चिठ्ठा–पत्री चिठ्ठा पंडित ने बांची

मई के चिठ्ठे  

रामराम यजमानों। काली सड़कें पिघलता डामर लू की गर्मी। मई के महीने की गर्मी की तो क्या कहने। सभी त्रस्त हैं इस गर्मी से मगर हमें मई का महीना बहुत भाता है। तरबू़ज और आम जैसे फल इसी महीने में तो मिलते हैं और फिर एक और कारण भी है हमारे मई के महीने से कुछ अलग–सा लगाव होने का। मातृदिवस भी तो इसी मई के महीने में ही आता है। मां को वैसे याद करने की क्या ज़रूरत होती है, वो तो दिल में ही बसती हैं मगर मातृदिवस के इस अवसर पर मां को ये बताना, अहसास दिलाना कि मां तुझे हम कितना चाहते हैं एक अच्छी प्रथा है। यजमानों, हमारे चिट्ठाकार बंधुओं ने भी इस अवसर पर मां को याद किया। कुछ सुंदर लेख लिखे और कुछ कविताएं भी प्रकाशित कीं।

"मेरा बाहरवीं का रिजल्ट आया था उस दिन। बहुत अच्छे नंबर आए थे। क्लास में टॉप किया था। मैं बहुत खुश था। मैं पल भर के लिए घर में क्या चल रहा है यह भी भूल गया था।" मातृदिवस के अवसर पर नई दिल्ली से जगदीश भाटिया द्वारा लिखे गए इस मर्मस्पर्शी कथा को आगे पढ़िए उनके ब्लाग आईना पर। इसी अवसर पर जगदीश व्योम जी की रचना की कुछ पंक्तियां देखिये–
मां यमुना की स्याम लहर–सी रेवा की गहराई–सी
मां गंगा की निर्मल धारा गोमुख की ऊंचाईर्–सी।
मां ममता का मानसरोवर, हिमगिरि–सा विश्वास है
मां श्रद्धा की आदि शक्ति–सी कावा है कैलाश है।
डा .जगदीश व्योम एक अच्छे कवि और प्रसिद्ध हाइकुकार हैं। केंद्रीय विद्यालय होशंगाबाद के हिंदी अध्यापक के पद पर कार्यरत वो हिंदी साहित्य को लगातार समृद्ध करने की कोशिश में लगे हैं। उनका हिंदी साहित्य नामक ब्लाग इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जगदीश व्योम की देख–रेख में ये ब्लाग अपनी एक अलग पहचान रखता है। उन्होंने इस महीने अपने इस चिट्ठे पर दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियों के साथ अपना एक हाइकु प्रकाशित किया। इस हाइकु को देखें –
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा

नये ब्लागों में वैंक्यूवर से मानोशी चटर्जी ने चिट्ठा जगत के एक अनछुए विषय को छुआ। भारतीय शास्त्रीय संगीत पर जानकारी और विभिन्न रागों को एक जगह एकत्र करने के उद्देश्य से उन्होंने संगीत नामक चिट्ठा शुरू किया है। अपने इस माह के लेख में उन्होंने संगीत संबंधी कुछ मूलभूत बातें और स्वर अलंकारों के बारे में जानकारी दी। आपकी भी संगीत में रूचि है तो उनके इस चिट्ठे को पढें और संगीत में अपना ज्ञानवर्धन करें। इस बार के अपने इस चिट्ठे में उन्होंने कुछ स्वर अलंकारों और हारमोनियम आदि के बारे में जानकारी दी—

"भारतीय संगीत आधारित है स्वरों और ताल के अनुशासित प्रयोग पर। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के सात स्वर हैं– सा(षडज) रे(ऋषभ) ग(गंधार) म(मध्यम) प(पंचम) ध(धैवत) नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प, ध, नि। सा और प को अचल स्वर माना जाता है। जबकि अन्य स्वरों के और भी रूप हो सकते हैं। जैसे 'रे' को 'कोमल रे' के रूप में गाया जा सकता है जो कि शुद्ध रे से अलग है। इसी तरह 'ग', 'ध' और 'नि' के भी कोमल रूप होते हैं। इसी तरह 'शुद्ध म' को 'तीव्र म' के रूप में अलग तरीके से गाया जाता है।

गायक या वादक गाते या बजाते समय मूलतः जिस स्वर सप्तक का प्रयोग करता है उसे मध्य सप्तक कहते हैं। ठीक वही स्वर सप्तक जब नीचे से गाया जाए तो उसे मंद्र और ऊपर से गाया जाए तो तार सप्तक कहते हैं। मंद्र स्वरों के नीचे एक बिंदी लगा कर उन्हें मंद्र बताया जाता है। और तार सप्तक के स्वरों को, ऊपर एक बिंदी लगा कर उन्हें तार सप्तक के रूप में दिखाया जाता है। इसी तरह अति मंद्र और अतितार सप्तक में भी स्वरों को गाया–बजाया जा सकता है।"

