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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से विजय सापत्ति की कहानी- साहित्य का अखाड़ा


बहुत समय पहले की बात है। मुझे एक पागल कुत्ते ने काटा और मैंने हिंदी साहित्यकार बनने का फैसला कर लिया। ये दूसरी बार था कि मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा था और मैं अपनी ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ कोई महत्वपूर्ण फैसला कर रहा था। पहली बार जब एक महादुष्ट पागल कुत्ते ने काटा था तो मैंने शादी करने का फैसला किया था, उस फैसले पर आज भी अफ़सोस है, खैर वो कहानी फिर कभी!

तो हुआ यों कि उस कुत्ते ने मुझे काटा और जब मुझे हॉस्पिटल में इंजेक्शन लगाए जा रहे थे तो मैंने सोचा कि इस घटना पर कुछ लिखना चाहिए। दर्द दूर हुआ तो मैं अपने दफ्तर के लिये निकल पड़ा। रास्ते में मेरे दोस्त बाबू से मुलाकात हुई, मैंने उसे कुत्ते के काटने की कहानी बतायी, वो जोर जोर से हँसने लगा, “साले! तुझे काटने के कारण वो कुत्ता जरुर पागल हो गया होगा"।
मैंने कहा, “यार बाबू, दिल बहुत दुखी है, सोचता हूँ अपने दुःख पर एक कविता लिखूँ।”

उसने कहा, “अबे तो लिख न, कौन रोक रहा है। हम दोनों ने फिर ठहाका लगाया।
मैंने कहा, “सुन अर्ज किया है-
उसने कहा, “हाँ बोल
मैंने कहा, “अर्ज किया है
उसने कहा “अबे अब आगे तो बोल सही। ऑफिस भी तो जाना है
मैंने कहा, “हाँ यार, ये तो अच्छी लाइन हो गयी। सुन-
“पागल कुत्ते ने मुझे काटा है
मुझे उससे बदला लेना है
पर क्या करें यारो,
मुझे ऑफिस भी तो जाना है!”

बाबू ये सुनकर जोर जोर से हँसने लगा और कहा, “हाँ यार ये सही है। इसे पूरी लिख ले और कहीं पर छपने को भेज दे।” मैंने सहमति में सर हिलाया और उससे कहा, “आज से मेरे भीतर एक साहित्यकार ने जन्म लिया है।” हम दोनों हँसते हुए ऑफिस चले।

लंच के वक़्त बाबू आया। मुझे भूखा बैठा देखकर वो मुझे कैंटीन लेकर गया और वहाँ पर रोटी सब्जी खिलाई। खाने के बाद उसने मुझे पुछा, “अबे कुछ और लिखा है, या वहीं पर रुक गया है।”

मैंने उसे देखकर मुस्कराते हुए कहा, “लिखा है न यार, सुन, अर्ज किया है,” उसने मुझे रोका और अपनी शर्ट के बटन खोलते हुए कहा, “साले एक बार और अर्ज बोलेगा तो मैं तुझे पीट दूँगा। यहीं पर। सच में।"
मैं खिसिया गया, मैंने कहा, “अच्छा सुन!”
“पागल कुत्ते ने मुझे काटा है
मुझे उससे बदला लेना है
पर क्या करें यारो,
मुझे ऑफिस भी तो जाना है।
बॉस पर गुस्सा बहुत आता है
पर क्या करें, तनख्वाह तो उसी से लेना है
दुनिया की ऐसी की तैसी हो जाये
अब मुझे लिखकर जवाब देना है
मुझे साहित्यकार बन जाना है।”

मैं चुप हुआ, देखा तो बाबू भी चुप था। उसने कहा, “यार कुछ ज्यादा मज़ा नहीं आ रहा है। खैर अभी तो शुरुवात है। तू लिखता रह।"

