इतिहास

१५ जनवरी पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष  
 

देश की पहली महिला फोटो-पत्रकार होमई व्यारवाला
संकलित


देश की प्रथम महिला फोटो पत्रकार होमई व्यारवाला विगत १५ जनवरी २०१२ को इस दुनिया में नहीं रहीं लेकिन अपने पीछे सफलता का जो भरा पूरा संसार वे छोड़ गई हैं वह भारतीय इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की गौरवमयी कहानी कहता है।

जीवन परिचय-

होमई का जन्म ९ दिसंबर को गुजरात के नवसरी जिले में रहने वाले एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके माता पिता शहरों में घूम घूम कर नाटक करने वाली पारसी – उर्दू थियेटर कंपनी में काम करते थे। बाद में बच्चों की पढ़ाई के कारण वे मुंबई में बस गए। होमई की पढ़ाई पहले बांबे विश्वविद्यालय और बाद में जे.जे. स्कूल आफ आर्ट्स में हुई जहाँ फोटोग्राफी को उन्होंने अपना विषय चुना। १३ वर्ष की आयु में उनका विवाह मानेकशा व्यारवाला से हुआ। वे स्वयं कलाप्रेमी थे और फोटोग्राफी में रुचि रखते थे। पति के सहयोग से होमई की शिक्षा और कार्य जीवन सहजता से चलते रहे। १९७३ में अपने पति की मृत्यु के बाद वे वडोदरा में बसीं और गांधीवादी जीवन जीते हुए ९८ वर्ष की लंबी आयु प्राप्त की। वे सादा जीवन जीती थीं और अपनी ब्लाउज सिलने से लेकर कार ड्राइव करने तक अधिकतर काम अपने हाथ से करना पसंद करती थीं।

उपनाम डालडा १३

उनके चित्र डालडा १३ के नाम से प्रकाशित होते थे। इसके पीछे भी एक कहानी है- उनका विश्वास था कि १३ का अंक उनके जीवन में शुभ रहा है। उनका जन्म १९१३ में हुआ १३ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हुआ, उन्होंने अपनी पहली कार १९५५ में खरीदी जो उन्हें धनतेरस (भारतीय तिथि के अनुसार १३) के दिन मिली थी। कार का नंबर भी संयोग से डीएलडी १३ (DLD१३) था। इस नंबर से प्रेरित होकर ही उन्होंने अपना नाम डालडा १३ रखा। उनके इस नाम ने उन्हें बहुत लोकप्रियता भी दिलाई।

कार्यक्षेत्र

उन्होंने १९३० से फोटोग्राफी करना प्रारंभ कर दिया था। १९३८ में उन्होंने इसे को व्यवसाय के रूप में अपनाया। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता उन्हें १९४२ में मुंबई पहुँचकर मिली। दूसरे विश्व युद्ध के समय एंब्युलेंस, फायर ब्रिगेड और बचाव कार्यों के उनके अनेक फोटो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इससे प्रभावित होकर उन्हें ब्रिटिश इन्फार्मेशन सेंटर दिल्ली के ईस्टर्न ब्यूरों कार्यालय ने, उन्हें और उनके पति को एक अनुबंध देकर दिल्ली बुला लिया। यह उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद उन्होंने उस समय की लोकप्रिय अँग्रेजी पत्रिका इलेस्ट्रेटे वीकली आफ इंडिया के लिये कार्य करना प्रारंभ किया, जहाँ १९७० तक लगातार उनके श्वेत-श्याम चित्र प्रकाशित हुए जो आगे चलकर उनकी पहचान बने। पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भी उनके चित्र प्रकाशित हुए। वे राजनीतिक परिवेश की कुशल फोटो पत्रकार बनीं। उन्होंने देश के सभी प्रमुख राजनीतिज्ञों और विदेशी अतिथियों के चित्र खींचें। उन्नीसवी शताब्दी के प्रारंभ के दिनों में फोटोग्राफी का क्षेत्र पुरूष प्रधान ही था। महिलाएँ शौकिया तौर पर ही फोटोग्राफी करती थीं, होमई ने इसे व्यवसाय के रूप में अपनाकर १९३८ से १९७३ तक पैतीस वर्षों की सफल और लंबी पारी खेली। होमई को संतोष केवल इस बात से नहीं था कि वे फोटो पत्रकार बन गई हैं वे अच्छी और अविस्मरणीय फोटोग्राफी में विश्वास रखती थीं इसलिये उन्होंने अपने कार्यकाल में कई यादगार फोटो खींचे।

