सामयिकी भारत से

महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पारित हो जाने के बाद जोसुआ फ्रेंकफर्ट का विश्लेषण-


दिल्ली अभी भी दूर है


१४ वर्षों से संसद के गलियारों में चहल-कदमी कर रहा महिला आरक्षण विधेयक मंगलवार ९ मार्च २०१० को राज्यसभा में पारित हो गया। नि:संदेह, यह एक बडी उपलब्धि है। मं केंद्र सरकार ने दृढता का परिचय देकर वह इतिहास रच ही डाला, जो लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक था। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने भी इस पवित्र कार्य में केंद्र सरकार की खुलकर सहायता की। वामपंथी भी पीछे नहीं रहे। इन सभी दलों के मन में यह बात कहीं न कहीं थी ही कि आधी आबादी को उसके अधिकार से कब तक वंचित रखा जा सकता है?

कहा तो अब भी जा सकता है कि राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने के बावजूद संसद और विधानमंडलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढना आसान नहीं होगा। संदेह का कारण यह है कि क्या यह संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में भी पास हो जाएगा? क्या उस पर देश की २८ में से १८ विधानसभाएँ भी अपनी सहमति की मुहर लगा देंगी? बहरहाल, संविधान के अनुच्छेद-२३२ के अनुसार कोई भी संविधान संशोधन विधेयक कानून का रूप तभी ले सकता है, जब उसे संसद के दो तिहाई सदस्य पारित कर दें। फिर, देश की दो तिहाई विधानसभाओं में भी वह दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाए।

इस दृष्टि से देखें, तो अभी महिला आरक्षण विधेयक ने एक छलांग ही लगाई है। अभी उसको दो छलांगें और लगानी पडेंगी। यानी, उसको लोकसभा में पारित होना है और राज्य विधानसभाओं में भी। यह काम कठिन लगता जरूर है, पर है नहीं। शर्त यह है कि केंद्र सरकार इस विधेयक को पारित कराने में वैसी ही दृढ़ता दिखाए, जैसी उसने राज्यसभा में पारित कराने में दिखाई है। अगर दृढता नहीं दिखाई गई, तो महिलाओं के लिए दिल्ली अभी दूर ही है। सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार दृढता दिखा भी पाएगी? इस पर संदेह इसलिए है, क्योंकि उसके सामने अभी बजट-२०११ को पारित कराने की चुनौती बरकरार है। अगर वह महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पहली वरीयता देती है, तो यह विधेयक तो पारित हो जाएगा, पर बजट पारित होने की संभावना धूमिल हो जाएगी।

यह विधेयक लोकसभा में इसलिए पारित हो जाएगा, क्योंकि भाजपा और वामपंथी वहाँ भी उसका वैसा ही साथ देंगे, जैसा राज्यसभा में दिया है। फिर, राज्य विधानसभाओं में भी इस विधेयक के पारित होने में कोई मुश्किल नहीं है, क्योंकि देश में १९ राज्य ऐसे हैं, जहाँ की सरकारें कांग्रेस या फिर भाजपा के भरोसे चल रही हैं। इन १९ में से १४ ऐसे भी हैं, जहाँ या तो कांग्रेस की सरकारें हैं या फिर भाजपा कीं। फिर, तमिलनाडु की दोनों पार्टियाँ विधेयक के पक्ष में हैं, तो वहाँ की विधानसभा में भी यह पारित हो ही जाएगा। वामपंथी यों तो कमजोर से लगते हैं, पर केरल और पश्चिम बंगाल में जहाँ उनकी सरकारें हैं, वहीं असम की सरकार में उनकी भागीदारी है। चूँकि असमगण परिषद भी विधेयक के पक्ष में है। अतः असम विधानसभा में भी यह पारित हो जाएगा।

मोटा आँकडा कुल मिलाकर यह बनता है कि महिला आरक्षण विधेयक १८ राज्य विधानसभाओं में पारित करा लेना कोई मुश्किल काम नहीं है। शर्त यही है कि सरकार इसको पहली वरीयता प्रदान करे, पर कहा न कि लोकसभा में वह इस विधेयक को नहीं, बल्कि बजट को ही पहली वरीयता देगी। उसको पता है कि अगर बजट से पहले महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया गया, तो उसके सहयोगी इस हद तक बिदक सकते हैं कि वे बजट के खिलाफ भी ताल ठोंककर मैदान में उतर सकते हैं। भाजपा और वामपंथी तो बजट का समर्थन करने से रहे। इस कारण लोकसभा में बजट पारित नहीं हो पाएगा। इसका अर्थ यह होगा कि कांग्रेस-नीत यूपीए की सरकार अल्पमत में आई मानी जाएगी और इसका अंतिम नतीजा यह होगा कि देश को लोकसभा के मध्यावधि चुनावों का सामना करना पडेगा। जाहिर है कि सरकार के सामने यह मुश्किल ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने पैदा की है। सपा, बसपा और राजद भले ही सरकार के खिलाफ बने रहते, पर ममता बनर्जी अगर उसके साथ बनी रहतीं, तो बजट पारित कराने में दिक्कत नहीं आती। अब ममता के रवैए से साफ हो गया है कि सरकार के लिए महिला आरक्षण विधेयक पारित कराना जितना आसान है, बजट पारित कराना उतना ही कठिन। ऐसे में कांग्रेस लोकसभा में बजट को तरजीह देगी, महिला आरक्षण को नहीं।

वह जानती है कि अगर लोकसभा में उसने महिला आरक्षण विधेयक को प्राथमिकता दी, तो यह ममता के जले पर नमक छिडकना ही होगा। हाँ, कांग्रेस ममता बनर्जी के जले पर नमक छिडकने का जोखिम ले भी सकती है, पर तब, जब वह लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराने का जोखिम लेने को तैयार हो जाए, पर फिलहाल ऐसी स्थिति है नहीं कि वह इतना बडा जोखिम ले ही ले।

सही है कि खबरें राहुल गांधी की लोकप्रियता बढने की आ रही हैं, पर सच यह भी है कि महंगाई ने कांग्रेस का जो नुकसान किया है, उसकी भरपाई महिला आरक्षण विधेयक से पूरी होने की गुंजाइश बहुत कम ही है। अतः लगता यही है कि कांग्रेस लोकसभा में पहले बजट ही पारित कराएगी। इसके लिए अगर उसको महिला आरक्षण विधेयक अगले सत्र तक के लिए टालना पडे, तो वह इससे भी नहीं हिचकेगी। यहीं आकर यह भी महसूस होता है कि राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने के बावजूद महिलाओं के लिए दिल्ली अभी दूर है। हाँ, यह जरूर है कि जब कारवाँ रसोईघर से बाहर निकल ही आया है, तो अब उसको फिर से अंदर धकेलना किसी भी सरकार के बूते की बात नहीं है। यानी, अब महिला आरक्षण की रेलगाडी अपने अंतिम पडाव दिल्ली पहुँचकर ही रुकेगी।

१५ मार्च २०१०