सामयिकी भारत से

ताइवान के विकास, समृद्धि और स्वाभिमान का उल्लेख करते हुए वेद प्रताप वैदिक का आलेख-


ताइवान से परहेज़ क्यों


ताइवान के बारे में भारत में बहुत कम जानकारी है। पिछले दिनों जब मैं वहाँ जा रहा था तो कुछ लोगों ने पूछा कि ताइवान चीन में है या जापान में? इतिहास में ऐसा समय जरूर रहा है जब ताइवान नामक द्वीप कभी चीन का हिस्सा रहा है और कभी जापान का भी। लेकिन अभी ताइवान पीछले साठ साल से स्वतंत्र राष्ट्र है। वह न तो चीन का हिस्सा है और न ही जापान का। १९७१ तक ताइवान न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य था बल्कि सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी था। ताइवान औपचारिक नाम 'चीन का गणराज्य है यानी १४ हजार वर्गमील के इस टापू का दावा रहा है कि वह ही सारा चीन है। साम्यवादी चीन यानी पेइचिंग की सरकार गैर-कानूनी है। ताइवान के शासक च्यांग काइ-शेक को माओ-त्से तुंग की लाल फौज ने इतना खदेड़ा कि उन्होंने चीन के दक्षिण-पूर्व में स्थित इस छोटे-से टापू में शरण ली और आज तक उनके लोग वहीं बने हुए हैं। साम्यवादी चीन उन्हें आज तक वहाँ से बेदखल नहीं कर पाया।

माओ के चीन ने तिब्बत, हाँगकाँग और मकाओ पर हो कब्जा कर लिया लेकिन क्या वजह है कि वह साठ साल में ताइवान का बाल भी बाँका नहीं कर सका। इसका पहला कारण तो यही है कि ताइवान एक अत्यंत बहादुर औऱ चतुर देश है। यदि इस देश के लोग बहादुर नहीं होते तो व चीन की दैत्याकार शक्ति के आगे कभी के घुटने टेक देते। च्यांग कादू शेक किसी भी पश्चिमी राष्ट्र में शरण ले लेते, ईरान या अफगानिस्तान या अबीसीनिया के बादशाह की तरह आराम से रहते और ताइवान इतिहास के नेपथ्य में खो जाता। १९४९ में कम्युनिस्टों से हार जाने के बावजूद वे उनकी नाक के नीचे दनदनाते रहे। शीतयुद्ध के माहौल का उन्होंने फायदा उठाया। अमेरिका ने ताइवान को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दी और 'चीन के गणराज्य' के साथ प्रतिरक्षा संधि की। अमेरिका, जापान और ताइवान ने ऐसा गठजोड खड़ा किया कि लाखों धमकियों के बावजूद चीन ताइवान के साथ वैसा बर्ताव नहीं कर सका, जो उसने तिब्बत, द.कोरिया या द.वियतनाम के साथ किया।

यह ठीक है कि १९७१ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ताइवान की मान्यता समाप्त कर दी और अमेरिका समेत दर्जनों राष्ट्रों ने ताइवान के साथ अपने राजनयिक संबंध भंग कर दिए लेकिन ताइवान अपनी धुरी पर टिका रहा। वह तकनीकी दृष्टि से आज संप्रभु राष्ट्र नहीं है लेकिन वह राष्ट्र है और स्वतंत्र है और इससे भी बड़ी बात यह कि वह लोकतांत्रिक राष्ट्र है। वहाँ बाकायदा चुनाव होते हैं। राष्ट्रीय, प्रांतीय, स्थानीय और पंचायत स्तर तक। विश्व राजनीति ने पल्टा खाया और चीन व अमेरिका नजदीक आए तो उसका खामियाजा ताइवान को भुगतना पड़ा ताइवान ने अब यह रट लगानी बंद कर दी कि वह संपूर्ण चीन का प्रतिनिधि है और चीन को साम्यवादियों से आजाद करवाएगा। उधर चीन ने भी ताइवान पर कब्जा करने की नीती में ढील दे दी है। अब दोनों राष्ट्र आपस में बात कर रहे हैं। दोनों राष्ट्रों ने अपने नागरिकों को यात्रा, व्यापार, विनिवेश, आवास और संपर्क की छूट दे दी है। लगभग १० लाख ताइवानी लोग चीन में रह रहे हैं। चीन-ताइवान व्यापार ३० बिलियन डॉलर से भी ज्यादा है। ताइवान जैसे छोटे से देश ने चीन में लगभग १०० बिलियन डॉलर का विनिवेश किया हुआ है। चीन के ठप्पेवाला बहुत-सा माल वास्तव में ताइवानी ही होता है। अब चीन ने ताइवान को छकाना और सताना बंद कर दिया है। पहले उसकी कोशिश होती थी कि दुनिया के जिन राष्ट्रों ने ताइवान को राजनायिक मान्यता दे रखी था, उन्हें वह बिदकाए लेकिन अब ऐसा नहीं है। ताइवान को अब भी दुनिया के २३ राष्ट्रों ने राजनयिक मान्यता दे रखी है। लगभग १४० देशों के साथ उसके आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनेक अ-राजनैतिक संगठनों में वह सदस्य-राष्ट्र की तरह नहीं, सदस्य-संस्था की तरह सक्रिय है।

