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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
संजना कौल की लंबी कहानी का एक अंश शहर दर शहर


पतझड़ के मौसम में चिनार के पत्ते अब भी लाल-सुर्ख हो उठते थे, लेकिन उनकी रोमानियत गायब हो गई थी। उनकी वह सिंदूरी रंगत अब जाड़ों के मौसम की पूर्व सूचना बन गई थी। कश्मीर का ठंडा मौसम! आत्मा को तोड़ने वाले अवसाद, वीरानी और अकेलेपन का दूसरा नाम!

और जाड़ों की शुरुआत के साथ ही सुजाता का मन अपने शहर से भागने लगता था। नए साल के पहले महीने में ही वह दफ्तर से छुट्टी लेकर एक छोटी सी अटैची तैयार कर लेती थी और जम्मू की बस मे सवार होकर अपने शहर से दूर चली जाती थी।

उस दिन सफर के लिए कुछ जरूरी सामान लेकर वह ऑटो से घर लौट रही थी। तेज चाल से सड़क पार करती हुई एक बनी-सँवरी जवान लड़की ऑटो के पहिए के नीचे आते-आते रह गई। सुजाता के मुँह से हल्सी सी चीख निकल गई जिस पर बातूनी ऑटो ड्राइवर ने उसकी तरफ देखा, "बहनजी, देखा आपने? कैसे आँखों पर पट्टी बाँधे चल रही थी? कट कर मर जाती तो हमारी कौन सुनने वाला था? एक ऊपर वाले को छोड़कर।"

वह बात करता रहा और जमाने को कोसता रहा। उसके अन्दर एक नदी बहती थी जिसमें तैरते हुए उसका सीधा-सादा निश्चिंत लड़कपन बीता था। जिसके किनारे तैरती हुई कई अल्हड़ किशोरियों की चोटियों को आपस में बाँधकर उसने उन्हें रुला दिया था। यह उसकी अपनी नदी थी, उसकी पहचान। वह अफसोस के साथ अपने उन सीधे-सादे दिनों को याद करता रहा जिन्होंने उसी नदी में जल-समाधि ले ली थी।

घर पहुँचकर सुजाता उसकी बातें याद करती रही। यही नदी थी जिसके साथ पल-बढ़कर वह जवान हुई थी। जिसके बहते पानी का एक-एक रंग उसका जाना-पहचाना था। सुजाता के पुरखों ने इस भूखण्ड के कई इतिहास अपने सीने में समेटे यह नदी पता नहीं कब से बहती चली आ रही थी। लेकिन अब नदी सूख गई थी, बेरंग, गंदला पानी बह रहा था।

नए साल की पहली तारीख और इस साल का पहला दिन दोनों सुजाता के घर पर एक चमकती हुई काँसे की थाली में उतर कर आते थे। सोने के रथ पर बैठकर आने वाली, हर सुबह पूरे संसार को प्रकाश से जगमगा देने वाली ऋग्वैदिक युग की देवी उषा के समान। नए साल की पहली तारीख को और हर साल वसन्त ऋतु के पहले दिन सुबह उठकर उस थाली के दर्शन किए जाते थे। सोने की तरह जगमगाते काँसे की उस थाली में प्रतीक रूप में रखी सारी चीजें बोलती हुई लगती थीं। अन्न की पूजा! धन की पूजा! फलदार वृक्षों को नमन् जीवन दायिनी वनस्पति को शत्-शत् प्रणाम! ज्ञान की पूजा! लेखनी को नमन!

