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मैने ओवरकोट अपने सर पर ढक लिया था। पैरों को घसीटकर अपने पेट पर चिपकाया। ठंडी हवाओं से बचने के लिये कोई दूसरा उपाय नहीं था। विज्ञापनों की बिखरी, जलती–बुझती बत्तियों को देखते–देखते न जाने कब नींद आ गई।

बोतलों के टूटने की आवाज ने हमारी निद्रा भंग करने की कोशिश की थी। पर मैं इतना थका हुआ था कि उन शराबियों को अनदेखा कर दिया था। समय का अनुमान लगाने के लिहाज से उस मीठी नींद में झाँक कर देखा। सड़क के उस पार फिलिप्स के विज्ञापन की इमारत की चोटी पर घूमती हुई घड़ी को देखना चाहा। घड़ी घूम चुकी थी। अपने आप को गठरी की भाँति बनाया। मुझे ऐसा लगा कि किसी ने मेरा ओवरकोट खींचा। मैं कुछ चौंका। मेरी नींद खुल गई थीं। मैंने पैरों की तरफ देखा। लगभग पचपन–साठ वर्ष का व्यक्ति गुम–सुम बैठा था। उसने अजीब हालत बना रखी थी। सिर पर ऊन की टोपी, लम्बा ओवरकोट, पुराने फैशन की पैन्ट पहने। माथे पर किसी चोट का गुलम। गुलम सूज कर फोड़े की तरह उभर आया था। उस गोरे वृद्ध व्यक्ति के मुख से लार टपक रही थी। आँखों में कींच भरा था। उसने अपनी पलकें बन्द कर रखी थीं। उसके एक हाथ में समूची डबलरोटी, दूसरे हाथ में बड़ी बियर की बोतल थी।

उसे देखकर ऐसा लगा जैसे वह अपनी जिन्दगी से परेशान हो। वह बड़बड़ाया। मैं वहीं उठ कर बैठ गया। अभी तक वह बड़बड़ा रहा था। जैसे ही उसकी आँख खुली, उसने मेरी ओर देख कर कहा – 'गू मार्न' (गुड मॉर्निंग)।
'गू मार्न' – मैंने उसे जवाब में कहा।
'टेरे अर सो स्नील' (तुम लोग बहुत अच्छे हो।)
'थक' (धन्यवाद) – मैंने उसका शुक्रिया अदा किया।
'अर दू पाकिस' (क्या तुम पाकिस्तानी हो?)
मैंने उसकी तरफ देखा, चुप रहा। उसने शायद यह अनुमान लगा लिया था कि मुझे अच्छा नहीं लगा।
'या, कान्शे' (हाँ शायद) मैंने मुस्कराकर उत्तर दिया। थोड़ी देर तक बातचीत के बाद मैं उठकर चला गया।
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बच्चे पार्क में खेल रहे थे, छोटे–छोटे ग्रुप में बँटे। कार के टायरों वाले झूले पर बैठ कर झूल रहे थे। मिली–जुली रंग–बिरंगी पोशाक में काले बालों वाले प्रवासी बच्चे अपनी अलग पहचान बनाये हुए थे। मैं रेलिंग के सहारे खड़ा था। आसमान साफ था। पक्षियों का झुंड आसमान में मँडरा रहा था। तभी कोई ऊँची आवाज में चिल्ला रहा था। कभी वह सड़क के किनारे, कभी सड़क के कुछ अन्दर। कार, ट्राम की ध्वनि–प्रतिध्वनि को सुन कर वह बावरा इधर–उधर भागता। जैसे–जैसे वह पास आता गया, परिचित सा नज़र आने लगा। पास आने पर देखा, ओह! यह वही व्यक्ति है, जो उस रात नेशनल थिएटर पर मिला था। उसके डगमगा कर चलने से ऐसा प्रतीत होता था कि उसने मदिरा काफी पी रखी है। यह मुझे देखते ही पहचान गया, उसने मुझसे हाथ मिलाया। उसने बताया कि सामने पार्क के कोने पर किराने की दुकान वाला मकान उसका है। वह न जाने क्या–क्या मुझसे कहता रहा। मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाता रहा। मैंने उसे भारतीय बीड़ी पीने को दी। उसने बीड़ी इत्मीनान से पी। उसने बीड़ी की तारीफ की। आज उसकी आँख से आँसू छलक आये थे। दो वर्ष पहले उसकी बीवी का स्वर्गवास हो गया था। तभी से बहुत पीता था। मुझे उससे कुछ सहानुभूति होने लगी थी। उसे कोई प्यार नहीं करता – यह उसकी शिकायत थी। उसने बताया कि उसका लड़का है, बहू है।

