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संकट के ऐसे क्षणों में बड़े बाबू को अपना पुराना वक्त बड़ी शिद्दत से याद आता। पहले के बाबू कितना सम्मान देते थे अपने से ऊंचे ओहदेदारों को। इसी सीट पर लक्ष्मी बाबू बैठते थे‚ मजाल थी कि कोई बाबू उनकी मौजूदगी में ऊंचे स्वर में बोल दे। हंसने की तो बात ही दीगर है। आज संकट की इस घड़ी में उनका रोम–रोम यही प्रार्थना कर रहा था कि सामने बैठे बाबू फिर से पुराने बाबू बन जाएं और अनुशासन नामक शब्द का महत्व उनके मन में कुछ इस तरह बैठ जाए कि वे सत्ता–परिवर्तन से घायल बड़े बाबू की तरफ देखकर आंख मटकाना या हवा में फिकरे उछालना बन्द कर दें।

प्रातःकालीन प्रार्थना सभाओं की बहुत सारी कामनाओं की तरह बड़े बाबू की यह इच्छा भी बीच–बीच में कटूक्तियों की चट्टान से टकराकर टूटी जा रही थी। बड़े बाबू फाइल में सर गड़ाए किसी काल्पनिक गम्भीर समस्या का हल ढूंढ़ने की कोशिश करते ही कि भाषा के लालित्य का एक नमूना उनके कानों से टकराता‚ "खूब पादता था साला हवा में . . .अब हुई बत्ती बन्द।"

बड़े बाबू समस्या में और गहरे डूब जाते पर उनके न सुनने का बहाना अधिक देर नहीं चलता। बाबू लोग फिस्स से ऐसे हंसते कि और कहीं पहुंचे न पहुंचे‚ हंसी बड़े बाबू तक जरूर पहुंच जाए। बड़े बाबू चश्मा नाक पर सरकाकर चारों तरफ देखते। तब तक हंसनेवाले बाबुओं की फाइलों में गम्भीर समस्याएं प्रकट हो जातीं। वे फाइलों में आंख गड़ा लेते। आंख के इस लिहाज को बड़ा अच्छा मानते हैं पर मुश्किल यह है कि बाबू लोग फाइलों में मुंह जरूर गड़ा लेते हैं पर उनके होंठों पर खास तरह की मुस्कान तैरती रहती है।

बाबुओं में हर दफ्तर में दो पक्ष रहते हैं, यहां भी थे। सन्तुष्ट पक्ष में वे बाबू थे जिन्हें कैम्प क्लर्क या प्री–आडिट क्लर्क बनने का मौका मिला था। इन्हीं जगहों पर वह सब कुछ हासिल होता था जिसे बाबुओं की भाषा में तर माल कहा जाता है। असिस्टेंट इंजीनियरों से सम्बद्ध कैम्प क्लर्कों को हर भुगतान में एक प्रतिशत तथा डिवीज़नल एकाउंटेंट से जुड़े प्री–आडिट क्लर्क को आधा प्रतिशत मिलता है। बाकी पूरे दफ्तर में एक प्रतिशत बंटता था इसलिए स्वाभाविक था कि बाबू लोग कैम्प क्लर्क या प्री–आडिट क्लर्क बनने के लिए मार–धाड़ करते रहते थे। दूसरा पक्ष असन्तुष्टों का था जिनमें वे बाबू शरीक थे जिन्हें सूखी जगहों पर रखा गया था।

बड़े बाबू को अफसोस यह हो रहा था कि फब्तियां कसनेवालों में सन्तुष्ट पक्ष के लोग भी थे‚ बल्कि वही बढ़–चढ़कर थे। अपने को निवर्तमान सत्ता पक्ष से दूर दिखाने का यह सबसे आसान तरीका था जिसे शायद बाबुओं ने देश के राजनीतिज्ञों से सीखा था।

