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प्रिन्सिपल साहब की बाई पास सर्जरी उसी के नर्सिंग होम में हुई थी। वक्त के साथ-साथ डॉक्टर व मरीज़ का संबंध मित्रता में बदल चुका था। यही मित्रता हिचक का कारण थी। व्यापारिक व व्यावसायिक संबंधों में हिचक का सवाल ही कहाँ उठता है?

'एक दिन अचानक चेकिंग के लिए निकला था। बाथरूम में फुसफुसाहट-सी सुनी। दरवाज़ा खोला तो कुछ लड़के ड्रग्ज़ समेत पकड़े। नशे में धुत-से थे। उन्हीं में आपका...'

प्रिन्सिपल साहब तो चुप हो गए। वाक्य यों तो अधूरा था पर अधिक अर्थ-व्यंजक बन उठा था। शब्दो में मन्तव्य को व्यक्त कर देने की ताकत है ही कहाँ? चुप्पी तो बहुत कुछ कह डालती है।
उसने भी बात समझ ली थी। फूलों रानी भी जान गईं थीं। बात एक ही थी, उससे एक ही अर्थ व्यंजित होता था, पर प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग थीं। पर शायद प्रतिक्रिया भी एक ही थी वह थी निरपेक्षता की, हालाँकि उसके कारण अलग-अलग थे। वह तो शायद इसलिए अप्रभावित था क्योंकि बहुत पहले ही स्वयं को पितृधर्म से मुक्त मान चुका था और फूलों रानी के अनुसार अमीर घरों के बच्चे इतना थोड़ा-बहुत गुनाह करने का तो हक रखते हैं। वही पहले बोल उठी थी - 'शुक्र हैं प्रिन्सिपल साहब! इत्ती-सी बात हैं। मैं तो जाने क्या सोच-सोचकर मरी जा रही थी।' उसने गर्दन को एक झटका दिया। प्रिन्सिपल साहब की आश्चर्य-भरी निगाह फूलों रानी से होती हुई उस तक पहुँची। डॉ. विद्यानन्द को वे जानते थे, उसके पेशे के बारे में जानते थे, उसकी प्रसिद्धि से परिचित थे, पर उसकी पत्नी से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। फूलों रानी ने अपनी विशेषताओं का और प्रत्याखान जारी रखते हुए कहा - 'मैंने सोचा था कोई कत्ल-वत्ल का केस होगा। ज़िन्दगी-मौत का सवाल होगा ये तो कुछ ख़ास न हैगा, जिसके वास्ते हम दोनों को (दोनों को कहते हुए उसने एक हिकारत - भरी निगाह पास बैठे पति नामक व्यक्ति पर फेंकी) बुलाया।'

प्रिन्सिपल साहब मूक थे। उसने मन-ही-मन स्थिति की गम्भीरता को तोल लिया था, पर वह क्या और उसका अस्तित्व क्या? न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा। उसका मन मुस्कुराने को किया, पर यह कोई मुस्कराने का वक्त था?

अत: सोचने-विचारने की मुद्रा में बैठा रहा। क्या करूँ या कुछ करूँ, ऐसी स्थिति थी ही कहाँ? घर भर की डोर तो फूलों रानी के हाथ थी। नियति तो वही थी, बाकी सब तो पुतले थे। वह घर में उसके कहने से हिलता था और घर के बाहर मरीज़ों के रक्तचाप अथवा हृदयगति के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ। था कभी ऐसा वक्त भी जब उसे अपनी स्थिति से शिकायत भी होती, आक्रोश भी और सर्वाधिक आश्चर्य भी होता, पर सब इतना हो चुका था कि अब कुछ न होता।

'अच्छा, सर! थैंक्यू वेरी मच। हम जो ज़रूरी है अवश्य करेंगे। मैं स्थिति की गम्भीरता को समझ रहा हूँ और सँभालने की पूरी कोशिश करूँगा। आपने व्यक्तिगत दिलचस्पी दिखाई, बहुत-बहुत धन्यवाद।'
'अरे नहीं-नहीं, डॉक्टर साहब। यह तो मेरा फर्ज़ था।'
ऐसे ही कुछ अवसर से जुड़े वाक्यों का आदान-प्रदान हुआ फिर अभिवादन और वे दोनों कॉलेज से बाहर आए।

