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निकलने पर उसे अपनी घरनी बुधनी ही नजर आई थी। नहीं, नहीं, बुधनी के कारण आज उसका काम अच्छा नहीं चल रहा है। हर रोज सबसे पहले उसका ही चेहरा तो दिखाई देता है। यदि उसका चेहरा देखना इतना शुभ होता तो धंधा हर रोज बहुत बढ़िया चलता। मगर ऐसा कहाँ होता है? किसी-किसी दिन तो ऐसा भी होता है कि जब शाम को वह घर लौटने लगता है तो उसके पास इतने ही पैसे बचते हैं कि रात के लिए तो भात का इंतजाम हो जाता है, मगर अगले दिन सुबह के लिए रोटी-चाह का भी प्रबंध नहीं हो पाता। उसे घर से खाली पेट अपना रिक्शा लेकर शहर आना पड़ जाता है। यहाँ पहुँचकर वह बादल के ठेले के सामने अपना रिक्शा खड़ा कर देता है। बालेसर को देखते ही बादल समझ जाता है कि बालेसर आज घर से खाली पेट आ रहा है। वह तुरंत दो बन और बड़े गिलास में चाय लाकर उसे थमा देता है। चाय में डुबा-डुबा कर बन खा लेने के बाद बालेसर एक बार बादल की तरफ देखता है। उसके देखने के ढंग से ही बादल समझ जाता है। हल्की मुस्कुराहट के साथ वह अपना माथा जरा हिला देता है और बालेसर अपने रिक्शे पर बैठकर चौराहे की तरफ बढ़ जाता है। दोपहर को भात खाने के लिए बालेसर जब आता है तो वह चाय और बन की कीमत चुका देता है।

तब जरुर आज बोहनी अच्छी हुई है। अब बालेसर यह याद करने की कोशिश करने लग गया कि आज सबसे पहले उसने अपने रिक्शे पर किसे बिठाया था। दिमाग पर जोर डालने के बाद उस सवारी का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ गया, जो एक मोटी-सी औरत थी। वह इतनी मोटी थी कि वह अकेले रिक्शे की सीट पर बहुत मुश्किल से अँट सकी थी। एक बार तो बालेसर के मन में यह आया भी था कि वह उस मोटी को अपने रिक्शे पर न बिठाए। एक तो औरत फिर बोहनी का समय। इसे ध्यान में रखकर उसने कुछ बोलना उचित नहीं समझा। जब वह औरत सदर अस्पताल पहुँचकर रिक्शे से उतरी तो उसने पाँच रुपए का एक नोट बालेसर के सामने बढ़ा दिया। बालेसर ने नम्रता के साथ कहा था-'माँजी, यहाँ तक का भाड़ा दस रुपिया है-पाँच रुपिया नहीं। पाँच रुपिया और दीजिए।' इस पर उस मोटी ने इतना चिल्लाना शुरु कर दिया कि वहाँ कुछ लोगों की भीड़ ही जमा हो गई। एक आदमी जो मोटी के व्यवहार को बड़े ध्यान से देख रहा था, उसने बालेसर को ही समझाया-'क्या करोगे? छोड़ो। तुम्हीं ही थोड़ा गम खा लो। आगे से भाड़ा पहले ही बता दिया करो। जिसे बैठना होगा वह तुम्हारे रिक्शे पर बैठेगा नहीं तो पैदल मार्च करेगा।'