बीच–बीच में लाला बाबू को बड़े साहब के कमरे में तलब किया जाता रहा। आज तो उन्हें ऋषभचरण शुक्ला भी अपने कमरे में बुला लेता था। बड़े बाबू निर्विकार भाव से जाते और हुक्म नोट करके वापस आ जाते। आकर वे किसी बाबू को हुक्म पास कर देते और फिर फाइल में सर गड़ा लेते। उन्हें पता था कि ऋषभ उन्हें सिर्फ अपमानित करने के लिए और दफ्तर में अपनी हैसियत जताने के लिए बुला रहा था‚ पर अफसर तो अफसर है। वे हर बार भागते हुए जाते और डांट खाकर अपने चेहरे से अपमान के छींटे झाड़ते चले आते। अफसर की उन्होंने हमेशा इज्जत की है और ऋषभचरण तो बदले सत्ता–सन्तुलन में ऊंची चीज हो गया था।

हर बार बड़े बाबू जब उठकर जाते या वापस लौटते उन्हें लगता कि बाबुओं को खंखारने की बीमारी आज कुछ ज्यादा ही सता रही है। कई बार किसी बाबू को देखकर उन्हें भ्रम हो जाता कि वे किसी टूथपेस्ट के विज्ञापनवाला कैलेंडर देख रहे हैं।

बाबू रोज़ की तरह चीख–चीखकर बात कर रहे थे‚ फोहश मज़ाक कर रहे थे‚ दलालों से झगड़ रहे थे और ठहाकों के साथ इस बात को साबित करने में लगे थे कि और कुछ हो न हो‚ अपना देश फेफड़ों की ताकत के मामले में किसी तरह कम नहीं था। बड़े बाबू की समस्या यह भी कि उन्हें हर ठहाका और लतीफा अपने को लक्ष्य करके किया गया प्रतीत हो रहा था। चारों तरफ से चीख–चीखकर आनेवाली आवाजें उनके कान तक पहुंचते–पहुंचते अपनी ध्वनि बदल देतीं और बड़े बाबू के कान में प्रवेश करतीं तो कुछ इस तरह का भाव सम्प्रेषण करती–

"साला . . .कैसा बगुला भगत बना बैठा है। अब पता चलेगा।"
"चोट्टे ने मुझे कैम्प क्लर्क लगवाया तो कैसा अहसान जताता था। सबसे बताता फिरता था‚ पर यह नहीं बताता था कि रोज़ शाम को जो सब्जी का झोला मुझे थमा देता है‚ उसके साथ पैसा कभी नहीं देता। अब पता चलेगा।"
"खूब कमलाकान्त वर्मा का गू उठाता था। अब पता चलेगा।"
"अब पता चलेगा‚" कुछ–कुछ इस तरह हर वाक्य के साथ चस्पां हो गया था कि लोग बोलें चाहे कुछ‚ लाला बाबू को शास्त्रीय संगीत की तरह उसकी टेक हमेशा ‘अब पता चलेगा’ पर टूटती सुनाई देती। घपला तब हुआ जब कैशियर बाबू ने अपनी सीट पर बैठे–बैठे पूछा‚
"लाला बाबू महाशिवरात्रि गजटेड हालीडे है या रिस्टि्रक्टेड?"

लाला बाबू के कान तक जो वाक्य पहुंचा उसकी टेक टूटी ‘अब पता चलेगा’ पर।

अपने स्वभाव के विरूद्ध लाला बाबू झुंझलाए और अपने स्वभाव के विरूद्ध उन्होंने तल्ख स्वर में कहा‚ "क्या पता चलेगा? किसी बनिए की नौकरी करते हैं क्या?"