धीरे–धीरे पार्क में सन्नाटा छाने लगा। पार्क खाली हो चुका था। समय स्तब्ध हो गया, निस्वर।
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रविवार का दिन था। सुबह के सवा सात बजे थे। सड़क सुनसान थी। आसपास कोई नहीं दिखता था। मैं आराम से ट्राम स्टेशन की तरफ बढ़ रहा था। ट्राम को आते देख मैं दौड़ पड़ा। ट्राम रुकी। ट्राम से एक व्यक्ति उतरता दिखाई पड़ा। मैं पूरी ताकत से दौड़ रहा था। प्लेटफार्म पर पहुँचा ही था कि ट्राम चल पड़ी थी। मैंने ट्राम का द्वार खटखटाया परन्तु ट्राम बेखटक आगे बढ़ चुकी थी। मेरी दृष्टि घड़ी पर पड़ी, ट्राम आज नियमित समय से दो मिनट पहले ही चली गई। ट्राम की ओर देखा, वह ओझल हो चुकी थी। मेरे मन में आया कि ट्राम चालक रेसिस्ट है, तभी तो काला प्रवासी समझ कर ट्राम चला दी, जबकि प्रायः जब ड्राइवर किसी को ट्राम की तरफ भागते देखता है, तो उसकी प्रतीक्षा कर लेता है। पहले मुझे क्रोध आया, बाद में मुस्कराकर रह गया।

अक्सर नार्विजन समाचारपत्रों में निरी बेहूदी बातें छपतीं। तीसरी दुनिया के देशों को समाचारपत्रों में अच्छा स्थान कम मिलता। भारत – पाकिस्तान – बांगलादेश के बारे में पूछो ही नहीं। एक दिन एक समाचारपत्र ने प्रकाशित किया – 'तीसरी दुनिया की प्रवासी औरतें चूहे की तरह बच्चे पैदा करती है।' कितनी शर्म की बात है! शायद ही कोई प्रवासी किसी नार्विजन के बारे में ऐसा सोचता हो। कभी–कभी मन में आता कि अपने वतन भाग चलो। अपने वतन में चाहे जैसे हो सुकून है, शान्ति है। अपने देश की मिट्टी में जो सौंधापन है, जो खुशबू है, वह यहाँ नहीं है। यहाँ आसमान भी मानो हमें निगलना चाहता है। तभी मुझे उस बूढ़े नार्विजन की याद आई। उसका नाम थोम था। एक तो थोम गोरा–चिट्टा फिर यह उस का देश। फिर भी वह परेशान क्यों रहता है? घर–द्वार है। पेंशन मिलती है। विचारों में मैं खोता चला गया। मैंने आँखें बन्द कर लीं। सपना देखने लगा। अपने वतन के इतिहास का सपना। जो भी अपने देश में आया उसे जगह दी, आश्रय दिया। अतिथि–सत्कार में भले ही अपने को लुटवा दिया।
जब से थोम को पता चला कि मैं रेस्टोरेन्ट में डिस्क (काउन्टर) पर काम करता हूँ तब से वह प्रतिदिन वहाँ आने लगा। संध्या के पूर्व वह रेस्टोरेन्ट में प्रवेश करता और मध्यरात्रि को रेस्टोरेन्ट के बन्द होने पर बाहर निकलता। थोम कहता – 'शराब मेरी मित्र है।'

वह बहुधा मुझसे तरह–तरह की न जाने क्या–क्या बातें करता रहता। किसी तरह मैं उसे झेलता। जब मैं रेस्टोरेन्ट न जाता तब वह अन्य लोगों से मेरे बारे में कई बार पूछता। धीरे–धीरे मुझे उससे आत्मीयता हो गई थी। जब मैं थोम क्रिस्तियानमेन से तुम के स्थान पर आप कह कर सम्बोधित करता तो वह चिढ़ जाता था। यहाँ आप कहने का रिवाज नहीं है, चाहे जो हो। हम दोनों में धीरे–धीरे अच्छी दोस्ती हो गई थी।
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थोम भी तो नार्विजन है। जबकि अन्य नार्विजन लोग कितने प्रायोगिक हैं, खोटा रूखा–सा व्यवहार करते हैं। शायद ही कोई दूसरा ऐसा हो जो पहली बार में ही नाम, घर, पता पूछता हो परन्तु नार्विजन लोग यह भी पूछने में नहीं चूकते कि कहाँ से (किस देश से) आए हो और कब वापस जाओगे?
यहाँ जब लोगों से अपनापन नहीं मिलता तब मन में अजीब सी बातें आतीं। मन उदास हो जाता। सिगरेट के धुएँ की तरह कहीं ऐसा तो नहीं कि मन की वे सारी आज्ञाएँ बिखर जाएँगी, जिन्हें संजोए विदेश आया। अपनों से बहुत दूर। बचपन में अपनी माँ से विभिन्न लोककथाएँ सुनता था। उन लोककथाओं में 'सात समुद्र पार परियों का देश है, दूध से भरी नदियाँ हैं, आदि – आदि।'

