व्यक्तित्व

जानकीवल्लभ शास्त्री की पुण्यतिथि के अवसर पर

मुक्ति-मरण-विश्राम--माँगे-जीवन-का-विश्वासी
शेफाली शर्मा


वर्तमान युग के साहित्यकारों में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का नाम एक ऐसे ’संस्कृति पुरुष‘ के रूप में लिया जा सकता है जिन्होंने अपने साहित्य-सृजन से एक ऐसा प्रतिमान स्थापित किया है, जिसे प्राप्त करना एक सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं। छायावाद युग और प्रगतिवाद युग के संधिस्थल पर एक साहित्यकार के रूप में आविर्भूत होने वाले इस मनीषी रचनाकार ने लगभग हर विधा में अपनी लेखनी का चमत्कार दिखाया है।

अपनी विद्वन्मयी पारिवारिक परंपरा और परम विद्वान पिता पंडित रामानुग्रह शर्मा की अनुशासनमयी शिक्षा पद्धति ने जानकीवल्लभ जी के व्यक्तित्व को सँवारा और निखारा। अपने संस्मरणात्मक ग्रंथ हंस-बलाका में उन्होंने लिखा है- ’मेरे दूध के दाँत के साथ गीता उगी थी, धम्मपर निकला था, जीभ अब भी इकबालिया बयान दे सकती है।‘ शास्त्री जी ने एक स्थल पर कहा है-

साधन की शुद्ध व्यवस्था देखी जाती
तेजस्वी की न अवस्था देखी जाती।

यह कथन उनके संदर्भ में एकदम खरा उतरता है। उन्नीस वर्ष की अल्पायु में, सन १९३५ में उनका पहला संस्कृत काव्य-संग्रह काकली प्रकाशित हुआ। इस संकलन के गीत अपने पदलालित्य, मसृण भावाभिव्यंजना, बिंब योजना, चित्रात्मकता और अंलकारिकता के कारण जयदेव के गीतगोविंद का स्मरण कराते थे। एक संस्कृत विद्वान ने तो यह भी पूछा- ’क्या कालिदास की कुछ रचनाएँ प्रकाश में नहीं आ सकी थीं?‘ इन गीतों में परंपरा के साथ-साथ आधुनिकता का समावेश हर स्तर पर हुआ है। विषयवस्तु, शिल्प, भावाभिव्यंजना, उपमान, छंद-योजना जैसी न जाने कितनी दृष्टियों से कवि ने अभिनव प्रयोग किए हैं जिनके कारण उन्हें ’अभिनव जयदेव‘ की उपाधि से अलंकृत किया गया। ’ओड‘ नामक ’संबोधन गीत‘ की अंग्रेजी शैली को अपनाते हुए शास्त्री जी मधुमक्षिका (इंदिंदिर) को कहते हैं कि तुम पहले जिस फूल का मकरंद पीती हो, बाद में मंद-मंद स्वर में उसी की निंदा करती हो? अवसर पड़ने पर लाभ उठाने वाले लोगों पर इस अन्योक्ति से सुंदर व्यंग्य किया गया है-
इंदिंदिर! निंदसि मकरंदम्?
पीत्वा पूर्वमपूर्व प्रेम पूर्वकमयि! मंदं मंदम्?

शास्त्री जी द्वारा रचित प्रबंधात्मक खंडकाव्य बंदीमंदिरम् पराधीन भारत के कारावास में दंड की लंबी अवधि झेलते एक नवयुवक की करुण गाथा है जिसकी सभी अभिलाषाओं का एकमात्र केंद्र ’देश का उद्धार‘ है। कालिदास कृत मेघदूत के समान मंदाक्रांता छंद में लिखा गया यह काव्य १५१ छंदों में निबद्ध है। इसकी रचना के समय की अपनी मानसिकता पर प्रकाश डालते हुए शास्त्री जी कहते हैं- ’सन ३६ में कुछ दिन लाहौर में था।... भगत सिंह की दहशत के धुएँ से अवचेतना में कहीं घुटता रहता था....सो एक दिन रावी के किनारे पर ही मेघदूत गुनगुनाते समय अचानक एक छंद मेरे मुँह से निकल गया-
कश्चिद्देशोरणधृतधीस्वाधिकारा यमंद्धतः...।‘

