इतिहास

११ नवंबर पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष  
 

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भारतीय आप्रवासी डॉ. धनीराम प्रेम
- संकलित
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चिकित्सक, पत्रकार, प्रसारक और लेखक डॉ. धनीराम प्रेम को अनेक क्षेत्रों में पहला आप्रवासी भारतीय होने का गौरव प्राप्त है। ब्रिटेन आप्रवासन से पहले वे भारत में मेडिसिन विषय के प्राध्यापक थे। इस सबसे ऊपर वे समाज सुधारक थे और उन्होंने भारत, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश के नागरिकों को एशियन कान्फ्रेंस नामक संस्था द्वारा एक ही छत के नीचे लाकर शांति और सद्भाव के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। दुर्भाग्य से एक सड़क दुर्घटना में ११ नवंबर १९७९ में ७५ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा

डॉ. धनीराम ’प्रेम का जन्म दिल्ली से लगभग ६० किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के दरियापुर नामक ग्राम में २१ नवंबर, १९०४ को हुआ था। जब वे दो माह के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया और जब वे अठारह माह के थे तब उनकी माँ का। इस प्रकार के अनाथ बालक की देखरेख का भार उनके चाचा के ऊपर आ पड़ा। आठ वर्ष की आयु में उन्हें अपनी पढाई छोड़नी पड़ी क्यों कि उनके अभिभावक की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इस बोझ को उठा सकें। उन्हें एक पैसा प्रतिदिन की एक छोटी सी नौकरी करनी पड़ी लेकिन जल्दी ही उन्हें एक पुस्तकालय में रहने की जगह मिल गई। यहाँ पर क्रांति विषयक पुस्तकों को पढ़ते हुए उनके मन में राजनीति के प्रति रुचि उत्पन्न हुई। वे महात्मा गांधी के शांतिपूर्ण स्वराज आंदोलन से प्रेरित हुए। गाँधी जी से मिलने के बाद वे अपने शहर के पास रिक्रूटिंग सभाओं में भाषण देना प्रारंभ कर दिया। वे महात्मा गाँधी की कांग्रेस पार्टी के युवा सदस्य बने और ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक किशोर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में दो बार जेल भी गए। पहली बार बारह वर्ष की आयु में उन्हें एक दिन की सजा हुई और दूसरी बार चौदह वर्ष की आयु में ८०,००० लोगों की सभा को आधे घंटे तक संबोधित करने के अपराध में एक साल की।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा अतरौली के डी.ए.वी. स्कूल में हुई थी और उच्च शिक्षा धर्मसमाज कॉलेज तथा अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में हुई । फिर वे वर्ष १९२१ में नेशनल मेडिकल कॉलेज, बंबई से डॉक्टरी की उपाधि प्राप्त करके सन् १९३१ में विदेश चले गए और लंदन तथा एडिनबरा विश्वविद्यालय से एम.आर.सी.एस., एल.आर.सी.पी., डी.टी.एम. एंड एच. डॉक्टरी की उच्चतम उपाधियाँ प्राप्त कीं। अलीगढ़ में अध्ययन करते समय ही वे भारत की विस्फोटक राजनीतिक वातावरण से बहुत प्रभावित हुए थे। परिणामस्वरूप सन् १९२१ के असहयोग आंदोलन मे उनको एक वर्ष के कठोर कारावास का दंड भी मिला था। उन दिनों वे अलीगढ़ कांग्रेस कमेटी के मंत्री भी रहे थे।

लेखक के रूप में

जब वे छात्रावस्था में थे तब से ही उनकी रुचि साहित्य-सृजन की ओर हो गई थी। सामाजिक जीवन में आगे बढ़ने की अदम्य प्रेरणा के कारण उन्होंने अलीगढ़ में सबसे पहले ’आर्य कुमार सभा’ की स्थापना की थी। वे अच्छे चिकित्सक होने के साथ-साथ उच्च कोटि के कहानीकार एवं कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने अपने समय के अत्यंत प्रसिद्ध पत्र ’चाँद‘ तथा ’भविष्य‘ का संपादन भी किया था। उनकी कथा-कृतियों में ’वल्लरी‘, ’प्रेम समाधि‘, ’वेश्या का हदय‘, ’चाँदनी‘, ’मेरा देश‘, ’प्राणेश्वरी‘ और ’डोरा की समाधि‘ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त ’रंग और ब्रिटिश राजनीति‘, ’रूस का जागरण‘ और ’वीरांगना पन्ना‘ आदि पुस्तकें भी उनकी प्रतिभा की परिचायक हैं। चिकित्सक, लेखक तथा राजनयिक होने के बावजूद पत्रकारिता में डॉ. धनीराम ने अपनी रुचि बनाए रखी। उन्होंने एक स्थानीय रेडियो की स्थापना की तथा बीबीसी के एशियन सर्विस के सलाहकार भी रहे। एक स्वयं कार्यक्रम प्रसारक भी थे।