मैंने उस कविता को शहर के कुछ अखबार और पत्रिकाओं में भेज दिया। सभी ने उसे वापस कर दिया। और मुझे नेक सलाह दी कि मुझे लिखना छोड़ देना चाहिए। एक बन्दे ने यह तक कह दिया कि मैं चाय की दूकान खोल लूँ, लेकिन लिखूँ नहीं! उसके बाद मैंने कई कविताएँ और कहानियाँ लिखीं, और कई जगहों पर छपने के लिये भेजी, पर कहीं से कोई जवाब नहीं आया। एक दो बार कुछ संपादकों से बात हुई तो उन्होंने बताया कि मेरी कविताएँ और कहानियाँ पढ़ना तो छोड़ो, देखने के भी लायक नहीं रहती हैं। मैं बहुत निराश था। बहुत दुखी था। बाबू भी मेरे दुःख से परेशान था, उसे मुफ्त की चाय और समोसे जो नहीं मिल पाते थे। उसने कुछ लोगों से बातें कीं और साहित्य जगत के बारे में कुछ जानकारी इकट्ठा की।

फिर एक दिन रविवार की छुट्ठी थी, वो सुबह सुबह मेरे घर आया, हम दोनों निकल पड़े, वो मुझे शहर के पुराने मोहल्ले के एक पुराने से घर में ले गया, घर के दरवाजे के बाहर लिखा था। “बाबा की कुटिया।" मैंने बाबू से कहा, “अबे ये, इतना बड़ा घर कुटिया है? तो फिर हमारे घर क्या है!”

इतने में घर का दरवाजा खुला और एक उम्रदराज बूढ़े आदमी ने बाहर कदम रखा। और हमें भीतर आने का इशारा किया। मैंने उनकी ओर गौर से देखा, उनकी उम्र काफी थी, उनका अनुभव भी बहुत ज्यादा था। मुझे उन्होंने अपने पास बिठाया और कहा, “देखो बेटा, मेरा असली नाम तो कुछ और था लेकिन अब सब मुझे लिटरेचर बाबा के नाम से ही जानते हैं। और मैं तुम जैसे साहित्य के भूखे दुखियारों की मदद करता हूँ इसलिये मेरा नाम लिटरेचर बाबा पड़ गया।” मैंने उन्हें फिर से प्रणाम किया और कहा, “बाबा मेरी मदद करिये, मेरे लिखे को कोई नहीं पढ़ता है, सभी मेरी कविता और कहानी को रिजेक्ट कर देते है। कुछ करिये।”

लिटरेचर बाबा ने एक गहरी साँस ली और कहा, “बेटा, तुम क्यों अपना सुन्दर सा जीवन इस साहित्य के चक्कर में व्यर्थ करना चाहते हो, यहाँ तुम्हे कोई घास नहीं डालेगा, तुम इस भीड़ में कहीं खोकर रह जाओगे और अपने मन की शान्ति खो दोगे। यहाँ रोज नए झंझट होते हैं, फसाद होते हैं, लड़ाई –झगड़े तो सुबह शाम होते हैं, कोई किसी को पसंद नहीं करता है, पुराने साहित्यकार नए साहित्यकार को आगे बढ़ने नहीं देता। तुम्हें आलोचक मार कर ही दम लेंगे। प्रकाशक उन्हीं को छापता है, जिनके नाम से कुछ किताबें बिक सकें। तुम्हें कोई भी संपादक भाव नहीं देगा। तुम खुद को साहित्यकार बना कर जी का जंजाल मोल ले रहे हो।”

इतना कहकर वो हाँफने लगे। मैंने उठकर उन्हें पानी पिलाया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, “बेटा साहित्य की दुनिया कुछ अच्छी नहीं है, ये तुम्हारे भीतर के इंसान को मारकर उसे झूठा, दोगला, चालाक, चतुर, एक दूसरे की टाँग खींचने वाला, दूसरों के प्रति बुरा सोचने वाला और सबसे बुरी बात, खुद को श्रेष्ठ साबित करने की दौड़ में शामिल करा देगा”
मैंने कुछ रुककर कहा, "सारे साहित्यकार तो ऐसे नहीं होते है न?
उन्होंने हँसकर मुझे पूछा, “कितने साहित्यकारों को जानते हो?”
मैंने कहा, “प्रेमचंद, बाबा नागार्जुन, रांगेय राघव इत्यादि।”

उन्होंने फिर हँसकर कहा, “बेटा मुरारी, ये सब अच्छे लोग तो अब इस धरती पर नहीं है न, इनकी जगह पर दूसरे तथाकथित साहित्यकारों ने कब्ज़ा किया हुआ है जो कि अपने आपको इनसे बढ़कर बतलाते हैं”
मैं गहरी सोच में पड़ गया!

