पर्यटन

भंगाहल का तिलिस्मी संसार

 

गुरमीत बेदी

बर्फ़ीले, रूपहले शिखर–भंगाहल

हिमाचल की सबसे खूबसूरत घाटी कौन सी है और किस घाटी को रोमांच प्रेमियों के स्वर्ग का ख़िताब दिया जा सकता है, यह सवाल किसी रोमांच प्रेमी घुमक्क़ड से पूछा जाए तो यकीनन वह भंगाहल घाटी का नाम ही लेगा। यह एक ऐसा तिलस्मी लोक है जहां पहुंचते ही रोमांच के कई अध्याय ज़िंदगी की किताब में दर्ज होने लगते हैं। बर्फ़ीले, रूपहले शिखर, शिखरों के आगोश में हरियावल घाटियां। घाटियों के सीने पर सीढ़ीनुमा खेतों की लंबी कतारें। खेतों को सींचते पारदर्शी जल के झरने। घाटियों की संकरी ढलानों में नागिन सी बलखाती सरिताएं। कहीं शिखर से लु़ढ़कता आता कोई जल प्रपात।

भंगाहल घाटी प्रकृति के इन तमाम रूपों का नाम है। हिमाचल की अगर किसी घाटी तक पहुंचने का सफ़र सबसे जोख़िम भरा है तो वह भंगाहल घाटी ही है। एक से बढ़कर एक रोमांचकारी पड़ाव, एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज़ अजूबे और एक से बढ़कर एक नैसर्गिक स्थल। घुमक्कड़ जब इस घाटी में घुसता है तो एक अनूठी दुनिया उसका स्वागत करती है। यहां के लोगों की अनूठी संस्कृति, दिलचस्प परंपराएं, खानपान व पहरावा है जो प्रदेश के बाकी क्षेत्रों से मेल नहीं खाता। यही भिन्नता इस घाटी को विशिष्ट भी बनाती है। सड़क इस घाटी तक नहीं पहुंची है और ट्रैकिंग व रोमांच के शौकीन ही यहां दस्तक दे सकते हैं। जो लोग पैर की सैर का रोमांच नहीं ले सकते और सिर्फ़ वाहन की सैर तक ही सीमित हैं, उनके लिए तो एक सपना ही है यह घाटी और यहां का मायालोक। इस मायालोक में झांकने के लिए एक रोमांच भरा सफ़र लेखक को तय करना पड़ा, जिसकी स्मृतियां हमेशा के लिए मानस पटल पर अंकित हो गई हैं।

बैजनाथ–मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर बीड़ रोड़ से चाय बागानों का सिलसिला शुरू होता है। सड़क के दोनों किनारों पर चाय बागानों में पतियां तोड़ती महिलाओं के गीतों के बोल पलभर के लिए ठिठकने को विवश कर देते हैं। फिर ज्यों–ज्यों कदम आगे बढ़ते जाते हैं, 'ओम मणि पदमे हुम' मंत्रों का जाप करते बौद्ध भिक्षु अपनी ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। आगे बाज़ार है। कुछ एक दुकानें और चाय का कारखाना। यहां किसी दुकान पर कांगड़ा चाय पीकर ताज़ादम हुआ जा सकता है। इससे आगे का सफ़र रोमांचभरा है। घने जंगलों का सिलसिला शुरू हो जाता है। सर्पीली, बलखाती सड़क निरंतर पहाड़ के वक्ष पर रेंगती प्रतीत होती है। चौदह किलोमीटर का सफ़र तय करके जब बिलिंग पर पांव पड़ते हैं तो यों लगता है जैसे आसपास के पहाड़ हमारे लिए बौने पड़ गए हों और हम अंतरिक्ष में तैर रहे हों। दूर–दूर तक पहाड़ियों का सिलसिला है। नीचे झांकें तो छोटे–छोटे गांव, खिलौने से घर, लहलहाती फसलें, जिन्हें देखकर धरती पर विशाल गालीचा बिछे होने का मुग़ालता होने लगता है, बरबस ही मन मोह लेते हैं। पर्वत श्रृंखलाओं पर अठखेलियां करते बादल प्रकृति के विभिन्न रूपों से रूबरू करवाते हैं।

बिलिंग रोमांचक खेलों के आयोजन के लिए मशहूर है। हैंगग्लाइडिंग और पैराग्लाडिंग के लिए तो बिलिंग जैसी जगह समूचे एशिया में नहीं। 1984 में यहां सबसे पहले हैंगग्लाइडिंग का आयोजन हुआ था। इसके बाद तो यह स्थल अंतर्राष्ट्रीय खेल मानचित्र पर आ गया। साहसिक खेलों के आयोजन के दिनों में तो यहां काफ़ी चहल–पहल रहती है, लेकिन बाद में फिर बिलिंग खामोशी की चादर ओढ़ लेता है। यह खामोशी तभी टूटती है जब कोई गद्दी अपनी भेड़ बकरियों के रेवड़ के साथ यहां पड़ाव डाले या फिर पर्वतारोहियों और रोमांच प्रेमी पर्यटकों का कोई दल यहां से गुज़रे। बिलिंग से सूर्योदय और सूर्यास्त का नज़ारा बड़ा विहंगम लगता है। घाटियों में तैरते, दरख़्तों से लिपटते बादलों के टुकड़े बरबस ही मन मोह लेते हैं। बिलिंग से बारह किलोमीटर आगे बड़ाग्रां है। यहां आबादी है और गद्दी लोगों के बसेरे हैं। सीढ़ीनुमा खेतों में गेहूं की लहलहाती फसल को देखना बड़ा मोहक लगता है। अपनी ही दुनिया में सिमटे यहां के लोगों को सैलानियों का साथ बड़ा अच्छा लगता है।