कैशियर बाबू ने अचकचाकर उनकी तरफ देखा। लाला बाबू को भी लगा कि उनकी आवाज़ अनावश्यक रूप से तेज़ हो गई थी। वे थोड़ा सकुचाए और उन्होंने कैशियर बाबू को फिर से सवाल दोहराने को कहने की कोशिश की पर उसकी जरूरत नहीं पड़ी। दो आवाज़ें एक साथ गूंजी।

"भइया अभी तो पहला दिन है। सिर्फ ऊंचा सुनाई देने लगा है–आगे–आगे देखिए होता है क्या?"
"महाशिवरात्रि लोकल हालीडे है कैशियर बाबू।"

लाला बाबू के सामने फैली फाइल के खुले हुए पन्ने में छिपी समस्या और भी जटिल हो गई। वे तेरहवीं बार उसे पढ़ने की कोशिश करने लगे। इस बार भी उसके सारे अक्षर धुंधले लग रहे थे।

बड़े साहब के चपरासी ने दफ्तर के कमरों में घूम–घूमकर इत्तला देनी शुरू कर दी कि शाम को साढ़े चार बजे बड़े साहब अपने कमरे में मीटिंग करेंगे। सारे अधिकारी और कर्मचारी उसमें शरीक होंगे।

बाबुओं ने भुनभुनाना शुरू कर दिया। पांच बज़े कौन सा वक्त है मीटिंग करने का – सुबह दस बजे से चाय–समोसा खाते–खाते‚ अपने फेफड़ों की ताकत का प्रदर्शन करते–करते और कागज़ों को जहाज या नाव बनाते–बनाते बाबू इस समय तक बुरी तरह थक जाते थे। सरकारी नियम के अनुसार दफ्तर पांच बजे तक खुलता था पर हर सरकारी नियम की तरह यह नियम भी उल्लंघन के लिए बना था। इसलिए‚ चार बजे के बाद बाबुओं के जाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। अपनी बीवियों से ऊबे और सुबह झगड़ा करके निकले बाबुओं को अचानक घर किसी सुनहरे सपने की तरह पुकारने लगता।

हर नया बड़ा साहब आने के बाद मीटिंग करता है। मीटिंग दफ्तर के बाबुओं और अफसरों को यह बताने के लिए होती है कि उन्होंने बहुत हरामखोरी कर ली‚ अब चूंकि नए साहब का पदार्पण हो गया है‚ इसलिए उन्हें काम भी करना पड़ेगा। बोलनेवाला दफ्तर में समय की पाबन्दी‚ ईमानदारी‚ फाइलों के तेज निस्तारण और दफ्तर में आनेवाली जनता के साथ सद्व्यवहार पर जोर देता है। वक्ता और श्रोताओं में इस पहली मीटिंग के दौरान वन डे क्रिकेट मैंच चलता रहता है। वक्ता बाउंसर‚ गुगली और यार्कर की झड़ी लगा देता है। श्रोता जानते हैं कि सरकारी नौकरी में विकेट तो गिरता नहीं इसलिए वे विकेट की चिन्ता छोड़कर गेंदबाजी के जबर्दस्त प्रहारों से अपना शरीर बचाने का प्रयास करते हैं। दरअसल जो भारी–भरकम अपेक्षाएं वक्ता उनसे करता है‚ उनसे कुछ बनना–बिगड़ना तो है नहीं‚ केवल कुछ देर के लिए वे श्रोताओं को दुःखी कर देती है। पुराने घाघ श्रोताओं का मन भी थोड़ी देर के लिए विचलित हो जाता है कि वे अभी तक समय से दफ्तर नहीं आकर रिश्वत लेकर या जनता को दुत्कारते हुए‚ जरूरी सरकारी कागज़ों पर रखकर समोसा–पकौड़ी खाकर मितना जघन्य काम कर रहे थे? बाज़ कमजोर दिवाले‚ नौकरशाही के नए पुर्जों की तो आंखें सजल हो जाती है। कभी–कभी किसी मद्रासी फिल्म का नज़ारा उत्पन्न हो जाता है – इधर वक्ता ने दफ्तर में आनेवाली जनता के साथ अधिकारियों–कर्मचारियों द्वारा दुर्व्यवहार का जिक्र किया कि सामने श्रोताओं में से कुछ ने सिसकियां भरीं। वक्ता का जोश बढ़ता है और वह 'समय से दफ्तर आने के महत्व' नामक विषय को निपटाने लगता है। सामने बैठे श्रोताओं में से कइयों के मुंह लटक जाते है। कुछ भोले किस्म के वक्ता तो इतने जोश में आ जाते हैं कि उन्हें लगने लगता है‚ अब तक बहुत हुआ पर अब उनका भाषण इस दफ्तर को पटरी पर ला ही देगा। वे महसूस करने लगते हैं कि जिस नेतृत्व की जरूरत उनके विभाग को थी वह अब मिल गया है और अब सब ठीक हो जाएगा। यह विचार उन्हें और बोलने के लिए प्रेरित करता है और वे बोलते–बोलते झाग फेंकने लगते हैं।