संस्कृत ग़ज़ल की रचना करके शास्त्री जी ने एक और नया प्रयोग किया। उर्दू ग़ज़ल की नाजुकमिजाजी जब संस्कृत की पावन भूमि पर उतरी तो सचमुच कमाल हो गया! दूसरी ओर उनकी संस्कृत-अनुवाद-कला ने सभी को सहज ही आकर्षित कर लिया। निराला जी की प्रसिद्ध कविता ’जुही की कली‘ का यह भावानुवाद उनकी लेखनी का चमत्कार स्पष्ट दर्शाता है-
अधि-विजन-नव-वल्लरी/मान-मधुरिममयि, स्नेह-स्वप्न-वासना-विमीलित-विलोचना
सोम-कल-कोमल-तर-तरुणी शयनाऽसीत् काऽपि यूथिकाकलिका/ मसृणपर्णपर्य्यड्के।

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर निराला जी ने उन्हें काकली की रचना करने के कारण ’बालपिक‘ के रूप में संबोधित किया था और उन्हें हिंदी के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया। इस क्षेत्र में पदार्पण करने पर शास्त्री जी ने अनेक काव्य-संग्रहों की सृष्टि की, जैसे- रूप-अरूप, गाथा, तीरतरंग, शिप्रा, अवंतिका, संगम, उत्पलदल, बाललता, धूपतरी, श्याम संगीत आदि। इन संकलनों के गीतों के लिए विषय वस्तु का चयन करते हुए कवि ने अत्यंत व्यापक फलक का प्रयोग किया है जिसमें प्रेम, सौंदर्य, दर्शन, भक्ति, अध्यात्म, आशा-निराशा, जीवन-मृत्यु, प्रकृति आदि सभी कुछ समाविष्ट हो गया है।
मेरी शिथिल, मंदगति ही क्यों, गिरि, वन, सिंधु-धार भी देखो।
पीले पत्तों में, वसंत के लाल प्रवालों का दल सोता
काले जड़ पाषाणों में रहता उज्ज्वल जीवन का सोता,
आँखों का खारा जल ही क्यों, उर का मधुर प्यार भी देखो।

शास्त्री जी की विशेषता है कि वे स्वप्निल कल्पनाओं के मूल्य पर जीवन के कठोर यथार्थ को कभी नहीं भुलाते। युगीन परिस्थितियों और विसंगतियों के संदर्भ में संस्कृति, समाज, राष्ट्र, धर्म अथवा साहित्य का प्रसंग आने पर उनके स्वर में विप्लव और विद्रोह के स्वर अपने आप फूट पड़ते हैं-
कैसे घी के दिये जलाऊँ?
गद्दारी की नहीं देश से/पर इससे क्या?
देशभक्ति और गद्दारी तो साथ-साथ चल सकती थी
मैं विदेशियों का होता जासूस/राजदंड और राजछत्र के संरक्षण में
उपजा सकता था जनता के खेतों में साहित्य।

आचार्य जी द्वारा विरचित राधा महाकाव्य अपनी गीति प्रबंधात्मकता के माध्यम से राधा-कृष्ण के परंपरानुमोदित कथानक को एक नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है। इसके सात पर्वों- प्रणय, पुरुषार्थ, दर्शन, विनोद, निर्वेद, प्रभास और उत्सर्ग- में जीवन के पुरुषार्थ को संजीवनी प्रदान करने वाले ’प्रणय‘ के समुज्ज्वल रूप को अंकित किया गया है। यहाँ राधा एक साधारण मानवी नहीं, निश्छल स्नेह की प्रतिमूर्ति है, जो कृष्ण को वंशी फेंककर पांचजन्य फूँकने की प्रेरणा देती है-
राधिका कोई न नारी एक/भावना वह हृदयहारी एक
रक्त-मज्जा की नहीं वह देह/राधिका का अर्थ निश्छल नेह।