वह उस समय के फूलों रानी के चेहरे पर के भाव भुलाना भी चाहे तो भूल नहीं सकता। जिस धन से फूलों रानी के पिता ने उसकी डिग्री ख़रीदी थी और उसके पिता ने अपनी गरीबी बेची थी, जिसका सहारा लेकर फूलों रानी ने उसकी आज़ादी छीनी थी, उसी का सहारा लेकर कितनी शान्तिपूर्वक वह अपने एकमात्र पुत्र के भविष्य को बिगाड़ने चली है, यह उसे कौन बताता, किन शब्दों में बताता और बता भी देता कि ड्रग्ज लेना खुद का कत्ल है या फिर छुरे से गरदन एकबारगी धड़ से अलग हो जाती है, थोड़ी देर तड़पे और ख़त्म, पर यह धीमी-धीमी जानलेवा आदत, आदमी की जान साँसत में फँसी रहती है, सिफ़ उसकी नहीं जो लेता है, उनकी भी जो देखते हैं। यह मौत ऐसी है, जो किसी से न खुद मरते बनता है न दूसरे से देखते कैसे समझाता कि यह नींव में लगने वाला दीमक है जिसके लग जाने पर घर का गिर जाना निश्चित है!

फूलों रानी के पास समझ वाली वह डोलची ही न थी, जिसमें कुछ डाला जा सकता था। उसके पास डॉक्टर होने पर भी ऐसा कोई कैमिकल न था, जो वह उसके भीतर इन्जेक्ट कर देता। मन-ही-मन बोलता रहा था, मानो मन की बात किसी भी तरह फूलों रानी तक पहुँचा दे।

कोमल पौधों के छड़ी का सहारा लेना ही पड़ता है अधिक मिकदार में मीठा भी कड़वा लगने लगता है। बच्चों को ही नहीं, बड़ों को भी हाँ के साथ-साथ ना का भी महत्व सिखाने की ज़रूरत है। नकार ही स्वीकार को महत्वपूर्ण बनाती है और यह भी, वक्त भी अजीब बेरहम होता है। जब छीनने पर आता है तो बहुत कुछ छीन लेता है ऐसे में सहने की ताक़त भी बच्चों को जुटा कर देनी होती है।

वह रातभर बिस्तर पर पड़ा तड़पता रहा था, सोचता रहा था, सपने लेता, फूलों रानी को समझाने की कोशिश करता रहा था और हद दर्जे तक दुखी होता रहा था।
महसूस करता रहा था कि लाख प्रयत्न करके भी वह अपने पुत्र से कटा नहीं था। अपने शरीर का एक अंग कटने जैसा दु:ख उबल रहा था, मवाद का एक लावा-सा फट पड़ा था। ज़ोर-ज़ोर से रोना व चीख पड़ना चाहता था मन। इतने दिनों से खलखलाती पानी की धार के मुहाने पर बड़ा-सा पत्थर लगाकर रोक दी गई धार अचानक बाढ़ बनकर सामने आ खड़ी हुई थी। बिस्तर पर अगणित काँटें उग आए थे और वह भीष्म पितामह बना उस पर पड़ा अपनी नहीं, अपने पुत्र की मृत्यु-शैय्या देख रहा था।

शिक्षा-दीक्षाहीन, बचपन से माँ की अँगुली पकड़कर चलने वाले बच्चों में दम ही क्या होता है? ऐसे बच्चे रीढ़-रहित होते हैं। किसी ने बहकाया तो गलत रास्ते पर चल निकले, दूसरे ने शिकायत की तो घर से भाग खड़े हुए। यही स्थिति फूलों रानी के पुत्र की भी हुई। पिछली हुई अनेक गलतियों की दर्शक अथवा श्रावक मात्र माँ थी, अब प्रिन्सिपल साहब तथा पापा बीच में आ गए। इन दो उपस्थितियों ने उसके दोष को इतना भारी बना दिया कि उस भार को सह पाने में असमर्थ पाकर वह नाना की शरण में चला गया और प्रतीक्षा करने लगा कि कब अंधड़ शान्त हो और वह माँ की गोद में जा छिपे। उसकी योजना सफल भी रही। इधर फूलों रानी अपना त्रिया-चरित्र दिखा रही थीं। परिणाम, पुत्र पुन: घर में उपस्थित पा गए। पर कुछ भला भी हुआ। डरपोक पुत्र ने ड्रग्ज़ से छुटकारा पा लिया या नहीं, यह कहना तो कठिन है, परन्तु शिकायत अवश्य नहीं आई।