लिटरेचर बाबा फिर भीतर गए और अपने लिये ड्रिंक्स लेकर आ गए, बाबू ने बड़ी आशा से उन्हें देखा, बाबा ने उसे भी एक पैग बना कर दिया, फिर मुझसे पुछा, “तुम लोगे?" मैंने कहा, “मैं पीता नहीं।" बाबा बड़ी जोर से हँसे, और कहा, “अरे पियेगा नहीं तो साहित्य की दुनिया में जियेगा कैसे? गोष्ठियों में जब शामिल होगा, तो थोड़ा पीकर “सेट” होना पड़ेगा न, तब ही कहीं जाकर तो मुँह से आवाज निकलेगी, दूसरों को नीचा दिखाकर आगे बढ़ना होता है न?"

मैंने नकारात्मक ढँग से सर हिलाया और कहा, “नहीं जी, नहीं। मैं बिना पिए ही साहित्य की दुनिया में अपना नाम बनाना चाहता हूँ! और दुसरों को बिना नीचा दिखाए अपने लिखे के बलबूते पर अपना नाम कमाना चाहता हूँ।”

बाबा ये सुनकर थोड़े शांत हो गए, गंभीर हो गए। फिर उन्होंने कहा, “ठीक है मुरारी, तुम एक भले आदमी हो, मैं तुम्हारा गुरु बनने के लिये तैयार हूँ।” मैंने उनके चरण छू लिये, उन्होंने आशीर्वाद दिया और कहा, “अब सामने बैठो और मैं जो जो कहता हूँ वैसे वैसे करते जाओ!”

उन्होंने कहा, “सबसे पहले तो भैया, अपना नाम बदलो, ये मुरारी नाम नहीं चलेगा। कुछ और रख लो!”
मैंने कहा, “बाबा, अब नाम क्यों बदलूँ, इसी नाम से पढ़ाई की है और इसी नाम से शादी भी हुई, अब तो बच्चों के बाप का नाम भी यही है और आप कहते हैं कि नाम बदल डालो! बात कुछ जमी नहीं बाबा।”

बाबा ने हँसते हुए कहा, “साहित्य की दुनिया में कुछ फैंसी नाम चाहिए कुछ नया, जो मन को अच्छा लगे। सुनने- पढ़ने में अच्छा लगे।” फिर उन्होंने कुछ सोचा और कहा, “अच्छा मुरारी के बदले में कृष्ण रख लो, एक ही तो बात है, कोई पूछे तो कह देना कि उपनाम है। ठीक है?”
मैंने थोड़ी देर सोचा और कहा, "ठीक है जी।”
फिर बाबा ने एक घूँट और लिया, बाबू ने एक और पैग ले लिया।
बाबा ने कहा, “मुझे अपनी कविताएँ या कहानी दिखलाओ।”
मैंने निकाल कर दिया, मेरा कागजों से भरा झोला तो हमेशा साथ में ही रहता था।

बाबा ने पढ़ा और कहा, “ये क्या लिखा है यार, कुछ ढँग का तो लिखो। ये कोई कविता है? कहानी ऐसे लिखते है? बोलो? ये कुत्ते वाली कविता... ये कोई कविता है बोलो? कचरा लिख कर रखे हो।”

मैं रोने लगा। बाबा थोड़े विचलित हो गए, बाबू भी रोने लगा (वो नशे में ही रो रहा था, पर मेरा साथ तो दे रहा था) बाबा ने कहा, “अरे तुम दोनों चुप हो जाओ रे।”
मैं सुबक रहा था, उन्होंने मुझे चुप कराया। फिर उन्होंने कहा, “क्या तुम इन सब से बेहतर लिख सकते हो?”
मैंने कहा, “हाँ! जी हाँ।”
बाबा ने कहा, “तो फिर लिखो और पत्रिकाओं को भेजो, फिर देखते हैं।”