उनका कथाकाव्य गाथा कविता-विधा में कहानी कहने का एक अभिनव प्रयास है जिसकी सात गाथाओं में व्यंग्य अपने पैनेपन और सच्चाई के साथ पूरी तरह से उभर कर आया है-
बेचा जाता धर्म यहाँ ताँबे के टुकड़ों पर
ईश्वर फुसलाए जाते दोने भर दही-बड़ों पर
पर मंदिर के फाटक पर भूखे मर जाएँ आह
उन पर दृष्टि पड़े न धर्म औ ’ईश्वर की यह चाह।

अपने गीति नाट्यों- पाषाणी, तमसा, इरावती में आचार्य जी ने पुराणेतिहास के प्रसिद्ध पात्रों को नए संदर्भों से जोड़ा है। सुने कौन नग्मा में उनकी हिंदी ग़ज़लों का संकलन हुआ है। भाषा, शैली, बहर, विषयवस्तु, शिल्प, अभिव्यंजना, शब्द-शक्ति- सभी दृष्टियों से उनकी ग़ज़लें अनूठी हैं। उनकी वाणी प्रेरणा और आशा का संदेश देती है-
गरज मत, यह बरसने का समय है
न फट पड़, खुद को कसने का समय है।

शास्त्री जी का गद्य-साहित्य व्यापकता लिए हुए है। उनका उपन्यास एक किरण सौ झाइयाँ आधुनिक परिवेश में भ्रमित होती युवा पीढ़ी को झकझोरता है- ’यहाँ तो कलाकार को राजनीतिक सफलता के लिए चपरासी से लेकर फुनगी तक फुदकते हुए भाग्यविधाता तक की खुशामद करनी पड़ती है; दार्शनिक को अफीम खानी पड़ती है और जो इक्के-दुक्के विद्वान बच रहे हैं, उन्हें एकदम दरवेश के वेश में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है।‘ दूसरी ओर उनका उपन्यास कालिदास पुरातन भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम पक्ष उजागर करता है। इसमें कालिदास के साथ शास्त्री जी का व्यक्तित्व एकमएक हो गया है। एक छवि के रूप में उनका व्यक्तित्व देश और काल की सीमाओं से परे है- ’श्रीपर्वत की कुंकुम-केसर वाली घाटियों का, शारदा देश का निवासी हूँ। काव्य के माध्यम से मैं उसके रूप-रस-गंध को विश्व में विस्तृत करना चाहता हूँ।‘

शास्त्री जी के काव्य-संग्रहों- कानून, अपर्णा, लीलाकमल, बांसों का झुरमुट, में मनुष्य-समाज की विसंगतियों को बड़ी सूक्ष्मता और कुशलता के साथ उभारा गया है। ’मानव के नेता‘ कहानी में रायबहादुर दमड़ी साहू के महल से गिर जाने पर सुधुआ की मौत हो जाती है। पैसा देकर सबका मुँह बंद कर दिया जाता है। पत्रिकाओं में समाजवाद पर लेख लिखे जा रहे हैं। सुधुआ की विधवा देवर के साथ रहने लगी है। सब कुछ सामान्य हो गया है, बस सुधुआ की बूढ़ी माँ रोती रह गई है, सो उसे कौन पूछता है? कहानियों की वातावरण-सृष्टि पात्र-योजना, कथोपकथन और लेखक के व्यंग्यपूर्ण वक्तव्य- सभी कुछ मिलकर कहानी के कथ्य को अत्यंत मार्मिक बना देते हैं।