अब स्थिति यह थी कि वह जानबूझकर तथा फूलों रानी व उनका पुत्र आदतन एक-दूसरे की उपेक्षा करने लगे और इस प्रकार पुत्र के बड़े होने तथा विवाह-योग्य होने तक का सफ़र पूरा हुआ। कहानी का अन्त यहीं पर हुआ था।

अपने पुत्र के लिए कुछ रातें तड़पकर अन्त में वह उसके लिए संवेदनहीन हो गया था। उसके शराब पीकर बहकने, चेन स्मोकर बन खाँसते रहने, कार तेज़ चलाने के जुर्म में चालान होने, लड़कियों के साथ किये गए कुछ दुर्व्यवहारों की कहानियाँ, कभी-कभार एयरकन्डीशन्ड कमरे के भीतर झाँक जातीं जिन्हें वह ईवनिंग न्यूज के साथ पढ़कर खिड़की से बाहर फेंक देता।

वह नहीं जानता कि फूलों रानी के पिता की दौलत उसके पिता की बनी या नहीं, बनी तो कैसे, नहीं बनी तो क्यों पर अक्सर एक प्रश्न उसे सालता कि वह किसका क्या बना, किसका पति, किसका पिता, किसका पुत्र या फिर उसके खुद के अस्तित्व का क्या हुआ?
हैलो, सुनिए जी, मणिक लाला जी के आने का टैम होने वाला है, अब चल भी पड़िये न। सुनिए जी कान में कुनैन-सा घुल गया। गर्म-गर्म मीठी चाशनी, शरीर पर फफोले डाल दे रही थी।

अब तक फूलों रानी से बातचीत की शृंखलाएँ टूटते-टूटते खत्म हो गई थी। बातचीत की अनुपस्थिति में सुनिए जी कौन-सी शृंखला की कड़ी है, कौन-से शब्दकोश में मिलेगी? एक अजीब-सी तटस्थता थी मन में, एक अजब सन्नाटा। शारीरिक प्रक्रियाएँ सामान्य रहने पर भी भीतर की जीवन्तता की मृत्यु कब और कैसे हो जाती है, कौन-सा आयुर्विज्ञान जान पाएगा इसे और जान भी ले तो किन शब्दों में कौन-से कलम से उसकी दवा लिखेगा? यों भी शब्दकोश के अर्थ प्राय: कितने अधूरे लगने लगते हैं।

आपरेशन-थियेटर से बाहर निकलते-निकलते पेजर बजा। वह रोबोट-सा बाहर आया, कार में बैठ गया। घर पहुँचा। ड्राइवर ने कार का दरवाज़ा खोला तो संसार का आठवाँ आश्चर्य सामने था। इतने वर्षों के विवाहित जीवन में जो कभी न हुआ था, वही हो रहा था। बकरे की बलि देने से पूर्व उसे सजा-धजाकर उसकी पूजा-पाठ तो की ही जाती है न। फूलों रानी चेहरे पर मुस्कान चिपकाए, सजी-धजी, सिर तक साड़ी लपेटे, लजाती-सी उसके स्वागत के लिए खड़ी थीं।

