गया। वह गहने उठाकर चला गया। मौनी मन-ही-मन शंकित-सा भीतर आया।

दुल्लो ने शिकायत की, ''सुना तूने देवर! देवरानी ने गहने दे दिए। घुटना आखिर पेट को ही मुड़ा। चार जगह बैठेगी, तो बेटों के खेत की डौर पर डंडा-धूआ तक लग जाएँगे, पक्का चबूतरा घर के आगे बन जाएगा, समझा देती हूँ। तुम भोले-भाले ठहरे। तिरिया-चरित्तर तुम क्या जानो। धंधा है यह भी। अब कहेगी, फिर बनवा मुझे।''

गदल हँसी, कहा, ''वाह जिठानी, पुराने मरद का मोल नए मरद से तेरे घर की बैयर चुकवाती होंगी। गदल तो मालकिन बनकर रहती है, समझी! बाँदी बनकर नहीं। चाकरी करूँगी तो अपने मरद की, नहीं तो बिधना मेरे ठेंगे पर। समझी! तू बीच में बोलनेवाली कौन?''
दुल्लो ने रोष से देखा और पाँव पटकती चली गई।
मौनी ने देखा और कहा, ''बहुत बढ़-बढ़कर बातें मत हाँक, समझ ले घर में बहू बनकर रह!''
''अरे तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम!'', गदल ने मुस्कराकर कहा, ''तब से मैं सब जानती हूँ। मुझे क्या सिखाता है तू? ऐसा कोई मैंने काम नहीं किया है, जो बिरादरी के नेम के बाहर हो। जब तू देखे, मैंने ऐसी कोई बात की हो, तो हजार बार रोक, पर सौत की ठसक नहीं सहूँगी।''
''तो बताऊँ तुझे!'', वह सिर हिलाकर बोला।
गदल हँसकर ओबरी में चली गई और काम में लग गई।

ठंडी हवा तेज हो गई। डोड़ी चुपचाप बाहर छप्पर में बैठा हुक्का पी रहा था। पीते-पीते ऊब गया और उसने चिलम उलट दी और फिर बैठा रहा।
खेत से लौटकर निहाल ने बैल बाँधे, न्यार डाला और कहा, ''काका!'' डोड़ी कुछ सोच रहा था। उसने सुना नहीं।
''काका!'' निहाल ने स्वर उठाकर कहा।
''हे!'' डोड़ी चौक उठा, ''क्या है? मुझसे कहा कुछ?''
''तुमसे न कहूँगा, तो कहूँगा किससे? दिन-भर तो तुम मिले नहीं। चिम्मन कढ़ेरा कहता था, तुमने दिन-भर मनमौजी बाबा की धूनी के पास बिताया, यह सच है?''
''हाँ, बेटा, चला तो गया था।''
''क्यों गए थे भला?''
''ऐसे ही जी किया था, बेटा!''
''और कस्बे से घी कटऊ क्या कराया कि बनिए का आदमी आया था। मैंने कहा, ''नहीं है, वह बोला, लेके जाऊँगा। झगड़ा होते-होते बचा।''
''ऐसा नहीं करते, बेटा!'' डोड़ी ने कहा, ''बौहरे से कोई झगड़ा मोल लेता है?''

निहाल ने चिलम उठाई, कंडों में से आँच बीनकर धरी और फूँक लगाता हुआ आया। कहा, ''मैं तो गया नहीं। सिर फूट जाते। नरायन को भेजा था।''
''कहाँ?'' डोड़ी चौंका।
''उसी कुलच्छनी कुलबोरनी के पास।''
''अपनी माँ के पास?''
''न जाने तुम्हें उससे क्या है, अब भी तुम्हें उस पर गुस्सा नहीं आता। उसे माँ कहूँगा मैं?''
''पर बेटा, तू न कह, जग तो उसे तेरी माँ ही कहेगा। जब तक मरद जीता है, लोग बैयर को मरद की बहू कहकर पुकारते हैं, जब मरद मर जाता है, तो लोग उसे बेटे की अम्माँ कहकर पुकारते हैं। कोई नया नेम थोड़ी ही है।''
निहाल भुनभुनाया। कहा, ''ठिक है, काका ठीक है, पर तुमने अभी तक ये तो पूछा ही नहीं कि क्यों भेजा था उसे?''
''हाँ बेटा!'' डोड़ी ने चौंककर कहा, ''यहा तो तूने बताया ही नहीं! बता न?''
''दंड भरवाने भेजा था। सो पंचायत जुड़वाने के पहले ही उसने तो गहने उतार फेंके।''

डोडी मुस्कुराया। कहा, ''तो वह यह बता रही है कि घरवालों ने पंचायत भी नहीं जुड़वाई? यानी हम उसे भगाना ही चाहते थे। नरायन ले आया?''
''हाँ।''
डोडी सोचने लगा।
''मैं फेर आऊँ?'' निहाल ने पूछा।
''नहीं बेटा!'' डोड़ी ने कहा, ''वह सचमुच रूठकर ही गई है। और कोई बात नहीं है। तूने रोटी खा ली?''
''नहीं।''
''तो जा पहले खा ले।''
निहाल उठ गया, पर डोड़ी बैठा रहा। रात का अँधेरा साँझ के पीछे ऐसे आ गया, जैसे कोई पर्त उलट गई हो।
दूर ढोला गाने की आवाज आने लगी। डोड़ी उठा और चल पड़ा।
निहाल ने बहू से पूछा, ''काका ने खा ली?''
''नहीं तो।''
निहाल बाहर आया। काका नहीं थे।
''काका।'' उसने पुकारा।
राह पर चिरंजी पुजारी गढ़वाले हनुमानजी के पट बंद करके आ रहा था। उसने पुछा,''क्या है रे?''
''पाँय लागूँ, पंडित जी।'' निहाल ने कहा, ''काका अभी तो बैठे थे।''
चिरंजी ने कहा, ''अरे, वह वहाँ ढोल सुन रहा है। मैं अभी देखकर आया हूँ।''
चिरंजी चला गया, निहाल ठिठक खड़ा रहा। बहू ने झाँककर पूछा, ''क्या हुआ?''
''काका ढोला सुनने गए हैं।'', निहाल ने अविश्वास से कहा, ''वे तो नहीं जाते थे।''
''जाकर बुला ले आओ। रात बढ़ रही है।'' बहू ने कहा और रोते बच्चे को दूध पिलाने लगी।
निहाल जब काका को लेकर लौटा, तो काका की देही तप रही थी।
''हवा लग गई है और कुछ नहीं।'' डोड़ी ने छोटी खटिया पर अपनी निकाली टाँगे समेटकर लेटते हुए कहा, ''रोटी रहने दे, आज जी नहीं चाहता।''
निहाल खड़ा रहा। डोड़ी ने कहा, ''अरे, सोच तो, बेटा! मैंने ढोला कितने दिन बाद सुना है।

उस दिन भैया की सुहागरात को सुना था, या फिर आज।''
निहाल ने सुना और देखा, डोड़ी आँख मीचकर कुछ गुनगुनाने लगा था।

पृष्ठ- . . .

आगे— 

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।