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''ओए, हलवाई तूं न घबरा मैं यहाँ डैम नहीं बनने दूँगा। विधायक जी थोड़ा जोर डाल रहे हैं, मैंने कह दिया है लोगों की जमीन के बदले दुगुनी जमीन दो और घरों के बदले दुगुना पैसा तब विचार होगा। तुम लोगों ने मुझे प्रधान चुना है मैं तुम्हारा घाटा न होने दूँगा। बस जैसा मैं कहूँ वैसा ही करना।`` इतने में जुबली हाईवे की बस आकर रुकी और प्रधान जी अपने कारिंदों के साथ उसमें बैठ चले गए।

ठाकरां दा बेहड़ा गाँव में ठाकुर ही नहीं ब्राह्मणों की तादाद भी ज्यादा थी। अन्य जातियों के लोग भी यहाँ रहते थे। लेकिन ठाकुरों व ब्राह्मणों का यहाँ बाहुल्य था। यह गाँव ब्यास नदी के किनारे बसा था। यहाँ पर बिजली के प्रोजैक्ट का सर्वे काफी पहले हुआ था और अब लोगों से जमीन ली जा रही थी। बिहारी पंडित की चिंता बढ़ने लगी क्यों कि उसकी यजमानी वाले सभी के गाँव इस डैम में समाने जा रहे हैं। उधर जयलाल का भी यही हाल है। उसकी कई बीघा जमीन ब्यास के
किनारे थी, जो सोना उगलती थी। गाँव के बू़ढे बोटी हरिया को इस मिट्टी से जुडी यादों से जुदा हो जाने का दुख था।

आज इन सभी दस गाँवों के लोगों को माल महज़्मे ने पंचायत घर में बुलाया था। तहसीलदार साब के साथ कानूनगो, पटवारी, प्रधान, पंचायत सैक्रेटरी तथा कुछ और अफसर भी थे।

तहसीलदार साब ने बात शुरू की, ''भाईयों भारत सरकार यहाँ पर बिजली का बहुत बड़ा प्रोजैक्ट बनाने जा रही है। जिसके डैम में आपके गाँव समा जाएँगे। सरकार आपको जमीन के बदले राजस्थान में दुगनी जमीन के मरब्बे देगी और घरों व मवेशीखानों के बदले अच्छा पैसा। आप सब लोगों को मैं आज नोटिस देने आया हूँ। जिस-जिस का नाम पुकारा जाए वह आगे आता जाए।``

''हमें अपनी मिट्टी से जुदा करने का हक आपको हरगिज नहीं है। क्या आज का दिन देखने के लिए हमने आजादी हासिल की थी। ऐसा जुल्म मत करो।`` बू़ढे बोटी हरिये ने भरे गले से यह बात कही। इतने में जयलाल भी बोल उठा, ''सरकार, ऐसा मत करो हम दिनरात मेहनत कर अपने पुरखों की जमीन का अन्न खा रहे हैं। इसे हमसे न छीनो।`` भाई तुम्हारे लिए तो यह खुश होने की बात है। तुम्हें अपनी जमीन जायदाद का दुगना मिलेगा, जिससे तुम लोगों के तो दिन बदल जाएँगे। `` कुर्सी पर बैठे गंजे अधेड़ ने कहा। यह प्रौजेक्ट कंपनी का नुमाइंदा हरीश कपूर था।

''खाक दिन फिरेंगे, हमारे रीति-रिवाज, मंदिर यहाँ की संस्कृति और पूर्वजों के बरसेले झील में दफन होकर रह जाएँगे। पितरों की आत्माएँ हमें जीने नहीं देगी,`` बिहारी पंडित ने इतने जोश में कहा कि सब लोगों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई।

लोगों के उग्र रूप को देख तहसीलदार ने प्रधान जी के कान में कुछ कहा और वह सबको शांत करते हुए बोले, ''सुनो भाईयों सरकार हमारे हितों को ध्यान में रखकर यह काम कर रही है तुम लोग कानूनगो जी से अपने-अपने कागज ले लो।``

लोगों के तीखे प्रश्नों ने अब प्रधान जी को घेरा लिया। लेकिन वह अपनी मीठी बातों से लोगों को सतुंष्ट करने में सफल रहे। राजस्थान में इंदिरा नहर के साथ मिलने वाले मरब्बे के लालच में सब लोग आ गए। प्रधान जी ने बताया कि मरब्बे में होने वाली फसल का हर साल पचास-साठ हजार रुपया घर बैठे मिलेगा।