थाल भरने की उस रस्म को पता नहीं कौन सी अन्धी गुफा लील गई थी।
नदी पता नहीं ऐसी कितनी वसन्त ऋतुओं की साक्षी थी, लेकिन अब मौसम का हाल कुछ और था। एक पूरे लहूलुहान कालखण्ड के बाद स्मृतियाँ धोखा देने लगी थीं। नदी के सीने पर तैरती हुई नावों से झरने वाला हब्बाखातून के गीतों का अमृत सूख गया था।

सुजाता की नदी, सुजाता की ऋतुएँ खो गई थीं। उसने अपनी आँखों से स्मृतियों को, इतिहास को धू-धू कर जलते हुए देखा था। इसीलिए जाड़ों की बर्फीली बोझिलता, सुनसान सफेदी में विलाप करते हुए नंगे पेड़ उसे पागल करने लगते थे। वह अपने इस प्यारे शहर से दूर चले जाने का मौका तलाशती रहती थी।
"भाई साहब, मैं लोगों से मिलकर आती हूँ। खाना बाहर ही खाऊँगी।" जम्मू पहुँचने के दूसरे या तीसरे दिन सुजाता ने नरेश भाई से कहा।
"खाना तुम यहीं खाओगी। उसके बाद ही कहीं बाहर जाओगी" नरेश भाई खड़े हो गए, "और सुनो। तुम जब भी आई, मैं यहाँ नहीं था। इस बार तुम जिससे चाहो मिल लो, लेकिन अपना हेडक्वार्टर तुम्हें यहीं बनाना है।" वे मुस्कराने लगे। अब भी वे पहले की तरह मुस्कराते थे, लेकिन आँखें वीरान रहती थीं। अकेलेपन और पता नहीं कितने अन्दरूनी हादसों की दास्तान बयान करती हुई।

"मैं आपके साथ ही रहूँगी, भाई साहब। लेकिन थाली तो मुझे दीजिए। यह काम मैं करूँगी।" सुजाता ने उन्हें चावल साफ करते हुए देखकर थाली छीन लेने की कोशिश की।
"चुपचाप बैठो और देखो कि मैं खाना कैसे बनाता हूँ और अकेला कैसे रहता हूँ।" नरेश भाई ने उसे हल्के से धक्का देकर कुर्सी पर बिठा दिया। वह बैठकर चुपचाप उनकी तरफ देखने लगी। कितना बदल गया है यह आदमी!
सुजाता की सबसे बड़ी बुआ के बेटे नरेश की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई नाना-नानी के पास हुई थी। सुजाता को उन्होंने गोद में खिलाया था इसीलिए उसे बहुत लाड़-प्यार करते थे। ननिहाल से गहरा लगाव था। वहाँ का मुहल्ला, अड़ोस-पड़ोस के लोग, उनके पढ़ने-लिखने का वह कमरा जो अब सुजाता का कमरा बन गया था अभी तक उनके अन्तर्जगत में कहीं गहरे बसा हुआ था। खून से भीगे समय का इतना लम्बा अन्तराल भी इन स्मृतियों को पोंछ नहीं पाया था।
पत्नी की मौत के बाद वे बेहद अकेले पड़ गये थे। पिछले साल जब सुजाता जम्मू आई थी, वे अपने इकलौते बेटे के पास अमरीका चले गए थे। दोनों बहनों से संबंध टूट गए थे। अभी वे दो कमरों के किराये के एक छोटे से मकान में रह रहे थे।
"शाम को तुम कहाँ मिलोगी? मैं स्कूटर पर लेने आ जाऊँगा।" सुजाता के साथ बाहर निकलते हुए उन्होंने कहा।
"आप परेशान न हों। मैं अपने आप आ जाऊँगी।" जंजीर के साथ बँधे मकान मालिक के भूरे रंग के खूँखार कुत्ते को देखते हुए सुजाता ने कहा। याद आया, नरेश भाई कुत्तों से कितनी नफरत करते थे।