मैंने उन्हें प्रणाम किया और बाबू को लेकर बाहर आया।
अब मुझमें एक नया जोश था, मैंने लिख कर भेजना शुरू किया, किसी ने नहीं छापा, सबने वापस कर दी।
मैंने दो हफ्ते बाद बाबू के साथ फिर बाबा की शरण में पहुँचा।
बाबा ने ड्रिंक्स पीते हुए पूरे बात सुनी। और कहा, “एक काम करो मुरारी, तुम किसी अच्छे विद्वान साहित्यकार को अपनी कविता दिखाओ, और देखो कि इनमें क्या बेहतरी बन सकती है।"

मैंने और बाबू ने एक महान साहित्यकार को ढूँढा और उनके पास पहुँचे। उन्हें अपनी कविता दिखाई और कहा, “सर, आप तो साहित्य में अच्छी पैठ रखते हैं, मैंने कुछ लिखा हुआ है। आप अगर उनमें मौजूद गलतियों को ठीक कर देंगे तो मुझे बुहत ख़ुशी होगी, आपका आशीर्वाद मिल जाएगा।"

उन्होंने मेरी कविताएँ मेरे हाथ से लीं और हम दोनों को बैठने को कहा। फिर उन्होंने पूरी कविताएँ मन ही मन में पढ़ीं और कहा, “सुनो मुरारी, अभी मुझे कुछ दिन दो, मैं कोशिश करूँगा कि, इसमें मैं कुछ सुधार कर सकूँ।”

एक हफ्ते के बाद उन्होंने हमें बुलाया और कहा,” भाई मुरारी इसमें कुछ नहीं हो सकता है, ये सब कविताएँ साहित्यिक स्तर की नहीं हैं।”

हम दोनों मुँह लटका कर बाहर निकले, मैं अब उदास हो चला था। कुछ दिन मैंने कुछ नहीं लिखा। फिर एक महीने के बाद मैंने अपनी ही कई कविताओं को कुछ बदले हुए अंदाज में बहुत सारी पत्रिकाओं में छपा हुआ देखा, कवि/लेखक के नाम पर मैंने उस महान साहित्यकार का नाम लिखा देखा। मेरा दिल जल गया, मैं और बाबू गुस्से में उस महान साहित्यकार के घर पर पहुँचे। उन्होंने हमें कोल्ड ड्रिंक पिलाया और बिना हमारे पूछे हमसे ये कहा, “ये दुनिया का दस्तूर है भाई, कल तुम भी यही करोगे, जो मैंने आज किया है, इसलिये गुस्से को नाली में थूक दो और आगे से बेहतर लिखो। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।"

हम दोनों बहुत गुस्से में उबलते हुए लिटरेचर बाबा के घर पर पहुँचे।
बाबा ने सारी बात सुनी और कहा, “अब इस साहित्यिक दुनिया का यही दस्तूर है, कोई क्या करे। छोड़ो, अब सुनो, अब तुम अपनी कविताएँ लड़की के नाम से लिख कर सभी को भेजो।”
मैं हड़बड़ाया, मैंने कहा, “लड़की बनकर, ये क्या बात हुई?”
बाबा ने कहा, “छपना है तो जो कहता हूँ वो करो।”

मैंने वैसे ही किया। अब मैंने कृष्णा के नाम से अपनी रचनाओं को भेजा। उन रचनाओं को सारी पत्रिकाओं ने छाप दिया। संपादकों और आलोचकों ने बहुत तारीफ़ की। कुछ संपादकों ने मिलने के लिये भी कहा।

और तो और, पाठकों के पत्र आने लगे, बहुत पाठकों ने तारीफ़ की, कुछ ने प्रेम प्रदर्शन भी कर दिया, कुछ ने शादी के लिये भी निमंत्रण दे दिया, इन सब बातों से मेरा दिल जल गया। जब भी कोई पाठक मुझे प्रेम निवेदन भेजता था, मैं गुस्से में अपने सर के बाल नोच बैठता था, इसी बाल-नोचू प्रोग्राम के कारण मैं गंजा होने लगा।

मैंने बाबू से सलाह ली और हम दोनों फिर लिटरेचर बाबा के घर पहुँचे। उन्हें अपनी दास्ताँ सुनाई। उन्होंने कहा, “चलो अब एक काम करो। तुम अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं की कहानी और कविता की चोरी करो और उन्हें थोड़ी फेर बदल के साथ लिखकर भेजो।”
मैंने कहा, “बाबा ये तो चोरी हुई न, मैं नहीं करूँगा।"