भारत के साथ भी ताइवान के राजनयिक संबंध नहीं हैं। ये संबंध दिसंबर १९४९ से ही भंग हो गए थे, क्योंकि भारत ने साम्यवादी चीन को मान्यता दे दी थी। यों तो भारत ने आजाद होते ही च्यांग कादू-शेक के चीन के साथ अपने राजनयिक संबंध स्थापित किए और के.एम.पणिक्कर को राजदूत बनाकर नानचिंग भेजा लेकिन जवाहरलाल नेहरू च्यांग काई-शेक को एकदम भूल गए। उन्होंने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाया और साम्यवादी चीन के वकील बन गए। पणिक्कर को वापस लाल राजधानी पेइचिंग में भेजा गया और माओ के चीन को संयुक्तराष्ट्र में बिठाने के लिए भारत ने एडी-चोटी का जोर लगा दिया। भारत यह भूल गया कि उसकी आज़ादी के लिए राष्ट्रवादी चीन के च्यांग काई-शेक ने कितना जोर लगाया था। १९४२ में च्यांग ने भारत आकर गांधी जी से भेंट की और खुले-आम हमारी आज़ादी का समर्थन किया। चीन ने तिब्बत हडपा, भारत से युद्ध किया, पाकिस्तान को उकसाया और हर क्षेत्र में भारत को चुनौती दी लेकिन उसके प्रतिद्वंद्वी ताइवान की तरफ़ भारत ने आँख घुमाकर भी नहीं देखा। यह प्रधानमंत्री नरसिंहराव को हिम्मत और दूरंदेशी थी कि जैसे उन्होंने इस्राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए, वैसे ही उन्होंने १९९५ में ताइवान और भारत में आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र कायम किए। नई दिल्ली और ताइपेई में ये केंद्र पिछले १४ साल से सक्रिय हैं। इनके मुखिया राजदूत नहीं, महानेदेशक या प्रतिनिधि कहलाते हैं।

आश्चर्य है कि ताइवान से संबंध बढ़ाने में हमारी सरकार को संकोच क्यों है? जब उसका प्रतिद्वंद्वी चीन ही उससे इतने घनिष्ठ संबंध बना रहा है तो हम क्यों डरते हैं? ताइवान छोटा है लेकिन वह एशिया का पाँचवा मालदार देश है। कई क्षेत्रों में वह भारत से भी आगे है। जनसंख्या में भारत ताइवान से ५० गुना बड़ा है और क्षेत्रफल में १०० गुना बड़ा है लेकिन प्रति व्यक्ति आय और शिक्षा में बहुत पीछे है। ताइवान की प्रति व्यक्ति आय कई यूरोपीय राष्ट्रों से भी ज़्यादा है और उसके ९८ प्रतिशत लोग शिक्षित हैं। उसका विश्व-व्यापार ५०० बिलियन डॉलर का है और उसके पास ३०० बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा का भंडार है। ३०० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलनेवाली रेल और ३६ सेकंड में ८६ मंज़िल पार करनेवाली लिफ्ट ताइवान में है। सबसे बड़ी बात यह है कि ताइवान भारत की तरह लोकतंत्र है। यदि भारत-ताइवान संबंध घनिष्ठ हों तो वह मणि-कांचन योग होगा। उससे भारत-चीन संबंधों पर कोई बुरा असर क्यों पड़ेगा? वास्तव में भारत-चीन-ताइवान संबंधों का त्रिकोण सारे एशिया के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है।

१५ जनवरी २०१०