सामयिकी भारत से

मनीष जैनशिक्षा के क्षेत्र में क्रांति का शंखनाद करती "शिक्षांतर" के विषय में रामस्वरूप रावतसरे का आलेख-


‘शिक्षांतर’ बनाती शिक्षा को बेहतर


शिक्षान्तर संस्था में बच्चों के लिये कोई पाठयक्रम नहीं है। यहाँ आने वाले बच्चों को उनकी रूचि के अनुसार ही पढ़ाया जाता है। उसके अनुसार ही उन्हें काम दिया जाता है, काम लिया जाता है। यहाँ पर बच्चों के लिये किसी प्रकार का बन्धन नहीं है।

आधुनिक शिक्षा से देश-विदेश में हताशा का भाव पैदा हो रहा है। आज जो शिक्षा दी जा रही है, वह एक ऐसा ज्ञान है जिसका वास्तविक जीवन में बहुत कम सरोकार रह गया है। इस बात को समझते हुए मनीष जैन ने सन् १९९८ में राजस्थान के उदयपुर में ‘शिक्षान्तर’ नाम की संस्था का गठन किया। आज यह संस्था दर्जन भर शहरों में अपने ५०० से भी अधिक कार्यकर्ताओं के साथ काम कर मनुष्य को उसके वास्तविक जीवन से रूबरू करा उसमें श्रेष्ठता का संचार कर रही है। मनीष जैन का मानना है कि वर्तमान शिक्षा ने मनुष्य के दिमाग को प्रदूषित कर दिया है। उसको साफ किया जाना जरूरी है। शिक्षान्तर संस्था ने मानसिक प्रदूषण को दूर करने के लिये भौतिक प्रदूषण को अपना कार्य क्षेत्र बनाया है। कबाड़ से ही जीवन से जुड़े उपभोग के साधनों को विकसित करने में संस्था विशेष ध्यान देती है।

मनीष जैन के अनुसार स्लम का काम बहुत ही छोटा माना जाता है और साधारणतया इस कार्य को कोई भी करने को तैयार नहीं होता है। लेकिन उनकी संस्था यहीं से काम शुरू करती है। इस कार्य के माध्यम से उन्होंने कई लोगो को जीवन की एक नई दिशा दी है। श्री जैन के अनुसार सरकारी स्तर पर स्लम को लेकर कई प्रकार की योजनाएँ तो बनती हैं, पर जिस स्तर पर काम होना चाहिये वह शुरू नहीं होता है। यही कारण रहा है कि स्लम को लेकर अरबों रूपये खर्च होने के बाद भी हमारे देश में झुग्गी बस्तियाँ खत्म होने के बजाय दिन रात बढ़ रहे हैं।

शिक्षान्तर संस्था में बच्चों के लिये कोई पाठयक्रम नहीं होता है। यहाँ आने वाले बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार ही पढ़ाया जाता है। उसी के अनुसार ही उन्हें काम दिया जाता है, काम लिया जाता है। यहाँ पर बच्चों के लिये किसी प्रकार का बन्धन नहीं है। मनीष जैन के अनुसार गांधी जी की शिक्षा को लेकर जो अवधारणा थी, वो यही थी कि शिक्षा बच्चे को उसके वास्तविक जीवन से रूबरू कराये और उसकी क्षमता के अनुसार उसे आगे बढ़ने दे। दुर्भाग्य से ऐसा सरकार द्वारा संचालित शिक्षालयों में नहीं हो रहा है। वर्तमान शिक्षालयों में छात्र की रूचि का कोई ध्यान नहीं होता, वहाँ तो बस्तों का बोझ लाद दिया जाता है, जो उसके जीवन में कहीं भी उपयोगी साबित नहीं होता।