बाबा ने सुना और फिर अपने लिये शराब का एक पैग तैयार किया। बाबू भी अपने लिये एक गिलास लेकर आ गया। बाबा ने उसे भी शराब दी और फिर एक घूँट लेकर मुझसे कहा, “बेटा मुरारी, जैसा कह रहा हूँ वैसा कर, मैं तुझे एक दिन तेरी कुत्ते वाली कविता पर लिटरेचर अकादमी का अवार्ड दिलवाऊँगा।”

मैंने अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं की कहानियाँ और उपन्यास पढ़ पढ़कर उनके प्लाट चुराने शुरू किये और उनको थोड़ा फेर बदल कर लिखा और अपने नाम से पत्रिकाओं को छपने भेजा। फिर क्या था, मेरे अपने नाम से मेरी कहानियाँ छपने लगी। अब मैं धीरे धीरे प्रसिद्ध होने लगा था। कई पत्रिकाओं में छपने लगा था। हम लोग फिर लिटरेचर बाबा के पास पहुँचे, उन्होंने दो पैग लगाने के बाद कहा, अब तुम पुरस्कारों के लिये अप्लाई करना शुरू करो। मैंने कई जगह सम्मान के लिये आवेदन किया पर कहीं बात नहीं बनी, मैं थक गया। मैं फिर रोते गाते लिटरेचर बाबा की शरण में पहुँचा, उन्होंने मेरी गाथा सुनी और कहा, “इन सम्मान देने वाली समितियों को धन से मदद करो। ये तुम्हें पुरस्कार देंगे।"

बस फिर क्या था, करीब करीब हर सम्मान में मेरा नाम होने लगा। लोग मुझे बुला बुलाकर पुरस्कार देने लगे। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई, लेकिन इस ख़ुशी के पीछे, मेरा वेतन बँटने लगा और करीब करीब हर दिन मेरे घर में अखाड़े का माहौल रहने लगा। लेकिन साहित्य के पुरस्कार के लिये मैं कुछ भी सहने के लिये तैयार था।

ऐसे ही एक सम्मान कार्यक्रम में मैंने ५०००/- रुपये दिए और बदले में एक शाल, एक नारियल और एक प्रमाणपत्र लेकर आया, ये एक अच्छा बड़ा सा पुरस्कार था, मैंने बाबू और बाबा को पार्टी दी, जब टेबल पर खाना आया तो, बाबू ने खाना खाने से इनकार कर दिया और नशे में चिल्लाकर बोला, “अबे साले, दूसरो की मेहनत से लिखे कहानी और कविता के प्लॉट्स चुराकर लिखता है और उस पर पैसे देकर पुरस्कार खरीदता है! अपने दम पर कुछ लिख कर पुरस्कार ला, फिर पार्टी देना।"

मैं क्या कहता! उस रात किसी ने खाना नहीं खाया, सिर्फ लिटरेचर बाबा ने खाया। और मुझे देखते हुए कहा “अब तुम ये करो कि अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं का साहित्य पढ़ो, उनकी रचनाओं का मर्म समझो और उसे बेस बनाकर कहानियाँ या कविता लिखो।"
 
मैंने फिर बैल की तरह सर हिलाया और कुछ महीनों के लिये अज्ञातवास में चला गया और करीब एक हजार किताबें पढ़ डालीं, अब मुझे बहुत कुछ समझ में आ रहा था कि कैसे लिखा जाता है। मैंने धीरे धीरे कविताएँ और कहानियाँ लिखना शुरू किया। भले ही विदेशी या दूसरी भाषाओं के साहित्य का अंश मेरी रचनाओं में रहता हो, पर मैं ही अब अच्छी तरह से लिखने लगा। दूसरी भाषाओं से प्रेरित होकर और बेहतर लिखना शुरू किया, और इस तरह से मैं अपने दम पर ही अब लिख रहा था। और बाबू इस बात से बहुत खुश था।