विशेष चित्र

साड़ी पहने हुए रोलिफ्लेक्स कैमरे से लैस वे न केवल १५ अगस्त १९४७ को दिल्ली के लाल किले में फहराए तिरंगे की साक्षी रहीं, बल्कि उन्हें भारत की आजादी के दस्तावेजीकरण का श्रेय भी जाता है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह, भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर विचार के लिए हुई निर्णायक बैठक व अन्य अनेक ऐतिहासिक पलों को उन्होंने कैमरे में कैद किया। नेहरू जी उनका प्रिय विषय थे और उन्होंने तब भी उनकी फोटो खींची, जब उन्होंने एक कार्यक्रम में फोटो निषेध का नोटिस लगा रखा था।

होमई की तीसरी आँख उन भावों को पकड़ती थी, जो फोटो को खास बना देते थे और इसी कोशिश में वह भीतरी संवेदनाओं तक को भाँप लेती थीं जब देश के बँटवारे को लेकर बैठक होनी थी, तब पत्रकारों को अंदर जाने के लिए केवल चंद मिनटों का समय दिया गया था। उस दौरान होमई व्यारवाला ने वह छायाचित्र खींचा जो अत्यंत विवादास्पद रहा। वे, लार्ड माउंटबेटन की विदाई, ब्रिटेन की महारानी और यू.एस. के राष्ट्रपति कैनेडी की भारत यात्रा के समय कुछ गिने चुने वरिष्ठ प्रेस फोटोग्राफरों में से एक थी जिन्हें फोटो लेने का सौभाग्य मिला।

होमई ने ऐसे कई अद्भुत चित्र खींचें, जिन्हें देखकर युवा फोटो पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। उस समय का कनॉट प्लेस का चित्र देखकर कोई भी उसे खूबसूरत कलाकृति कह सकता है। ऐसी आकर्षक फोटोग्राफी उन्होंने तब की, जब सबसे हल्का कैमरा भी सीपीयू के आकार के जितना होता था। हर एक क्लिक के बाद कैमरे के ऊपर की ओर लगे बल्ब को बदलना होता था। होमई एक चलता-फिरता फोटोग्राफी स्कूल थीं और उनके जाने के बाद भी उनके छायाचित्र इस काम को बखूबी निभाते रहेंगे।

सम्मान पुरस्कार

२०१० में नेशनल गैलरी आप माडर्न आर्ट, नई दिल्ली में अल्काजी फाउंडेशन आफ आर्ट के सहयोग से उनके कार्य का पुनरावलोकन प्रस्तुत किया गया था जिसमें उनके चुने हुए विशेष चित्रों को प्रदर्शित किया गया। उन्हें वर्ष २०१० में देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया और २०११ में उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया गया। फरवरी २००६ में व्यारवाला के कार्य को प्रदर्शित करने वाली, सबीना गदिहोके की पुस्तक- 'इंडिया इन फोकस-कैमरा क्रोनिकल्स आफ होमी व्यारवाला' का प्रकाशन भी हुआ।

अंतिम दिन

होमई व्यारवाला अपने अंतिम दिनों में अकेली रहती थीं और ४० वर्षों से उन्होंने कोई फोटो नहीं खींची। १९८९ में कैंसर से उनके पुत्र की भी मृत्यु हो गई। अपने निधन से कुछ समय पहले बिस्तर से गिर जाने के कारण होमई व्यारवाला की कूल्हे की हड्डी टूट गई थी। वे बिस्तर से गिर गई हैं इसको जानने में पड़ोसियों को कुछ समय लगा। पता चलने पर उन्हें गुरुवार ९ फरवरी को अस्पताल ले जाया गया। फेफड़ों की आंतरिक संक्रमण और श्वास लेने में कष्ट के कारण १५ फरवरी को सुबह १० बजे उन्होंने इस संसार से विदा ली। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करेलीबाग क्षेत्र में खासवाड़ी शवदाह गृह में किया गया। पारंपरिक रूप से पारसी समुदाय में मृतक के शव को एक मीनार पर रख दिया जाता है जिसे चील आदि पक्षी खा लेते हैं। अपने आखिरी समय में व्यारवाला कहती थीं कि ज्यादा शहरीकरण के कारण वड़ोदरा में पक्षियों की संख्या में काफी कमी आई है और इसलिए उन्होंने अंतिम संसकार के लिये शवदाह गृह का चुनाव किया। होमई व्यारवाला के पति का भी दाह संस्कार ही किया गया था।

१३ फरवरी २०१२