इंग्लैंड में आप्रवासी के रूप में

लगभग छह वर्ष तक भारत में चाँद का संपादन करने के बाद १९३८ में अध्ययन के लिये छुट्टी लेकर वे लंदन चले गए। उनकी पत्नी और बेटी भी साथ गए। तीन साल लंदन में अपने परिवार के साथ रहते हुए उन्हें अनुभव हुआ कि ब्रिटेन का कामकाजी समाज भारत के अधिकारी ब्रिटिश समाज से बहुत भिन्न है। ब्रिटेन का आम आदमी भारतीयों के प्रति उदार और स्वागत की भावना रखता है। इसलिये उन्होंने अपनी डाक्टरी की सेवाओं के लिये बर्मिंघम के गरीब क्षेत्रों को चुना। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों एक भारतीय डाक्टर इंग्लैंड के किसी हस्पताल में न तो नौकरी कर सकता था, न घर बना सकता था और न हि सहायक डाक्टर के रूप में कहीं अपनी सेवाएँ दे सकता था। इसके लिये जिस जमापूँजी की आवश्यकता होती थी वह आमतौर पर उनके पास नहीं होता था। इतन धन जमा करने के लिये कुछ न कुछ काम करना जरूरी था। इसका एक और कारण उस समय ब्रिटेन में फैली रंगभेद की भावना भी थी।

डॉ. प्रेम के समय में इंग्लैंड में स्वयं को स्थापित करना आसान नहीं था। उन्होंने फैक्ट्री चिकित्सा अधिकारी के लिये आवेदन किया। उनके पास इस पद के लिये पर्याप्त शिक्षा और कार्य अनुभव था। वे भारत की एक ऐसी फैक्ट्री में चिकित्सा अधिकारी रह चुके थे जहाँ ५०,००० मजदूर काम करते थे। उन्हें साक्षात्कार के लिये बुलाया गया किंतु यह स्पष्ट कर दिया कि यह केवल औपचारिकता है, उन्हें नौकरी नहीं मिल सकती। डॉ. प्रेम ने अधिकारियों को यह समझाने का प्रयत्न किया कि मजदूर वर्ग बहुमत एशियाई लोगों का है और वे एशियाई डाक्टर के सामने अधिक सुविधाजनक महसूस करेंगे।

राजनीति में प्रवेश

उनका विश्वास था कि इंग्लैंड के कानून और और भाषा पर अधिकार प्राप्त कर के एक डाक्टर के रूप में स्वयं को इंगलैंड में स्थापित कर पाना आसान हो सकता है। यह निश्चय करने के बाद उन्होंने लेबर पार्टी तथा सोशियलिस्ट क्लब की सदस्यता ली ताकि वे ब्रिटिश मेडिकल असोसियेशन में स्तान पा सकें। उन्होंने नेशनल काउंसिल फार दे लेबर पार्टी की चुनाव भी लड़ा। १९४६ में वे बर्मिंघम में ग्रेट बार के पहले एशियन लेबर काउसिलर बने। इस पद पर चुने जाने के बाद भी उन्होंने चिकित्सा का व्यवसाय नहीं छोड़ा। अपने पद का उपयोग उन्होंने चिकित्सा से संबंधित सेवाओं को बेहतर बनाने में किया। उन्होंने मानसिक चिकित्सालय की समिति तथा स्वास्थ्य समिति की स्थापना की। उनका विश्वास था कि एक राजनयिक डाक्टर के रूप में वे एक सामान्य डाक्टर की तुलना में अधिक काम कर सकते हैं। उनकी स्वास्थ्य सेवाए तथा राजनयिक सेवाएँ एक दूसरे के साथ सहयोग करती चलती थीं। १९७४ में वे लेबर पार्टी के प्रत्याशी के रूप में दक्षिण कोवेन्ट्री का चुनाव हार गए। इसके पश्चात पार्टी की ट्रेड यूनियन का आप्रवासियों के प्रति दृष्टिकोण तथा आप्रवासन के लिये उनके नियमों के कारण व पार्टी से अलग हो गए।

पचासवें दशक में जब इंगलैंड में भारतीयों का आगमन प्रारंभ हुए डॉ. प्रेम को वहाँ रहते हुए पंद्रह साल हो चुके थे। उन्होंने योजनाबद्ध आप्रवासन की आवश्यकता को समझा और १९५३ में इंडियन इमिग्रैंट काउंसिल की स्थापना की। उनका विचार था कि आप्रवासियों के स्वागत के लिये सूचना के लिये उन्हें अँग्रेजी भाषा सिखाने तथा उन्हें ब्रिटिश जीवन के साथ आत्मसात होने की सुविधा प्रदान करना मेजबान देश का कर्तव्य होना चाहिये। उनके विचार से आप्रवासियों को ब्रिटेन में रहने के लिये ब्रिटेन की भाषा, रहन-सहन तथा कानून को अपनाना चाहिये। इस दिशा में उन्होंने कठिन प्रयत्न किये। १९६४ के चुनाव में उन्होंने आप्रवासियों का मुद्दा उठाया और आप्रवासी मुद्दों के चैम्पियन कहलाए। साठवे दशक के अंत तक, जब यूगांडा के अनेक आप्रवासी एशियाई लोग ब्रिटेन आए, आप्रवासियों का मुद्दा सुलझ चुका था। यूगांडा रिलीफ ट्रस्ट के ट्रस्टी के रूप में उन्होंने दो साल तक आप्रवासन केन्द्रों का दौरा किया और आप्रवासियों की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त की। वे यह देखकर प्रसन्न थे कि सब कुछ बिना किसी सरकारी अड़चनों के ठीक से संपन्न किया जा सका।