शिक्षांतर संस्था हर वर्ष साइकिल यात्रा का आयोजन करती है जिसमें संस्था के कार्यकर्ता भाग लेते हैं। यह साइकिल यात्रा किसी एक गाँव में जाती है। इस यात्रा में सम्मिलित किसी भी यात्री के पास किसी प्रकार की राशि या दैनिक उपभोग का सामान नहीं होता है। गाँव में जाकर शिक्षान्तर के सदस्य वहाँ के जीवन के अनुसार अपने आप को ग्रामीणों के साथ काम में लगाते हैं। उसमें किसी भी प्रकार का काम हो सकता है- जैसे खेती करना, पशुओं को चारा डालना, पशुओं के स्थान पर सफाई का काम करना, लकड़ी काटना, मिट्टी की खुदाई करना, रसोई का काम करना, कपड़े धोना इत्यादि। जो कार्य ग्रामीण करते हैं संस्था के सदस्य भी उन कार्यों को करते हैं। उन कामों से जो भी मजदूरी स्वरूप मिलता है, उसे सदस्य स्वीकार करते हैं। मनीष जैन का मानना है कि ऐसा करने से हमारा ग्रामीण जन जीवन से सामना होता है और वहाँ की समस्त बातों को हम समझ पाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात यह होती है कि किसी भी छोटे से छोटे काम को करने से हमारे अंदर बैठी झिझक चली जाती है।

आज ‘प्रयोग के बाद फेंकने’ की संस्कृति विकास पर है। इससे हर स्थान पर कबाड़ बढ़ रहा है। सरकार के पास इसके उपयोग या उपभोग के लिये कोई योजना नहीं है, लेकिन शिक्षान्तर संस्था इसी कबाड़ से खिलौने एवं अन्य उपयोगी सामान का निर्माण करती है। मनीष जैन के अनुसार कबाड़ से ही उन्होंने एक होटल में पूरे फर्नीचर का निर्माण कर उसे नया रूप दिया था। उनकी संस्था का उद्देश्य ही कचरा मुक्त जीवन से है। चाहे वह दिमागी कचरा हो या बाहरी कचरा।

शिक्षान्तर संस्था द्वारा बैग, आभूषण, सोलर कूकर, खिलौने, डायरियाँ तथा फर्नीचर का निर्माण किया जाता है। संस्था द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध जड़ी-बूटी के संबंध में ग्रामीणों को जानकारी उपलब्ध कराई जाती है, ताकि वे अंग्रेजी दवाओं के सेवन से बचें। संस्था द्वारा छतों पर खेती किस प्रकार की जा सकती है, इसकी जानकारी भी उपलब्ध करायी जाती है, ताकि लोग कम स्थान में सब्जी व अन्य फसल, जो रोजमर्रा उपयोग में आती हैं, का उत्पादन कर सकें।

मनीष जैन का मानना है कि वर्तमान शिक्षा ने हमारी संस्कृति को तहस-नहस कर दिया है। हमारा जो स्वयं का अस्तित्व था वह नष्ट होकर रह गया है। हम प्रत्येक क्षेत्र में पिछलग्गू बन कर रह गये हैं। वर्तमान शिक्षा तंत्र से स्कूल सड़ चुके हैं। उनके अनुसार प्रत्येक छात्र को दसवीं व बाहरवीं कक्षा के बाद एक साल तक स्कूल को छोड़ देना चाहिये और पूरे देश का भ्रमण करना चाहिये ताकि उसे यह समझ आ सके कि उसने जो स्कूल में शिक्षा प्राप्त की है, उसका उपयोग वास्तविक जीवन में कितना हो पायेगा और कितना नहीं हो पायेगा।

शिक्षान्तर संस्था यह भी प्रयास कर रही है कि सरकारी या व्यक्तिगत नौकरियों में डिग्री या डिप्लोमा की बजाए अनुभव व कार्य के ज्ञान के आधार पर नौकरी मिले। संस्था के सदस्य कभी भी पैसा लेकर नहीं चलते। वे पैसे के बिना ही अपनी यात्रा शुरू करते हैं और सफल होते हैं। उनके अनुसार पैसा ही सब कुछ नहीं है। दुर्भाग्य से आज प्रत्येक व्यक्ति मान बैठा है कि बिना पैसे के कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन शिक्षांतर के लोगों ने यह साबित कर दिया है कि अगर पास में पैसा नहीं हो तो भी बहुत कुछ किया जा सकता है।

भारतीय पक्ष से साभार

२३ अगस्त २०१०