मकान मालिक की बहू उस वक्त लैटर बॉक्स से चिट्ठियाँ निकाल रही थी। नरेश भाई ने सुजाता की तरफ देखा, "सुजाता, मुझे कोई चिट्ठी नहीं लिखता।" वह चुप रही। ऐसे शानदार आदमी की आवाज में इतनी टूटन! मुस्कराहट जैसे अन्दर की वीरान घाटियों से उठने वाले विलाप पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही हो।
"आपको चिट्ठियों की जरूरत नहीं पड़ती होगी, फोन है न आपके पास।" दरवाजे की तरफ जाते हुए सुजाता ने जैसे उन्हें दिलासा दिया।
"फोन और चिट्ठी में बहुत फर्क होता है, सुजाता। तुम नहीं समझोगी। खैर, छोड़ों इस बात को। शाम को जल्दी आ जाना। पता है न! जम्मू में जरायम पेशा लोग बहुत बढ़ गए हैं। रात के दस बजे के बाद यहाँ मर्द भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करते।" उन्होंने दुलार से सुजाता के गाल पर थपकी दी, "जाओ, देर हो रही है।"

भीड़ भरे उस बाजार में सोने के गहनों की बीसियों दुकानें थी। दाईं तरफ चलते हुए सुजाता बीच की एक गली में घुस गई। मन्दिर के बाद शुरू होने वाले मुहल्ले में तंग गलियों का जाल बिछा हुआ था। परेशान करने वाली गलियों की उस भूल-भुलैया से होती हुई वह सफेद रंग के एक छोटे से दरवाजे पर रुक गई। मँझली मामी का ठिकाना! विस्थापन का वह पहला साल था जब मँझले मामा को एक गन्दी बस्ती में मामूली से किराये पर एक कमरे का दड़बानुमा मकान मिल गया था। वह जगह जहरीले साँपों से भरी हुई थी। दो-तीन हफ्ते बाद ही मामा साँप के काटने से चल बसे थे। जब से मामी किराये के कई मकान बदल चुकी थी। सीढ़ियाँ खतरनाक रूप से तंग थीं। जंगला गायब था। जरा सी असावधानी से आदमी नीचे सीमेण्ट के आँगन पर गिर सकता था। कमरे का पर्दा हटा कर सुजाता ने अन्दर झाँका। मामी छोटे से चौके में बर्तन साफ कर रही थी। मँझली मामी के बाल आठ साल में पूरी तरह पक गए थे। चेहरा झुर्रियों से भर गया था। पिछले दो साल से कमर में स्थायी रूप से दर्द रहने लगा था।

मैले बर्तनों से सिर उठाकर मामी ने सुजाता को देखा और उठकर उसे गले से लगा लिया। फिर उसे सामने वाले कमरे की तरफ भेज दिया, "अभी आई! ये बर्तन समेट लूँ।"
वह बड़ा सा कमरा अपनी दास्तान आप बयान कर रहा था। उखड़े पलस्तर वाली दीवारें, जगह-जगह सीलन के दाग, दाईं दीवार पर मामा की तस्वीर के साथ साईं बाबा की एक रंगीन तस्वीर! अरुन्धती मौसी गले तक कम्बल ओढ़े लेटी हुई थीं। उसने लेटे-लेटे अपनी बाँहें फैला दीं। उसके गले से लगी हुई सुजाता ने बात शुरू की, "कैसी हो, मौसी?"
"बस, मौत के दिन गिन रही हूँ। इधर आओ, ठीक से बैठो।" लम्बी साँस लेकर मौसी ने कम्बल का एक सिरा सुजाता के पैरों पर डाल दिया।

इधर एक-दो साल से सुजाता ने देखा था, अरुन्धती मौसी और मँझली मामी में एक शीत युद्ध-सा चलने लगा था। स्कूल की नौकरी से रिटायर होने के बाद बाल विधवा अरुन्धती मौसी एक-एक पैसा दाँत से पकड़ने लगी थी और यही बात मामी को बुरी तरह अखरने लगी थी। दोनों में छोटी-छोटी बातों को लेकर खासी कहा-सुनी होने लगी थी।
अन्दर आकर मामी सुजाता के सामने बैठ गई। "क्यों सुजाता? मामा नहीं रहे तो मामी अब कुछ भी नहीं?"
"कैसी बातें करती हो, मामी? तुम्हीं से तो इस घर के दरवाजे खुले हुए हैं। ऐसा नहीं सोचते।" सुजाता को खुद अपनी बात घिसी-पिटी लगने लगी। उसे लगा, एक मनहूस रेतीला विस्तार है जिसमें है खोई हुई नदियाँ। अपनी आबोताब खो चुके चिनार के पत्ते। जल कर राख हो चुकी स्मृतियाँ। इस रेगिस्तान के दोनों तरफ लोग खड़े थे। बाँहें फैलाए एक दूसरे तक पहुँचने की लाचार कोशिश में खोखले शब्द उगलते हुए।