सफ़रनामा में एक शाम मेरे नाम नामक चिट्ठे पर मई महीने में मनीष ने सिक्किम की यात्रा का संस्मरण सुनाया। एक शाम मेरे नाम के चिट्ठाकार मनीष अपनी यादों को इस चिट्ठे में संजो कर रखते हैं और सब के साथ बांटते हैं। सिक्किम की यात्रा का सुंदर विवरण और बहुत सुंदर चित्रों ने हमारा तो मन मोह लिया यजमान।उनके चिट्ठे पर इस यात्रा विवरण को पढ़िए और आनंद उठाइए— "यहां से हम शीघ्र ही लाचेन के लिये निकल पड़े जो कि हमारा अगला रात्रि पड़ाव था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे। रास्ता सुनसान था, बीच–बीच में एक आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं। लाचेन के करीब 10 किमी पहले मौसम बदल चुका था। लाचेन घाटी पूरी तरह गाढ़ी सफ़ेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं।" इसी संस्मरण के अगले भाग में वो लिखते हैं –"लाचेन से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था। सड़क कटी–कटी–सी थी। कहीं–कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू स्खलन होने की वजह से उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ़ हो गए थे। आगे की आबादी ना के बराबर थी। बीच–बीच में याकों का समूह ज़रूर दृष्टिगोचर हो जाता था। चढ़ाई के साथ–साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है। इसलिए हमें 17000 फीट पहुंचने के पहले रूकना था 14000 फीट की ऊंचाई पर बसे थान्गू में ताकि हम कम आक्सीजन वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें।"

कुछ जमे हुए चिट्ठाकारों ने मिलकर एक चिट्ठा शुरू किया है 'जुगाड़ी लिंक'। जीतेंद्र चौधरी, पंकज बैंगानी, अमित गुप्ता, कालीचरण, आलोक, विजय वडनेरे आदि ने मिल कर इस चिट्ठे पर जालघर से चुन–चुन कर अच्छे काम आने वाली कड़ियां अपने चिट्ठे पर डालीं। एक नज़र इन कडियों पर डालें। 

भेडाघाट भारत में जबलपुर के पास नर्मदा नदी स्थित पर्यटन स्थल है। यह जगह संगमरमर की चट्टानों और धुआंधार जलप्रपात के लिए प्रसिद्ध है। शिकागो से नितिन व्यास ने भेडाघाट की सुंदर तस्वीरें पेश की और साथ ही अमेरिका स्थित नायगरा जलप्रपात की तस्वीरें भी। इन तस्वीरों का आनंद लीजिए नितिन जी के चिट्ठे पर। 

संजय विद्रोही जयपुर राजस्थान से अपना चिट्ठा प्रकाशित करते हैं, प्रतिमांजली। पेशे से रसायन शास्त्र के अध्यापक मगर ग़ज़ल और कवितायें लिखने में पारंगत। उनकी नयी ग़ज़ल उन्होंने इस बार अपने चिट्ठे पर प्रकाशित की—
मज़हबों पर से संगीनों को हटालो यारो,
दस्तियां अपनी मंदिरों में बिछालो यारो।
आस्तीनों के सांप, देखना है क्या देंगे
तुम कलेजे से लगा दूध पिला लो यारो।
उसकी छोटी बड़ी हर चीज नुमांया कर दो
पर किताबों में दबा फूल छुपालो यारो।
ग़ज़ल के अन्य शेरों का मज़ा लेने के लिए उनके चिट्ठे पर एक नज़र डालिए। 

फुरसतिया जी के उपनाम से लिखने वाले अनूप शुक्ल जी वरिष्ठ चिट्ठाकार हैं। उनकी पैदाइश तथा शुरूआती पढ़ाईर्–लिखाई भारत के शहर कानपुर में हुई। पेशे से अभियंता, इलाहाबाद में अभियांत्रिकी पढ़ते हुए सन 1983 में 'जिज्ञासु यायावर' के रूप में उन्होंने साइकिल से भारत भ्रमण भी किया। इस माह उनके चिठ्ठे पर हरिशंकर परसाई जी का लेख "आवारा भीड़ के खतरे" को अपने चिट्ठे पर प्रकाशित किया गया है। लेख का थोड़ा सा भाग ये देखिये– "बू़ढे–सयाने लोगों को लड़का जब मिडिल स्कूल में होता है, तभी से शिकायतें होने लगती हैं। वे कहते हैं– ये लड़के कैसे हो गये? हमारे ज़माने में ऐसा नहीं था। हम पिता गुरू समाज के आदरणीयों की बात सिर झुका के मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी की नहीं मानते।मैं याद करता हूं कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात ग़लत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरू का भी प्रतिवाद नहीं करता। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में दस–बारह अख़बार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का ज़माना था। सब नेता हमारे हीरो थे, स्थानीय भी और जवाहरलाल नेहरू भी। हम पिता, गुɸ समाज के नेता आदि की कमज़ोरियां नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करनेवाले गोंडों का शोषण करते थे।" प्रख्यात व्यंग्य लेखक की इस रचना को पढ़ने के लिए यहां चटका लगाएं

यजमानों चिट्ठाजगत से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हर महीने कई नये चिट्ठे प्रकशित होते हैं और पुराने चिट्ठाकार नये विषयों पर लिखते हैं। जाने कितने विषय। हर नया विषय अपने में अलग पहचान रखता है। हम यहां हर चिट्ठे को तो नहीं डाल सकते मगर जो भी चिट्ठा हमें भा जाता है उसे ही अपनी इस चिट्ठापत्री में डाल देते हैं। 

एक नज़र इस कडी पर डालें और आसान सा तरीका सीखें पैसे को दुगुना करने का। पंकज नरूला के चिट्ठे पर जाएं और बहतर का नियम देखें। मिली न असान सी विधि? और अगर चिट्ठा जगत में रोज़ाना क्या हो रहा है जानना है तो नारद से जानिए या हर महीने अभिव्यक्ति में मुझसे मिलिए चिट्ठा पत्री में। खूब लिखिए और पढ़िए और हम भी बांचते रहेंगे चिट्ठे। अगले महीने तक के लिए रामराम यजमानों।

9 जून 2006