उन्हें मैंने पत्रिकाओं में छपने के लिये भेजना शुरू किया। कुछ समय लगा, पर अब ये भी छपने लगीं, मेरा पहले ही कुछ नाम हो चुका था और धीरे धीरे प्रसद्धि मिलने लगी।

फिर कुछ साहित्यकारों ने कहा यार अपनी किताबें छपवा लो, मैंने कई प्रकाशकों के पास अपनी कविता और कहानी की पांडुलिपि भेजी, पर सबने यही कहा, यार कुछ रूपए दो तो छपवा देंगे, सिर्फ तुम्हारे नाम से छपे, अभी तुम इतने बड़े नहीं हुए हो।

कुछ दिनों के बाद, मैं फिर लिटरेचर बाबा की शरण में था। बाबा ने कहा, “देखो मुरारी, अगर सहित्य के जगत में आगे की यात्रा करनी है तो भाई किताबें तो छपवाना ही पड़ेगा। और अब जो ट्रेंड है, उसके चलते तुम्हें तो पैसे देकर ही छपवाना पड़ेगा।"

मैं मरता न क्या करता की स्थिति में पहुँच चुका था, सो कुछ प्रकाशकों की शरण में गया, अपनी गाढ़ी कमाई उन्हें सौंपी और किताबें छपवाईं। बहुत सी साहित्यिक समितियों को अपनी किताबें भेजीं, नाम हुआ, पुरस्कार मिला और मेरी साहित्य की गाड़ी चल पड़ी। अब मुझे साहित्यिक गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा, मेरा नाम होने लगा और मैं पूर्ण रूप से एक साहित्यकार बन गया। लिटरेचर बाबा की कृपा थी। और बाबू जैसे जानदार दोस्त का साथ!

अब पत्रिकाओं, किताबों और अखबारों में मेरी कविताएँ और कहानियाँ छपने लगी थीं। कभी कभी कोई पुरस्कार भी मिल जाता था। और यदा कदा सम्मान भी होते रहते थे। साल में एक या दो किताबें भी छपने लगी थीं, महीने में एक-दो गोष्ठियाँ जरुर होती थीं। मुझे भी बुलाया जाता था। कविता या कहानी पाठ होता था। एक दूसरे की बुराई भी होती थी। नयी लेखिकाओं पर डोरे डाले जाते थे और शराब पीने के बाद प्रकाशकों से या साथी लेखकों से लड़ाई झगड़ा भी होता था। कुल मिलाकर बात ये थी कि मैं साहित्यकार बन गया था और साहित्य के क्षेत्र में मेरा अपना थोड़ा नाम भी हो चला था। हाँ ये बात अलग है कि इन सबके चलते मेरी बीबी और बॉस से डाँट खाना और बढ़ गया था और मेरे रुपये भी बड़े खर्च हो जाते थे। खैर जी, साहित्यकार बनने की ख़ुशी कोई कम न थी।

समय बीतता रहा और फिर पता चला कि वही पुराने महान साहित्यकार महोदय, जिन्होंने कभी मेरी कविताओं को अपने नाम से छापा था, अब लिटरेचर अकादमी के अध्यक्ष बन गए हैं। लिटरेचर बाबा मेरी किताबों और कविताओं के बण्डल के साथ राजधानी पहुँचे और उस महान साहित्यकार से भेंट की फिर मेरे लेखन का पूरा पुलिंदा उन्हें सौंप दिया और उनसे कहा, “महोदय, जिन सीढ़ियों पर आप पाँव रखकर यहाँ तक पहुँचे हो, उनमें से एक सीढ़ी इस बालक मुरारी की भी है। याद है! इसकी कविताएँ, जिन्हें आपने अपना मानकर छपवा लिया था। अब समय आ गया है कि आप भी इसे कुछ वापस करें। जीवन तो लेने और देने का ही तो नाम है न भाई।" अध्यक्ष महोदय ने बैल की तरह सर हिलाया और भाई-भतीजावाद की प्रथा को जीवीत रखते हुए मेरा नाम लिटरेचर अकादमी के अवार्ड के लिये स्वीकार कर लिया।