"कुछ नहीं सोचती मैं। जमाना ही बदल गया है। पहले तुम चाय पी लो।" मामी ने बात खत्म करके चाय का प्याला बढ़ा दिया।
"रीता दिखाई नहीं देती?" चाय पीते हुए सुजाता ने सामने वाले छोटे से कमरे की तरफ देखा।
"उसे आज लड़के वाले देखने ले गए हैं। अब आती ही होगी। यह बोझ उतर जाए तो मैं चैन की नींद सोऊँ। बात पक्की समझ लो।" मँझली मामी के चेहरे पर इत्मीनान झलक आया।

रीता मँझले मामा की इकलौती, बेहद लाड़ली बेटी थी, कश्मीर छोड़ने के कुछ ही देर बाद मामी को अपनी सुन्दर, जिन्दगी से भरपूर बेटी की जवानी फटी पड़ती हुई लगने लगी थी जिससे उनकी नींद उड़ गई थी। तंग गली के दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे मकान थे। सामने वाले मकान की चौड़ी छत पर जवान लड़के सिगरेट पीते रहते थे और बीच-बीच में अपनी छत पर कपड़े फैलाती हुई या गीले बीलों को सुखाती रीता पर जुमले कसते रहते थे। लड़कों का गुस्सा मामी रीता को कोस कोस कर या उसे एकाध हाथ जमा कर निकालती थी। सुजाता ने खाना खाया। कश्मीर की बातें सुनाईं। कुछ उनकी बातें सुनीं। फिर ऊबकर कम्बल ले लिया और गहरी नींद सो गई।

नींद में ही कोई उससे जोर से लिपट गया। उसने हड़बड़ा कर आँखें खोलीं और देखा, उससे लिपटी-लिपटी रीता मुस्करा रही थी। सुजाता ने उठकर उसे चूम लिया। रीता का रंग दूध की तरह उजला था। घने, काले बालों की चोटी कमर तक लहराती थी। आँखें छोटी-छोटी थीं, लेकिन नाक और होंठ जैसे साँचे में ढले हों। सुजाता को मन ही मन आश्चर्य हुआ। कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुकी इतनी सुन्दर लड़की अब तक अनब्याही कैसे रह गई? शायद पहली बार मामी अपनी बेटी के लिए बहुत प्यार से खूब सारे बादाम और दालचीनी से भरा हुआ कहवा बनाकर ले आई। एक प्याला सुजाता को पकड़ा दिया और एक खुद ले लिया। मौसी कहवा नहीं पीती थी।