''घसीटू, सरकार ने पैसे तो दिए नहीं यह कागज पकड़ा दिया,`` अनपढ़ बेलीराम ने पूछा।
''मुआ, ऐ नोटिस है। इसके बाद तेरी जमीन सरकार अपने कब्जे में लेगी। पैसे बाद में मिलेंगे।``


बिहारी पंडित गुस्से में पैर पटकता हुआ घर पहुँच गया। उसकी पत्नी बशंभरी ने उसे पानी दिया और हाथ-मुँह धुलवाया।
''अजी, किसी से झगड़ा हो गया क्या।``
''नहीं सरकार ने हमें अपनी जमीन-जायदाद छोड़ने के नोटिस दे दिए हैं। मैं तुम्हें व बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँगा। चिंता न करो सभी लोग जा रहे हैं, हम भी कहीं चले जाएँगे।``
''बशंभरी, तेरा दिमाग खराब है। मेले घर का चूल्हा मेरी यजमानी से चलता है। दूसरी जगह एकदम यजमानी नहीं मिलेगी। दूसरा काम मुझे कोई आता नहीं है।``

दोनों पति-पत्नी अब भविष्य की चिंता में खो गए। गाँव के बाकी घरों में भी लोगों की चिंता का कारण यही था। मगर मरब्बे से होने वाली आमदनी की बात सोचकर यह लोग मन को तसल्ली दे रहे थे। ठाकुरां दा बेहड़ा गाँव की चौपाल व लंगड़े हलवाई की दुकान पर सब लोग एक-दूसरे से बिछु़डने की चर्चाएँ करने लगे। कुछ दिनों बाद तहसीलदार व प्रौजेक्ट के अफसर सबको मुआवजे की पहली किश्त बाँट कर चले गए। पैसा पाकर बिहारी पंडित को खुशी हुई लेकिन घर पहुँचते ही इस माटी से बिछु़डने के गम ने उसे रुला डाला। किसी ने इस पैसे से साहूकार का कर्जा उतारा तो किसी ने बच्चों को
किताबें व वर्दी खरीदकर दी। घसीटू पैसे लेकर सीधा किशोरी लाल की देसी शराब की भट्ठी में पहुँच गया।

''घसीटू, तुझे तो बहुत पैसे मिले होंगे। यार एक पैग तो पिला दें,`` धर्मू ने बहकते हुए कहा।
''लाला, एक अधा दे और कुछ मछली फराई कर दे, दो गिलास भी देना।``
घसीटू ने दो पैग डाले और एक धर्मू की तरफ बढ़ा दिया। घसीटू ने जल्दी से बोतल में बची शराब का पटियाला पैग बनाया और गटक गया।
धर्मू ने बहकते हुए पूछा, ''यार तुम लोगों ने सरकार से पैसे तो ले लिए लेकिन रहोगे कहाँ। मैं तो डैम के किनारे कहीं पर झोपड़ी बनाकर रह लूँगा।``
धर्मू की गाँव में न तो कहीं जमीन है और न ही उसका परिवार। दिन भर मेहनत-मजदूरी करता और शाम को शराब पी लेता। नाम के लिए पास के गाँव में उसके चाचा-चाची थे लेकिन वह बचपन से ही अनाथ था। उसकी माँ उसे जन्म देते ही मर गई और जब वह सात साल का था तो बाप इसी ब्यास में बह गया। गाँव के लोगों के छोटे-बड़े काम करके वह पला था।
''धर्मू हम सब कुछ ही दिनों में बिछु़ड जाएँगे न यह जमीन हमारी रहेगी और न ही ब्यास का पानी। धर्मू तूँ खुशनसीब है जो यहीं रहेगा। हम परिवार वालों को तो रोजी की गर्ज से कहीं न कहीं तो बसना ही होगा।``
दोनों अब गले लगकर रोने लगे थे।