और फिर एक दिन मेरे लिये एक महान खबर लेकर आया, ये दिन मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़े दिनों में एक था। मेरी कुत्ते वाली कविता को लिटरेचर अकादमी का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला था। संपादकों और निर्णायकों ने उस कविता को इस सदी की सबसे महान कविता का दर्जा दिया और मेरे लिये १,००,०००/- के नकद पुरस्कार की घोषणा हुई।

मैं बहुत खुश हुआ, ये मेरे लिये मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा तोहफा था। बहुत से अखबारों में मेरी तस्वीर छपी और मेरा इंटरव्यू छपा। टीवी पर मेरे इंटरव्यू आये। पत्रिकाओं और किताबों में नाम हुआ। मेरे बॉस ने मुझे तरक्की दे दी। और बीबी ने डाँटना बंद कर दिया। लिटरेचर बाबा और बाबू रोज मुझसे दावत माँगने लगे। वो दोनों खूब हँसते थे। पर पता नहीं क्या बात थी, मैं दिन पर दिन चुप होता चला गया। मेरे मन के भीतर कुछ द्वंद्व सा चल रहा था। मेरी ख़ुशी धीरे धीरे मिटने लगी, मन के भीतर सतत एक आन्दोलन चल रहा था, कुछ अच्छा सा महसूस नहीं हो रहा था।

एक दिन मुझे देश की राजधानी में बुलाया गया और एक रंगारंग समोराह हुआ। मैं, बाबू और लिटरेचर बाबा, हम तीनो वहाँ गए थे। बहुत देर तक भाषणबाजी हुई। और फिर अंत में मुझे बुलाया गया। मुझे १,००,००० /- नकद दिए गए। एक अच्छी शाल ओढ़ाई गयी, एक नारियल दिया गया और एक मोमेंटो और प्रमाणपत्र दिया गया। और फिर मंच पर उपस्थित महान साहित्यकारों ने मेरी उस कुत्ते वाली कविता के बारे में कहा कि वो एक महान क्रांतिकारी कविता है, उसमें मौजूद बिम्ब आज के आदमी के जीवन के बारे में सटीक व्याख्या देते हैं, इत्यादि बातों से उस कविता की तारीफ की गयी। मेरे सामने बाबू और लिटरेचर बाबा बैठकर मुँह दबाकर हँस रहे थे और मैं खामोश था। खैर, अंत में मुझे दो शब्द बोलने के लिये कहा गया।

मैं खड़ा हुआ और बोलना शुरू किया।
“आप सभी साहित्यकारों को मेरा प्रणाम। और मेरे मित्र बाबू को एक प्यारा सा आलिंगन और लिटरेचर बाबा को प्रणाम। क्योंकि ये दोनों नहीं होते तो मैं आज यहाँ नहीं होता। कुछ तालियाँ इन दोनों के लिये भी हो जाएँ।" कुछ देर तक तालियाँ बजी। मैंने देखा कि बाबू अपनी आँखे पोंछ रहा है।

मैंने आगे कहा, “दोस्तों, आप सभी को मेरी कुत्ते वाली कविता पसंद आई, ये वाकई मेरे लिये बहुत सौभाग्य की बात है। आप सभी ने उस कविता में इतने अर्थ ढूँढ निकाले, जो कि खुद मुझे ही पता नहीं थे। आप सभी का पुनः धन्यवाद। मैं दिल से आप सभी का आभारी हूँ।" तालियाँ बजीं।

“लेकिन कुछ साल पहले की बात है, जब ये कविता पूरी तरह से रिजेक्ट कर दी गयी थी, आप में से कई संपादकों द्वारा फेंक दी गयी थी और इसे कूड़ा कहा गया था और बड़े आश्चर्य की बात है कि आज इसे लिटरेचर अकादेमी का सर्वोच्च पुरस्कार मिल रहा है। कमाल है! और ऐसा कमाल सिर्फ हिंदी साहित्य में ही होता है, ये बात नहीं, करीब करीब हर तरह के साहित्य माफिया में ये ही सब होता है, जो मेरे साथ हुआ है।"
एक खामोशी हाल में छा गयी, सब मेरी ओर ध्यान से देखने लगे। इतने में किसी मनचले ने सीटी भी बजा दी। किसी ने कहा “जियो मुरारी - जियो लल्ला!”

