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रामशरण ने अपनी पत्नी को सांत्वना देते हुए आगे कहा,
"जब ईश्वर ने हमें दिया है तभी देते हैं। अगर हमारे पास न होता तो कहाँ से देते? मेरा मानना है कि दूसरों को खिलाने से कभी नहीं घटता।"

अपने पति के इस दर्शन से कतई सहमत नहीं थी उसकी पत्नी। उसकी पत्नी ने उसे स्मरण कराया,
"अम्मा ने अपना घर-द्वार दादा की तेरहवीं में दान कर दिया था। फिर आप लोग कंगाल क्यों हो गए? आपके एक लेखक मित्र कह रहे थे कि जो पैसे खर्च करने में बेवकूफ़ी करता है वह जीवन में भी बेवकूफ़ी करता है।" अपनी पत्नी की बात सुनकर रामशरण हँसता है,
"तूसी इतनी बड़ी-बड़ी गल्लां (बाते) कैसे कर रही हो?" उसकी पत्नी चुप न रह सकी,
"समय और मुसीबत सब सिखा देतें हैं। हाथ सँभाल कर खर्च करना। ज़रूरत पड़ने पर सभी अपने फिर पराए न हो जाएँ।"
"तूसी फ़िकर न करो। कोई अपना पराया नहीं होने लगा है।" रामशरण ने कहा।
"तूसी अपना ध्यान रखना।"
"फ़िकर न करो। अपने देश में क्या ध्यान रखना और क्या ध्यान नहीं रखना। चलो ठीक है।"
"जाकर फ़ोन करना।"
"ज़रूर फ़ोन करूँगा।" रामशरण हाथ में दो थैले, पीठ में एक थैला लिए हुए सुरक्षा जाँच के लिए हाथ हिलाता हुआ ओझल हो गया।

जहाज़ में अपना अधिक सामान किसी तरह जमाकर अपनी सीट पर बैठता हुआ वह गहरी साँस भरता है। एक परिचारिका आपातकाल में क्या करना है इसकी सूचना देने लगती है। कुछ देर पश्चात जहाज़ हवाई पट्टी पर दौड़ता हुआ झटके के साथ ऊपर उठता हुआ उड़ने लगता है। वह जहाज़ की खिड़की के पास बैठा नीचे देखता है। धीरे-धीरे पेड़-पौधे, कारें छोटी होती हुई चींटियों-सी दिखती हुए ओझल हो जाती हैं।

राम शरण पुरानी स्मृतियों में डूब जाता है, जब रामशरण तुकबंदियाँ करता। उसके दोस्त वाह-वाह कहकर उसका हौसला बढ़ाते। वह अपना दिल बहलाने के लिए कविताएँ लिखता। विदेश में उसके साथ एक ओर केवल कविता थी दूसरी ओर स्वदेश की स्मृतियाँ।
"आए इतनी दूर विदेश,
अच्छा लगता अपना देश। पत्रों कहना यह संदेश
सूना लगता है परदेश।
अपने घर के कटें क्लेश
धनी बनेगा अपना देश
नहीं चाकरी यहाँ करेंगे जिएँ मरेंगे अपने देश।"

एक समय था जब उसके पास पैसे न होते और पड़ोसी बनिए लाला जोगीराम से वह उधार माँगता। लाला को खुश करने के लिए वह कविता में बातचीत करता था,
"लाला जी दे दो उधार,
मुझको मिली न पगार"
लाला भी अपनी तुकबंदी सुनाता,
"आज नकद कल उधार,
क्यों करूँ कंगालों से प्यार"
रामशरण कहता,
"लाला एक दिन मैं भी पैसे वाला आदमी बनूँगा तब सारा उधार चुकता कर दूँगा।"
"जिसकी बनी उसी से बनी, वरना लाला की ठनी। बड़े आदमी भी तो तुम मेरे उधार से ही बनोगे।"
"छोड़ो भी लाला। आज का रंक कल राजा बनेगा।"
"फिर तुमको उधार को भी मना नहीं करूँगा, रामशरण।"

बादलों के बीच गड़गड़ाहट करता हुआ जहाज़ उड़ता चला जाता है। जैसे रुई के फाहे के बीच में उड़ रहे हैं। एक परिचारिका रामशरण को जगाती है कहती है कि अब दिल्ली आने वाला है और वह सीटपेटी बाँध ले। आठ घंटे की यात्रा के बाद हवाई जहाज़ घोषणा करता है कि हम कुछ देर में नई दिल्ली हवाई अड्डे पर पहुँचने वाले हैं। नई दिल्ली में तापमान 30 डिग्री सेंटीग्रेट है। उसे खिड़की से अपने देश की भूमि देखकर अपार प्रसन्नता हो रही है। उसके मन मे एक नई उमंग है। उसकी आँखों में एक नई चमक, एक नया उत्साह है अपनी स्वदेश वापसी को लेकर।

हवाई अड्डे पर आगमन द्वार से निकलता है। कोई किसी के स्वागत के लिए हाथों में फूल लिए हुए है। कोई आगंतुकों के नाम लिखी तख़्ती लिए है। कोई खाली हाथ है तो कोई हाथों में मालाएँ लिए हुए है। रामशरण को लेने कोई नहीं आया है। रामशरण का स्वागत तो उसके गाँव में होगा जहाँ उसके लोग हैं। रामशरण कहता अपने देश में क्या स्वागत। सभी तो अपने हैं। वह टैक्सी पर बैठता है। चालक से मौसम का हाल लेते हुए गाँव के लिए रवाना हो गया है कितना आनंद मिलता है स्वदेश वापसी पर यह वही जान सकता है जो अपने गाँव, नगर और देश से दूर बसा हो।

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९ अप्रैल २००५

 
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