बिहारी पंडित ने सुबह बस पकड़ी और अपने मामा के गाँव हटली में पहुँच गया। वह यहाँ पर बिक रहे एक मकान व एक बीघा जमीन के सौदे के लिए आया था। हटली के पटवारी व मामा की मदद से सौदा पक्का हो गया। उस रात वह मामा के यहाँ रुक गया। अगले दिन तहसील जाकर बिहारी ने सारे काम भी निपटा लिए। इसी गाँव में एक और मकान बिक रहा था, सो बिहारी ने अपने दूर के रिश्तेदार लंगड़े हलवाई को उसके बारे में बताया।
''बिहारी, तूँ बस रहा है तो वह गाँव अच्छा ही होगा। वहाँ मेरी दुकानदारी चल पड़ेगी न।``
''
हाँ, क्यों नहीं। सब स्टॉप पर दुकाने हैं। तुम कल हटली जाकर मामा जी से मिल लेना वह सौदा करवा देंगे।``

धीर-धीरे सब लोग अपना-अपना सामान समेट कर गाँव छोड़कर जाने लगे। सबने अपनी सहूलियत से नए ठिकाने ढूँढ लिए थे। लेकिन पुरखों की इस जमीन से जुदा होने का गम उन्हे रुला रहा था। धर्मू रोते-रोते सबका सामान ट्रक में लाद देता था। उसे सरकार से पैसे व मरब्बे की चाह नहीं थी वह चाहता था कि यह गाँव न उजड़े। उसे गाँववालों से बिछु़डने का गम साल रहा था। आज बिहारी पंडित का परिवार भी जा रहा था। उन्हें विदा करने के लिए बहुत कम लोग थे। क्यों कि ज्यादातर लोग पहले ही गाँव छोड़ चुके थे। बशंभरी गाँव की महिलाओं को गले मिलते हुए सुबक रही थी। बिहारी ने ट्रक में बैठकर आखिरी नजर अपने घर पर डाली तो उसकी आँखे भर आईं। ट्रक थोड़ा आगे पहुँचा तो भगवान शिव के मंदिर को देख उसने अंतिम अरदास की। गाँव के टियाले पर आज कोई नहीं बैठा था, लंगड़े हलवाई की दुकान भी बंद थी, वह भी यहाँ से निकलने की तैयारी में लगा हुआ था। जिस मिट्टी को बिहारी के पुरखों ने कर्मभूमि बनाया था, आज वह उससे सदा के लिए नाता तोड़कर जा रहा था। इस मिट्टी में मिली उसके पुरखों की आत्माओं की आवाज सारे सफर में
उसके कानों में गूँजती रही।

बिहारी पंडित ने हटली में यजमानी बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हो सका। लंगड़े हलवाई को बस स्टॉप पर दुकान मिल गई थी। उसका काम अच्छा चल निकला। बिहारी पंडित के बेटे बड़े थे सो पढ़ाई बीच में ही छोड़ काम धंधे की तलाश में जुट गए। बिहारी पंडित ने तंग आकर घोड़े पाल लिए और सामान बगैरह ढोने का काम करने लगा। जैसे-तैसे परिवार की रोजी चलने लगी। छप्पन भोग करने के आदी बिहारी को अब रूखी-सूखी रोटी ही नसीब हो रही थी। हटली में पहले ही हरिचंद पंडित की यजमानी थी सो लोग उसे किसी हवन तक में भी नहीं बुलाते थे। सरकार लंबे समय से मरब्बे देने के आश्वासन दे रही थी, लेकिन कहाँ इतने लोगों को जगह दी जाए यह योजनाएँ फाईलों में दबी पड़ी थी। हाथ में पैसा न होते हुए भी बिहारी ने कर्ज उठाकर बड़ी बेटी रानी के हाथ पीले कर दिए। उसे आस थी कि मरब्बे मिलते ही पहली फसल को बेचकर संतु लाला के कुछ पैसे चुका देगा, बाकी पैसे धीरे-धीरे दे देगा। आखिर तीन-चार साल बाद सरकार ने सबको राजस्थान के अनूपगढ़ में मरब्बे दे दिए। बिहारी भी मुरब्बे का कब्जा लेने लंगड़े हलवाई के बेटे जोगिंद्र के साथ अनूपगढ़ पहुँच गया। वहाँ अधिकारियों को कागज दिखाने के बाद उन्हें अपने-अपने मरब्बे दिखा दिए
गए। दोनों मरब्बों में मूंगफली की फसल खड़ी थी, और मिट्टी के कोठे भी बने हुए थे।

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