जानकीवल्लभ जी ने आठ गद्यनाटक भी लिखे हैं- प्रतिध्वनि, अशोकवन, कालिदास जंयती, यात्री, देवी, कालचक्र, शकुंतला, ऋतुराज। इन सभी नाटकों में लेखक ने समाज, संस्कृति, पुराण, इतिहास, कल्पना- सभी से कथानक ग्रहण कर नाटक का रूप दिया है। मन की बात शीर्षक अपने ललित निबंधों के संग्रह में उनकी तूलिका ने अनेकानेक कोमल और रंग-बिरंगे चित्र आँके हैं। शरद हिमालय में निबंध में शरद ऋतु के आगमन का वर्णन करते हुए उनकी ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- ’वर्षा के मंगल स्नान से धरती के तन की गुराई निखर आई। पकी-सुनहली बालियों से तरुणाई गदरा गई। हंसों की रुनझुन पायल चंचल पद-पद्यमों में बँध गई। मन का अगाध सरोवर निर्मल क्या, पारदर्शी हो गया। खंजन-नयन नीलिमा से अँज गए। शरद आ गई।‘

जानकीवल्लभ जी ने संस्मरण-आत्मकथा-जीवनी-परक सात ग्रंथ लिखे हैं- स्मृति के वातायन, हंसबलाका, निराला के पत्र, नाट्य-सम्राट: श्री पृथ्वीराज कपूर, कर्मक्षेत्र मरुक्षेत्र, एक असाहित्यिक की डायरी और अष्टपदी। इन ग्रंथों में शास्त्री जी ने अपना और संस्मरणीय व्यक्तियों का बड़ा सच्चा, सजीव और चित्रात्मक वर्णन किया है। इनमें हमें लेखक के व्यक्तित्व के अनेक सामान्य-विशेष पक्षों, जीवन के संघर्षों, पारिवारिक परिवेश, आर्थिक अभाव आदि का ज्ञान होता है। उनके निवास-स्थान ’निराला निकेतन‘ और उसमें शास्त्री जी की स्नेह छाया में रहने वाले मूक प्राणियों- गौ, कुत्ते, बिल्ली आदि से पाठक का एक रागात्मक संबंध सहज ही स्थापित हो जाता है। शास्त्री जी अष्टपदी में कहते हैं कि इन्हें छोड़कर वे सदेह स्वर्ग भी नहीं जाना चाहते। इन ग्रंथों से उनकी बहुज्ञता, सहृदयता, धन के प्रति निर्लोभता, मातृ-पितृ भक्ति, पशु-प्रेम, भारतीय संस्कार जैसे अनेकविध पक्षों का ज्ञान होता है।

संपादन की दृष्टि से उनके दो ग्रंथ मिलते हैं- महाकवि निराला और मानसचिंतन जिनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, कामिल बुल्के जैसे विद्वानों के विद्वत्तापूर्ण लेखों का संपादन किया गया है। शास्त्री जी द्वारा लिखित उक्त ग्रंथों की भूमिकाएँ निश्चय ही संबद्ध विषय को विशेष गरिमा प्रदान करती हैं। उनके द्वारा संपादित दो पत्रिकाएँ हैं- राका और बेला। राका का संपादन सन १९५० से १९६४ तक ही हो पाया और बेला पत्रिका का संपादन अंतिम दिनों तक। इन पत्रिकाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इनमें प्रतिष्ठित साहित्यकारों के लेखों के साथ नवागंतुक साहित्यकारों के लेखों को भी समान सम्मान दिया जाता है।

विगत  ७ अप्रैल २०११ को वे हमारे बीच नहीं रहे। अपनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने जीवन पर्यन्त रुकना नहीं सीखा। अनकहा निराला २००३ में प्रकाशित उनकी अंतिम कृति है। साथ ही बेला का सतत प्रकाशन उनके तत्वावधान में उनके जीवन पर्यन्त होता रहा। मुजफ्फरपुर में स्थित अपने आवास ’निराला निकेतन‘ में अपने अंतिम समय तक कार्यरत शास्त्री जी आज के साहित्यकारों की स्मृतियों में सदा एक प्रकाश-स्तंभ के रूप में रहेंगे। उनकी यह विद्यमानता हम सभी के लिए सौभाग्य का विषय है। भारतीय साहित्य का यह युगपुरुष सदा अमर रहे और उनके कार्य सभी महान साहित्य-रचना करने वालों के लिए प्रेरणा-स्रोत बने रहें हमारी यही कामना है।

१ अप्रैल २०१२