राजगुंधा और कुक्कड़गुंधा इस घाटी के रमणीय स्थल हैं। ऊहल नदी के किनारे बसा कुक्कड़गुंधा गांव कांगड़ा जिले के दुर्गम छोटा भंगाहल इलाके का आख़िरी गांव है। समुद्रतल से क़रीब तीन हज़ार मीटर की ऊंचाई पर बसे इस गांव में प्रकृति ने दिल खोलकर अपना नैसर्गिक सौंदर्य लुटाया है। चारों तरफ़ तोष, देवदार और कैल के गगनचुंबी पेड़ अदभुत नज़ारा प्रस्तुत करते हैं। गांव में 15/16 घर हैं और सभी दड़बानुमा। सर्दियों में यह गांव कई–कई फुट मोटी बर्फ़ की चादर से ढ़क जाता है और गांव के बाशिंदे सर्दियां आते ही यहां से पलायन कर बैजनाथ उपमंडल के गद्दी बहुल इलाकों में जा बसते हैं। गर्मियों के दस्तक देते ही यह गांव फिर आबाद हो उठता है।

कुक्कड़गुधा से सात किलोमीटर आगे है– 'पलाचक'। यह भी ऊहल नदी के किनारे बसा है। यहां लकड़ी से निर्मित वन विभाग का विश्राम गृह है। यहीं हमने रात काटी। एक रोमांच भरी रात। रात तेज़ तूफ़ान में यों लगता था जैसे  हवा इस विश्राम गृह को या तो उड़ा कर कहीं दूर ले जाएगी या फिर लकड़ी की शहतीरियां हम पर आ गिरेंगी। ग़र्मियों के मौसम में भी ठिठुरते रहे। सुबह सब शांत था। मंद–मंद ब्यार चल रही थी और पर्वतीय पंछियों की चहचहाहट वातावरण में मधुर रस घोल रही थी। नाश्ता लेकर हमने आगे कूच किया। वृक्षों का काफ़िला हमारे साथ था और कहीं रूकने का नाम नहीं ले रहा था। सफ़र रोमांच से भरा था। नीचे ऊहल नदी और उस पर जमी क़रीब दस फुट मोटी बर्फ़ की तह। मढ़ी तक 8/10 किलोमीटर का सफ़र नदी पर जमी बर्फ़ पर चलते हुए तय किया। दोपहर होते होते मढ़ी आ गई थी। यहां सिर्फ़ एक दुकान है और वह भी मौसमी। यानि गर्मियों में आबाद और सर्दियों में बंद। बड़ा शांत, अलौकिक वातावरण है यहां का। ऊपर नज़र दौ़ड़ाएं तो थमसर दर्रा का सिरा दिखाई देता है। आगे का सफ़र तो और भी रोमांचक हो जाता है।

थमसर दर्रा से नीचे उतरने का रास्ता इतना जोख़िम भरा है कि अक्सर उतरने वाला पग–पग पर फिसलता हुआ नज़र आता है। इस रोमांचकारी रास्ते को तय करके जब नीचे पहुंचते हैं तो चारों तरफ़ प्रकृति ही प्रकृति बिख़री हुई दिखाई देती है। एक सुरम्य झील है जिसके पानी का रंग गहरा नीला दिखता है। झील की गहराई का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। मान्यता है कि इस झील में देवता स्नान करते हैं। आगे का रास्ता दुरूह भी है और सुरम्य भी। तक़रीबन सात किलोमीटर के इस सफ़र में रंगबिरंगे छोटे–छोटे फूल, जड़ी–बूटियों के पौधे, भोजपत्र के पेड़, वन्य प्राणी हमारा स्वागत करते दिखते हैं। हिमाचल का राज्य पक्षी मोनाल और बर्फ़ में पाया जाने वाला भालू भी कुछ खुशनसीब लोगों को दिख जाता है। जगह–जगह भेड़–बकरियों के झुंड, चरागाहें, खुले मैदान मन मोह लेते हैं। गर्मियों में हज़ारों की तादाद में भेड़–बकरियों संग गद्दी पुआल यहां डेरे लगाते हैं।

भंगाहल घाटी में पहुंचने से पहले आता है–कालीहणी दरिया। इस दरिया पर लकड़ी का परंपरागत पुल बना है। इसे पार करके आगे चलते हुए सुरमई रावी नदी की छटा अभिभूत कर देती है। भंगाहल इस नदी के दाईं तरफ़ स्थित है और यहां रावी और कालीहणी दरिया का मनोहारी संगम होता दिखता है। रावी नदी का उदभव इसी घाटी के 'रई गाहर' नामक स्थल से होता है जिसे कुछ लोग हनुमान किला भी कहते हैं। लोक मान्यता है कि इस किले में कभी सात देवी बहनों 'सत भाजणियों' का वास था। किसी कारणवश आपस में मनमुटाव होने पर एक रात छः बड़ी बहनें, छोटी बहन को सोता छोड़कर रई सागर से दूर विभिन्न स्थानों को चली गईं। जहां वे नदी के रूप में बहने लगीं। ये नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती, ब्यास, सतलुज और चेनाब हैं। सुबह जब छोटी बहन की नींद खुली तो स्वयं को अकेला पाकर वह रोने लगी। उसके नेत्रों से इतने आंसू बहे कि उन्होंने नदी का रूप धारण कर लिया और वह स्वयं रावी नदी बन गई। भंगाहल के लोग सतभाजणी को देवियों के रूप में पूजते हैं।

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