ब्रिटेन में समाज सुधार

वे एशियाई समाज से संबन्धित अनेक सुधार समितियों और कार्यक्रमों से जुड़े। उन्होंने इंडियन एडवाइजरी काउंसिल फार यूके की स्थापना की जिसका काम आप्रवासियों की प्रव्रजन सम्बंधी समस्याओं को सुलझाना था। उनके प्रयत्नों से १९५५ में कामनवेल्थ वेलफेयर काउंसिल की स्थापना हुई जो १९६० में विकसित होकर कम्युनिटी रिलेशंस कमिटी बन गई। वे एशियन कान्फ्रेंस के अध्यक्ष बने जो ब्रिटेन में भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों का समूह था। उन्होंने मिडलैंड इंडिया लीग की स्थानीय शाखा की अध्यक्षता की, इंडियन वर्कर्स असोसियेशन में सक्रिय भूमिका निभाई और बर्मिंघम के रेस रिलेशन पैनल के सदस्य रहे। डा. धनीराम प्रेम को मानव कल्याण के लिये समर्पित संस्था की संज्ञा दी जा सकती है। तीस वर्ष तक वे शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की देखभाल करने वाले समूह कोलशिल की फाइनेंस सबकमिटी के चेयरमैन रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने शारीरिक अक्षमता वाले लोगों के पुनर्वास के लिये महत्वपूर्ण कार्य किये। १९५० में जब उन्होंने देखा कि मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ रही है और उनके इलाज के लिये संसाधनों की कमी है तब उन्होंने उनके लिये काम करना शुरू किया। वे इसे अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि भी मानते रहे।

भारतीय में सामाजिक कार्य

डॉ. प्रेम का विवाह एटा निवासी स्व. श्री तोताराम की सुपुत्री श्रीमती रतनदेवी से हुआ था। जब सन् १९७६ में उनकी पत्नी का देहांत हुआ तो उन्होंने उनकी स्मृति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से डी..वी. बालिका इंटर कॉलेज, अलीगढ़ को एक लाख साठ हजार रूपए दान में दिए और अपने गाँव दरियापुर में भी एक अस्पताल खोलने का निश्चय किया था। बर्मिंघम में रहते हुए उन्होंने भारत में अपने शहर अलीगढ़ में दो ट्रस्टों की स्थापना की। एक बालिकाओं की शिक्षा के लिये तथा दूसरा गाँव के अपने स्वास्थ्य केन्द्र के लिये।

भारत में जब आपातकालीन स्थिति घोषित कर दी गई थी तब उसकी यह प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उन्होंने लंदन में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्री ओम मेहता के सम्मान में आयोजित एक समारोह में निर्भीकतापूर्वक यह कह दिया था किलंदन में ब्रिटेन की सम्राज्ञी से मिलना सरल है, परंतु भारतीय होते हुए भी भारत की प्रधानमंत्री से मिलना सर्वथा कठिन है। उनकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता का इससे अधिक सुपुष्ट प्रमाण और क्या हो सकता है! यही नहीं, वे आपातकाल में जब भारत आए तो श्री ओम मेहता के माध्यम से श्रीमती इंदिरा गांधी से मिले और देश तथा विदेश की विभिन्न समस्याओं पर लगभग एक घंटे तक बातचीत की थी।

पुरस्कार व सम्मान

वे बर्मिंघम के पहले एशियाई कौंसिलर थे। २३ जुलाई १९७७ को भारत सरकार के सम्मान पद्मश्री से अलंकृत होने वाले वे पहले आप्रवासी भारतीय बने। यह पुरस्कार उन्हें ब्रिटेन में भारतीय समुदाय की सेवा के लिये प्रदान किया गया। ६ जुलाई १९७८ को जब उन्हें बर्मिंघम की ऑस्टन यूनिवर्सिटी ने उन्हें मास्टर आफ साइंस की मानद उपाधि से सम्मानित किया तब वे भारत से बाहर स्थापित किसी भी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा मानद उपाधि प्राप्त करने वाले पहले भारतीय भी बन गए। वे पहले आप्रवासी हिंदी लेखक भी हैं। उन्हें ब्रिटेन का प्रसिद्ध ओ.बी.ई. पुरस्कार भी मिला लेकिन कुछ कारणों से उन्होंने उसे ठुकरा दिया। 

५ नवंबर २०१२