बालेसर ने वैसा ही किया। बोहनी के समय और बक-झक करना उसे भी उचित नहीं लगा था।
बालेसर ने मन-ही-मन उस मोटी को यादकर जी भर गाली दी और कहा-'मोटकी ने तो आज बोहनी ही खराब कर दी थी।' वह आगे और कुछ सोचता कि एक सवारी आ गया। उसके एक हाथ में कुछ मुर्गे थे और दूसरे हाथ में कुछ चिकेन। मुर्गो तथा चूजों की टांगें अलग-अलग रस्सी से बंधी हुई थीं। उस आदमी ने रस्सी मजबूती से थाम रखी थी इसलिए मुर्गे तथा चूजों के सिर नीचे झूल रहे थे। सभी इस प्रकार चें-चें कर रहे थे मानो उन्हें भी यह अनुमान हो गया था कि उनकी जिंदगी अब कुछ ही देर के लिए और है। बालेसर के मन में एक अजीब बात आ रही थी। वह सोच रहा था कि यदि कभी इन मुर्गों तथा चूजों को भी, इस आदमी को इसी प्रकार उलटा लटकाने का मौका मिल जाए तो उन्हें और इस आदमी को कैसा लगेगा? बालेसर को मुर्गों तथा चूजों के चें-चें की करुण आवाज अच्छी नहीं लग रही थी। उसके जी में आया कि वह उस आदमी के हाथ से जबर्दस्ती सबको छीन ले और उन्हें आजाद कर दे।

वह यह सोच ही रहा था कि वह आदमी रिक्शे पर सवार हो गया और बोला-'गांधी नगर चलो।' जैसे ही यह वाक्य उस आदमी के मुँह से निकला बालेसर को पता चल गया कि यह आदमी नशे में है। उसके मन में तो आया कि वह बोल दे उसे गांधी नगर नहीं जाना है। पर रिक्शे पर बैठे यात्री से ऐसा कहना उसे ठीक नहीं लगा।
कोई आधा घंटा तक लगातार रिक्शा चलाने के बाद बालेसर गांधी नगर पहुँच गया। रिक्शा से उतर कर यात्री ने पूछा-'कितना हुआ?'
'बीस रुपिया।'-बालेसर के मुँह से इतना ही निकला था कि वह आदमी गुर्राने लग गया- 'तुम हमको बाहरी आदमी समझता है का! दुगना भाड़ा माँग रहा है?' उसने बीस रुपए का एक नोट बालेसर के रिक्शे की सीट पर रख दिया और खुद अपने घर के भीतर जल्दी से घुस गया।

नोट उठाते हुए बालेसर बुदबुदा पड़ा-'साला पियक्कड़! अभिये पी के बम है! पहिले तो हमको लगा कि इ आदमी भी हमको उ मोटकी जैसा आधा भाड़ा ही देगा।' लगातार रिक्शा चलाते-चलाते आज बालेसर को जरा जल्दी ही भूख सताने लग गई जबकि अभी एक भी नहीं बजा था। बालेसर ने अपना रिक्शा बादल के ठेले के सामने लाकर खड़ा कर दिया। उसे देखते ही बादल ने पूछा भी-'आज एतना जल्दी!' 'भात तैयार है न? बहुत जोर से भूख लगा है।'-बालेसर ठेला के पीछे पड़ी बेंच पर जाकर बैठ गया। बादल की घरनी ने बालेसर के सामने अलमुनियम की एक थाली में भात के ऊपर पड़ी पानी जैसी दाल के साथ आलू की सब्जी लाकर रख दी। बालेसर उस खाने पर भी इस प्रकार टूट पड़ा मानो आज वह पहली बार इस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन खा रहा हो। खाना खाने के बाद वह अपने रिक्शे पर आकर ढलंग गया।