मेरी आवाज़ कुछ तेज हुई, “कभी आप सभी ने सोचा है कि ये क्या हो रहा है साहित्य के क्षेत्र में! एक अखाड़ा बना हुआ है! क्या लिखा जा रहा है और क्या सराहा जा रहा है! किसे बढ़ावा दिया जा रहा है! कौन आगे आ रहा है! और हम इस समाज को क्या दे रहे हैं? समाज हमारी प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है और इसे हम अपने लेखन का घटियापन और गंदापन दे रहे हैं। हम समाज को और नए पढ़ने लिखने वालों को ये शिक्षा दे रहे हैं कि लिखने के नाम पर, नए लेखन के नाम पर, नए प्रयोग के नाम पर सिर्फ वही गंदगी परोसो, जो समाज में छाई हुई है।

एक भयानक सी ख़ामोशी पूरे हाल में छायी हुई थी। मेंने फिर पानी पिया और बोलना शुरू किया-
“अंत में मैं अमृता प्रीतम की एक बात को यहाँ रखना चाहता हूँ, उन्होंने कहा था कि लेखन की सारी दुनिया में मसला सिर्फ और सिर्फ प्यार और व्यापार का ही है कि कौन अक्षरों को प्यार करते हैं और कौन इनका व्यापार करते है। और एक लेखक को इस बात का बहुत ध्यान रखना चाहिए।”
“आइये दोस्तों, हम अपनी कलम में सिर्फ दोस्ती और प्यार का रंग भरें और एक बेहतर, मजबूत और अपनत्व से भरे हुए हिंदी साहित्य को भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के हर कोने में जहाँ भी हिंदी पढ़ी, बोली और लिखी जाती है, स्थापित करें। इसी के साथ मैं अपने हिंदी साहित्य-जगत की बेहतरी के लिये प्रार्थना करता हूँ।"

और अंत में दुष्यंत कुमार के एक खूबसूरत शेर के साथ आप सभी से विदा लेता हूँ।
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए!!”
“आपका धन्यवाद।" अपने मन की बात कहकर मैं नीचे उतर गया। सारे हाल में एक सन्नाटा था।
सबसे पहले बाबू ने उठकर ताली बजाई और फिर लिटरेचर बाबा ने और उस मनचले ने सीटी बजाई और जोर से कहा, “ओये तू जिंदाबाद!” फिर सारे लोगों ने उठकर ताली बजाई।

मैं सर झुकाकर, बाबू और लिटरेचर बाबा के साथ हाल से बाहर निकल गया। उसी रात को, रात के फ्लाइट से हम तीनों अपने शहर पहुँचे। फिर बाबा की गाड़ी में बैठकर मैं और बाबू अपने शहर के वृद्धाश्रम, विधवा आश्रम और अनाथ बच्चों के आश्रम गए, जहाँ मैंने पूरी पुरस्कार राशि बाँट दी। मैंने वो मोमेंटो जो मुझे सम्मान में मिला था बाबा के चरणों में रख दिया और फिर जेब में हाथ डाले सीटी बजाता हुआ चल दिया।

वो सितम्बर का महीना था और मैं “कम सेप्टेंबर” की धुन को बजा रहा था। इतने में पीछे से बाबू ने आवाज दी, “अबे ओ साहित्यकार, एक कविता तो लिख ले।" मैंने मुड़कर देखा और उसे अपना घूँसा दिखाया। हम सब जोरों से हँस पड़े।

घर पहुँचा तो अँधेरा सा था, जैसे ही मैंने सीढ़ी पर पाँव रखा, वहाँ पर सोये हुए एक कुत्ते की पूँछ पर मेरा पैर पड़ गया और वो जोर से चिल्लाकर पीछे की ओर मुड़ा और गुस्से में मेरे पैर को काट लिया। अब चिल्लाने की बारी मेरी थी। मैं मुड़ा और बड़बड़ाते हुए हॉस्पिटल की ओर चल पड़ा। अचानक मेरे होंठो पर एक मुस्कराहट आ गयी। कुत्ते ने काटा है, तो जरुर कुछ नया घटित होगा मेरे जीवन में। देखते हैं, वो कहानी फिर कभी!

१ सितंबर २०१५

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