"अब बताओ, कैसा है लड़का? पसन्द कर लिया तुम्हें?" सुजाता ने छेड़ा।
"अरे, सुजाता दीदी! वो मुझे क्या पसन्द करेगा? समझ लो, मैंने ही उस बेचारे को पसन्द कर लिया।" रीता ने ठहाका लगाया, "और जानती हो? पूछने लगा, खाना बनाना आता है? मैंने कहा, मैं जब पाँचवीं में पढ़ती थी तभी चाय बनाना सीख गई थी।"
"छोटी सी हाँ कह देनी थी। यह सब कहने की क्या जरूरत थी? लड़के इस तरह की बातें पसन्द नहीं करते।" मामी ने आतंकित होकर कहा।
"छोड़ो भी।" रीता ने हवा में हाथ नचाया, "उठकर खाने की तैयारी करो। होटल के खाने से मेरी भूख नहीं मिटती।"
लगभग दस मिनट बाद मकान मालिक का बेटा आ गया, "आपका फोन है।"
"वही होंगे।" मामी ने घबरा कर कहा और लगभग भागती हुई फोन सुनने चली गई। दो-तीन मिनट बाद लौट आई और साड़ी के पल्लू से चेहरा दबाकर फूट-फूटकर रोने लगी। लड़के वालों का साफ साफ इन्कार! रोते-रोते ही गुस्सा उबल पड़ा। उठकर बेटी की पीठ पर दो थप्पड़ मार दिए, "इसी कुलच्छनी ने कुछ उल्टा-सीधा बक दिया होगा। गज भर की जबान जो है इसके मुँह में।"
अरुन्धती मौसी झपटकर उठी और रीता को अपने पास खींच लिया, "भगवान ही मालिक है इस घर का। जवान बेटी पर जब-तब हाथ उठाया जाने लगा है।"

सुजाता ने बुरी तरह रोती हुई रीता के आँसू पोंछे, "क्या बातें हुईं वहाँ? बताना तो!"
आँसू पोंछने के लिए रीता ने रुमाल भी नहीं उठाया। कमीज के दामन से ही मुँह पोंछने लगी, "कहने लगा, मेरी बड़ी भाभी बहुत सुन्दर है। होटल में रिसैप्शैनिस्ट है। उसके बाल कटे हुए हैं। शादी के बाद तुम्हें भी अपने बाल कटवाने होंगे। बताओ, उस लड़के के कहने पर मैं अपने बाल क्यों कटवा दूँ? वो भी उतना ही पढ़ा-लिखा है जितनी मैं हूँ। मैंने साफ इन्कार कर दिया। फिर पूछने लगा, एम. ए. पूरा क्यों नहीं किया? मैंने कहा, हम तो कश्मीर से उजड़ कर आ गए थे, एम. ए. बीच में ही रह गया। आपका तो यहाँ पर अपना मकान है। आपने बी. एस. सी. के बाद एम. एस. सी. क्यों नहीं किया? इस पर वह घूर कर देखने लगा। हमारी परेशानियाँ कोई नहीं समझता। शादी से पहले कोई ऐसी शर्तें रखता है? और उजड़े हुए लोगों से यह सवाल कि पढ़ाई पूरी क्यों नहीं की? सुजाता दीदी, सच कहती हूँ मेरे पास एक छोटी-सी नौकरी होती मैं थूकती भी नहीं इन लड़कों पर।" रीता ने आँसू पोंछे और सरक कर सुजाता के पास आ बैठी।
सुजाता ने मामी की तरफ देखा, "इसे परेशान मत करना। खाने के बाद अब यह सो जाएगी। शादी आज नहीं तो कल हो ही जाएगी। ऐसा थोड़े ही होगा कि कुँवारी रह जाए।"

लेकिन मामी ने फिर रोना शुरू किया, "तुम नहीं जानती लोग कितने बुरे हैं। पिछली बार भी एक जगह बात पक्की हो गई थी। वो लोग यह कह कर पीछे हट गए कि घर में कोई मर्द नहीं है। तुम्हारे मामा होते तो ऐसा हो जाता कहीं? लोग अब मुँह खोल कर लेन-देन की बात भी करने लगे हैं। पहले कहाँ होता था ऐसा? एक तो अच्छे लड़के मिलते नहीं। जो लड़के यहाँ नौकरी से लगे हैं, उनके माँ-बाप बात पक्की करने से पहले वकीलों की तरह जिरह करते हैं। पहले दहेज, फिर सरकारी नौकरी करने वाली लड़की। जिन लोगों के यहाँ जम्मू में अपने मकान हैं, वो हमें रिफ्यूजी कहते हैं। हमारी बेटियों के लिए सौ तरह की बातें करते हैं कि हम जैसे लोग किराए के मकानों की तलाश में अपनी जवान बहू-बेटियों को भेजते हैं, मकान-मालिक को रिझाने के लिए। अब बताओ, कैसे पार लगे इस लड़की की नाव? कितना मुश्किल से तो वो लोग मान गए।"