बालेसर पिछले कई सालों से इस नगर में रिक्शा चला रहा है। लेकिन आज यह शहर उसे कुछ बदला-बदला जैसा लग रहा था। हर रास्ते पर भीड़ कुछ ज्यादा ही दिखाई पड़ रही है। इसी साल मेन रोड पर जो खूब ऊँचा नया-नया होटल खुला है, आज उसे खूब सजाया जा रहा है। मिठाई तथा केक-पेस्ट्री की दुकानों पर और दिनों की तुलना में आज बहुत ज्यादा खरीदार नजर आ रहे हैं। यह नगर आज बहुत अलग जैसा नजर आ रहा है। चाहे जो हो, आज बालेसर बहुत खुश है। आज उसे दस-पंद्रह मिनट के लिए भी खाली बैठने की फुर्सत नहीं मिल सकी है। इसके बावजूद उसे थकावट का तनिक भी अनुभव नहीं हो रहा है। बालेसर के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा था कि आज यह शहर उसे कुछ अलग क्यों लग रहा है। उसने कई बार सोचा भी कि अपने रिक्शा पर बैठे किसी सवारी से ही इस सवाल का जवाब वह पूछ ले। लेकिन वह हिम्मत नहीं कर सका। एक बार उसने किसी सवारी से यह पूछ लिया था-'बाबू इ गनतंतर दिवस का होता है?' तो उस यात्री ने डांटते हुए जवाब दिया था- 'सामने देखकर चुपचाप अपना रिक्शा चलाओ। फालतू सवाल-जवाब मत करो।' उस दिन के बाद वह अपने किसी सवारी से अब कोई सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता है।

सूरज डूबने का समय नजदीक होता जा रहा था, इसलिए बालेसर ने अपना रिक्शा बादल के ठेले की तरफ मड़ दिया। वह बादल को आज के नाश्ते तथा दाल-भात का पैसा भी चुका देगा और उससे अपने सवाल का जवाब भी पूछ लेगा।

बादल मेटरिक पास है। इसलिए उसे यह विश्वास है कि बादल को उसके सवाल का जवाब जरुर मालूम होगा। अपना रिक्शा एक किनारे खड़ा कर बालेसर बादल के पास आ गया। उसने पूछा-'आज केतना हुआ, बादल भाई?' 'जादा नहीं हुआ। दसे रुपिया हुआ।'-बादल ने बताया। दस रुपए का एक नोट बालेसर ने बादल की तरफ बढ़ाते हुए पूछा-'बादल भाई, एगो बात हम पूछें?'
'का बात है? पूछो न।'
'आज चारों तरफ एतना भीड़-भाड़ काहे है? आखिर का बात है?'
'कल नया साल है न, इसीलिए बजार में एतना जादा भीड़ है। कल सब कोई पिकनिक मनाने के वास्ते जहाँ-तहाँ अपना छउवा-पूता के साथ जाएगा। खूब खाएगा-पीएगा, नाचेगा-गाएगा और मौज-मस्ती करेगा।'
'मगर इ मेन रोड वाला होटल को एतना काहे सजाया जा रहा है?'
'आज रात को हियाँ अमीरवन का पाटी होगा-ठीक अधरतिया को। जनी-मरद सब लोग पीके खूब नाचेगा और मौज-मस्ती करेगा।'
'जनी लोग भी!'
'हाँ, जनी लोग भी। तुम आजकल का जनी लोग को का बूझता है। सब मेमिन हो गया है।'
'बादल भाई, एगो बात और बता दो।'
'पूछो।'
'नया साल मनाने से का होता है?'
'इ तो हमको भी टीक से मालूम नइ है। मगर हम सुने हैं कि नया साल में खूब खुशी मनाने से, खूब नाचने-गाने और मस्ती करने से साल का बाकी दिन भी खूब बढ़िया से गुजरता है।'
यह सुनकर बालेसर अपने रिक्शे की सीट पर आकर बैठ गया। उसने कहा- 'अच्छा बादल भाई, अब जाते हैं। सुरुज डूबने वाला है।'

रात को बालेसर की नींद अचानक उचट गई। वह सोचने लग गया कि कल नया साल चालू होने वाला है। इसका मतलब तो यही न है कि जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। कल से सब कुछ नया हो जाएगा। नया दिन का पता तो सुरुज देखने के बाद ही लगता है। इसलिए आज वह अंधेरा रहते ही जाग जाएगा और तालाब की तरफ चला जाएगा। वह ध्यान से देखेगा कि नया साल में सुरुज कैसे उगता है। नया साल में सुरुज जरुर नया ढंग और नया रुप से उगता होगा। नया साल में नया सुरुज को देखने का आनंद अलगे ढंग का होगा।

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