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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
प्रत्यक्षा की कहानी— ब्याह


मृगनयनी को यार नवल रसिया मृगनयनी ....

उसके कंधे तक बाल झूम रहे थे। जैसे उनका अलग अस्तित्व हो। आँखें बन्द थीं, नशे में चूर। शरीर का आकार हवा में घुल रहा था। किसी बच्चे ने साफ खिंची रेखा पर उँगली चला दी हो। सब घुल मिल गया था। सब।

तस्वीर में वो सीधी सतर बैठी थी। चेहरे पर एक उदास आभा। कोमल, नाज़ुक, शांत। तस्वीर और सचमुच में कोई तार नहीं था। जैसे किसी और की तस्वीर देखी जा रही हो।

पीछे शोर शराबा था, हलचल अफरा तफरी थी। गाँव से आईं औरतें तेज़ आवाज़ में बोल रही थीं। क्या बोलती थीं, महत्त्वपूर्ण नहीं था। बोलती थीं ये महत्त्वपूर्ण था। उनके जीवन का रस यही था। पाँवों से लाचार, उठने बैठने से लाचार, हाँफती, चुकु मुकु बैठी, शरीर को जाने किस शक्ति से समेटे, पाँवों में भर भर तलवे आलता लगाए, मोटी बेमेल गठियाई उँगलियों में चमकदार बिछिया पहने, छापे की रंगीन नाईलोन की साड़ी पहने, उन्होंने पूरे वैवाहिक कार्य को हाईजैक कर लिया था।

उनके आने के पहले सब व्यवस्थित चल रहा था।

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