रीता चीख उठी, "गोली मारो सबको। मैं बिरादरी से बाहर शादी करूँगी। देख लेना।"
माँ ने बेटी की तरफ देखा, "करम फूट जाएँगे इन लच्छनों से।"
सबके रोकते-रोकते सुजाता उठ गई और दरवाजे से बाहर निकल कर चप्पल पहनने लगी। फिर आने का वादा किया और बाहर निकल गई।
सड़क पार करके पुल पर चलते-चलते उसे याद आया, पिछली बार जम्मू आने पर जब वह सबसे छोटे चाचा-चाची से मिलने गई थी, उन्होंने कमरे में बैठे एक और आदमी को उसका परिचय दिया था, "यह हमारे घर की बहुत बहादुर बच्ची है। मेरे सबसे बड़े भाई की बेटी। ये लोग कश्मीर में ही रह रहे हैं।"
उस अजनबी ने सुजाता को ऊपर से नीचे तक देखा, "आपको वहाँ कश्मीर में ग्रीन कार्ड मिला हुआ है?"
"ग्रीन कार्ड का मतलब समझते हैं आप?" सुजाता को उसकी बेवकूफी पर हँसी भी आई, गुस्सा भी।
"नहीं" उसने छोटा सा जवाब दिया।
"फिर इस तरह का सवाल कैसे करते हैं?"
वह आदमी पहले चुप रहा, फिर बात का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया, "बहरहाल, हम तो कश्मीर लौटने वाले नहीं हैं। कश्मीर को तो समझ लीजिए हमने दान कर दिया।"

सुजाता ने आवाज को भरसक विनम्र बना लिया, "एक तो कश्मीर आपके बाप-दादा की जागीर नहीं है कि उसे आप अपनी मर्जी से जिस किसी को चाहें दान कर दें। दूसरे यह आप यहाँ बैठे-बैठे मुझसे कह रहे हैं। कश्मीर के मुसलमान के सामने बैठ कर यह सब दोहरा दें तो मैं आपको मानूँ। लेकिन उसके सामने तो कश्मीर आपका अपना वतन बन जाएगा। क्यों?"
हमला अब दूसरी तरफ से शुरू हो गया, "हमें गहरा सन्तोष है कि हमने समय रहते कश्मीर छोड़ दिया। अपना धर्म बचा लिया।"
सुजाता पहले की तरह विनम्र बनी रही, "वहाँ किसी के धर्म पर कोई आँच नहीं आई। इसलिए कि यह न तो सिकन्दर बुत शिकन का जमाना है, न पठानों का युग। यह आज के जमाने की पोलिटिकल लड़ाई है। आप तो नारेबाजी और पोस्टरबाजी पर जा रहे हैं।"
वह आदमी अड़ा रहा, "मैं आपको सबूत दे सकता हूँ और हमारी लड़कियों के साथ वहाँ जो हुआ सो? भगवान की कृपा से हमारे घर की बहू-बेटियों पर कोई आँच नहीं आई।"

"अपने धर्म की तो आपको इतनी चिन्ता है, लेकिन कश्मीर छोड़ने से पहले आपको उन बहू-बेटियों का ध्यान क्यों नहीं आया जिनका संबंध आपके धर्म से था, जो वहाँ से निकल नहीं पा रही थीं क्या वे आपकी बेटियाँ नहीं थीं? अपना धर्म बचाने की बात जब सोची थी तो उनका भी तो कुछ सोचना था।"
सुजाता की इस बात पर वह आदमी चुप रहा। फिर थोड़ी देर बाद उठकर बाहर चला गया।
पढ़े-लिखे ऋषिवंशी। सुजाता ने व्यंग्य से सोचा था।

पुल के बाद डाकखाना आ गया। दाईं गली में नरेश भाई का घर था।

२९ दिसंबर २०१४

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