थोम रात–बेरात (वक्त–बेवक्त) मेरे पास आ जाता। हम दोनों ओसलो की अँधेरी गलियों में भटकते। तब रात के अंधकार में उजाले की चकाचौंध मन को आहत कर देती। शहर में घूमने निकल जाता। स्तूर गाता से चला तो ग्लासमैगजीन, स्तूरथोरवे, पार्लियामेन्ट, नेशनल थियटर होता हुआ राजा के महल तक पहुँच जाता। शायद कहीं सुकून मिल जाए। यहाँ आधी रात को घूमने में कोई खतरा नहीं। और न ही भारत की तरह रात में घूमने के लिये मोहल्ले के दादा और थानेदार को सलाम ठोंकने की जरूरत है। न तो यहाँ कोई दुख में साथ है और न ही सुख में। कोई ऐसा भी नहीं जिससे दो टूक बात करके अपने दिल के गुबार निकाल लो। अपना–अपना है। वहाँ सभी कुछ अपना है। यहाँ बहुत कुछ होकर भी अपना नहीं।
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'कल क्रिसमस है। आज थोम जरूर आयेगा। मैं काउन्टर पर द्वार पर दृष्टि लगाए हुए था। पिछले चार वर्षों से वह कुछ न कुछ जरूर उपहार देता था। शायद ही कोई नार्वे में ऐसा हो जो क्रिसमस पर अपनों के लिये उपहार न खरीदता हो। थोम ने कभी मुझसे उपहार नहीं लिया। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद थोम द्वार पर आता हुआ दिखाई पड़ा। उसके साथ एक नार्विजन युवक भी था। थोम ने एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में प्लास्टिक का एक थैला पकड़ रखा था।

वह मेरे पास आया और उसने मुझे अपने गले से लगा लिया। रेस्टोरेन्ट में सभी स्थान भरे थे। मैंने उनके लिये दो अतिरिक्त कुर्सियाँ लगवा दीं तथा दो बियर रखवा दीं। थोम आज उदास था। उसका चेहरा बुझा–बुझा सा था। थोम ने बताया कि वह बहुत बीमार है। केवल क्रिसमस का उपहार देने ही मेरे पास आया है। थोम का स्नेह देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। थोम ने साथ आए नवयुवक से परिचय कराते हुए कहा, 'यह मेरा लड़का है।' मैंने हाथ मिलाने के लिये अपना हाथ नवयुवक की तरफ बढ़ाया परन्तु नवयुवक ने हाथ नहीं मिलाया। मैंने थोम की तरफ देखा और अपना हाथ वापस जेब में रख लिया। थोम मानो शर्म से गड़ गया हो। थोम रुका नहीं और खाँसता हुआ चला गया।

मुझे काफी दिनों से रेस्टोरेन्ट सूना–सूना सा लगने लगा। काफी दिनों से थोम ने रेस्टोरेन्ट में आना बन्द कर दिया था। जब पता चला कि थोम बीमार है, मैं दौड़ा–दौड़ा उसके घर गया। थोम के लड़के ने कहा कि थोम घर पर नहीं है। बाद में पता चला थोम घर पर ही था।

दूसरे दिन खबर मिली कि थोम अस्पताल में भर्ती है। मैं थोम से मिलने अस्पताल गया। साथ में थोम के लिये उसके मनपसन्द फूल ले गया। थोम मेरे गले से लग कर रो पड़ा। उसने बताया कि उसके घर से उससे मिलने के लिये अस्पताल कोई भी नहीं आया। मुझे आश्चर्य हुआ। थोम सिसक पड़ा – 'अब मैं शीघ्र ही भगवान को प्यारा हो जाऊँगा।' मैंने रुआँसे गले से कहा, 'थोम, ऐसा नहीं कहते।'
थोम से मिलकर आ रहा था। विचारों की कड़ियाँ अतीत जीवन के शतरंजी खेल में पैदली खा गया है? क्या इसी के लिये।

चर्च में सभी एकत्र थे। थोम दुनिया से चल बसा। अन्तिम संस्कार की प्रार्थना हो रही थी। थोम ने मृत्यु के कुछ घन्टे पूर्व मुझे एक पत्र लिखा था। थोम ने लिखा था, 'मैं अब पुनर्जन्म मानने लगा हूँ। हे भगवान मुझे अगले जन्म में तुम्हारे जैसा पुत्र दे।' मैं अवाक् खड़ा था। निरीह! ऐसा लग रहा था कि पैरों के नीचे जमीन खिसक रही है। फूलों से सजे हुए बक्स में बन्द थोम मुझसे इतनी जल्दी मुँह मोड़ लेगा, सोचा भी न था। ट्राम के चलते हुए पहियों की तरह। जब तक ट्राम के पहिये ठीक चलते हैं, लगे रहते हैंऌ जब थक कर बेकार हो जाते हैं, तो निकाल कर फेंक दिए जाते हैं। यही है जीवन का सिद्धान्त?

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१ सितंबर २००२

 
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