'अच्छा हुआ। आप ठीक बकत पर आ गए। सेठ मणिक लाला जी भी अभी-अभी ही आए हैं।'
वह फूलों रानी के साथ-साथ भीतर गया। या तो फूलों रानी के व्यक्तित्व का प्रभाव था या सेठ जी के आगमन का, सेठ मणिक लाला जी को देखते ही एक व्यापारिक मुसकान उसके होठों पर आ बैठी थी - 'नमस्कार सेठ जी। कैसे हैं? माफ़ कीजिए थोड़ा ट्रैफिक जैम था इसलिए कुछ देर हुई।'
'जी नहीं, बिल्कुल देर नहीं हुई। मैं ही थोड़ा जल्दी चल पड़ा था। मुन्ना कहाँ है, उसे बुलाइये तो।'
फिर बातचीत के दौरान - 'जी, चाहता तो मैं भी था कि मेडिकल में जाए, पर डॉक्टरी का पेशा तो बस, आप जानते तो हैं, न अपने लिए वक्त, न घर वालों के लए। डॉक्टर तो बस औरों के लिए ही ज़िन्दा रहते हैं बस यही सोचा और फिर वह मेडिकल में जाना भी नहीं चाहता था एक ही बेटा, उससे भी क्या ज़बरदस्ती करते।'
'अजी छोड़िए डॉक्टर साहब। आपका बेटा है, इन्टेलिजेन्ट हैं, जहाँ जाएगा, वहीं जम जाएगा। आपका हाथ उसके सिर पर हो तो सफलता उससे दूर नहीं जा सकती।'
'जी हाँ जी हाँ।' बिल्कुल व्यापारियों की तरह सिर हिलाते हुए उसने कहा, 'एक्सपोर्ट लाइसेन्स के लिए अप्लाई कर दिया है। बस दो-चार महीने की बात है। वैसे भी वहाँ के अधिकारी मेरे अच्छे मित्र हैं।'
'किस चीज़ का एक्सपोर्ट करने का इरादा है?' बातें शायद इसलिए हो रही थीं कि होनी चाहिए। वरना इनसे परिणाम जुड़ा हो, ऐसा कुछ न था। वो तो फूलों रानी और मणिक लाला जी के बीच लगभग तय था।
'कई चीज़ों का कान्ट्रेक्ट हो रहा है। लेदर गुड्स, सलमें-सितारों के पर्सेज़, यह कला यहाँ के मुसलमानों के इलाके में अभी भी बची है, कुछ-कुछ शुद्ध खादी की जैन्ट्स शर्ट का भी सोचा जा रहा है। देखें जो किस्मत में।' उसने भी कन्धे उचकाए, शुद्ध व्यावसायिक तरीके से।

'ये तो है ' लाला जी की गर्दन ऊँट-सी हिली। उसके ज़ेहन में रेगिस्तान का दृश्य आ रहा था, पर नहीं आज न रेगिस्तान, न ज्वालामुखी, न लावा, न संवेदनाहीन व्यक्ति, जो वह आज अब तक था कुछ नहीं आज कुछ नहीं सिफ़ एक व्यापारी ऊहूँ नहीं, सिफ़ एक पाला-पोसा मोटा-ताज़ा बकरा।
'अजी, बच्चा ज़हीन हो तो रास्ते खुद-ब-खुद साफ़ हो जाते हैं, डाक्टर साहब।'
'जी ये तो है।'

सेठ मणिक लाला जी ही व्यापारी नहीं थे, उसे लगने लगा था कि वह खुद भी उसी जमात का है। रिश्ता पक्का हो गया। कुछ मुबारिक, बधाई जैसे शब्द, मिठाई व ज़ेवरात का आदान-प्रदान, अवसरानुकूल रस्में, पुत्र के लिए सलमें-सितारों का एक्सपोर्ट प्रारम्भ करवाए जाने का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर सँभाले सेठ मणिक लाला जी ने शुद्ध व्यापारिक तरीके से विदाई ली।

सेठ जी को विदा कर भीतर आते हुए फूलों रानी के चेहरे पर एक अजीब-सी चमक और विजय-मुस्कान थी। ईद तो अभी दूर थी पर उससे पूर्व ही बकरीदी का-सा आलम था। और वह वह अपने भीतर के उस तराजू के बारे में सोच रहा था जिसने चुपचाप मन-ही-मन लाभ-हानि का गणित जोड़-तोड़ लिया था।

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१ अक्तूबर २००१

 
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