श्रोताओं में अधिकांश ऐसे दृश्यों से ऊबे हुए‚ यथार्थवादी कला–समीक्षकों की तरह अपना ध्यान वक्ता के भाषण से अधिक अवान्तर प्रसंगों की तरफ लगाए रहते हैं। इधर वक्ता ने ईमानदारी की तान छेड़ी उधर फुसफुसाहट शुरू हुई‚ "अब साला कमीशन बढ़ाएगा।" वक्ता ने जनता के साथ सद्व्यवहार की अपील जारी की कि एक बाबू ने दूसरे के कान में‚ संस्कृत के नाटकों के स्वगत कथनों की तरह जिन्हें सामने बैठा दर्शक समूह भली–भांति सुन सकता हो‚ फुसफुसाते हुए कहा–'बेटा अब जो ठेकेदार आए‚ उससे हाथ जोड़कर कहना–आइए जीजाजी।'

संसार को क्षणभंगुर और नश्वर माननेवाले भारतीय ऋषियों ने अगर किसी बड़े साहब की पहली स्टाफ मीटिंग देखी होती तो उन्हें समझ में आ जाता कि सबसे कम देर तक टिकनेवाली चीज़ विश्व में बड़ साहब के भाषण का प्रभाव है। बाहर निकलते–निकलते मातहत अपनी फाइलें‚ कमीज या चप्पल जिस तरह झाड़ते हैं उससे इस बात की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि बड़े साहब के भाषण का कोई कतरा उनसे चिपका रह गया होगा।

साढ़े चार बजते–बजते बड़े साहब यानी बटुकचन्द उपाध्याय का कमरा स्टाफ मीटिंग के लिए तैयार कर दिया गया। कुर्सियां जो आड़ी–तिरछी थीं‚ व्यवस्थित ढंग से लगा दी गईं। चापलूस मातहतों और दलालों ने पूरे कमरे में पान और कचौड़ी के दोने फेंक रखे थे‚ उन्हें झाड़कर चपरासी बाहर फेंक आया। कमरे की कुर्सियां कम थीं इसलिए दफ्तर के दूसरे कमरों से टीन‚ प्लास्टिक‚ लकड़ी–जिस भी चीज़ की कुर्सियां चार पैरों पर खड़ी थीं – लाकर लगा दी गईं। दो या तीन पैरवाली कुर्सियां इसलिए छोड़ दी गईं कि उनके साथ उन्हें सन्तुलित करने के लिए ईंटें लानी पड़तीं और चपरासी इस श्रमदान के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे। सबसे पीछे दो–तीन बेंचे लगा दी गईं। सब कुछ किसी पारसी थियेटर के नाटक की तरह घटित हुआ। साढ़े चार बजते–बजते बटुकचन्द उपाध्याय गम्भीर हो गए। उनके दरबारी कमरे को किसी युद्धस्थल की तरह क्षत–विक्षत छोड़कर चले गए थे। चपरासियों ने कमरे को व्यवस्थित कर दिया। बटुकचन्द ने कमरे के साथ अटैच्ड बाथरूम में जाकर खूब कुल्ला करके पान थूकने की कोशिश की। फर्क सिर्फ इतना आया कि उनके गल चुके मसूढ़ों और पीले दातों के अलावा होंठों के कोरों तक से यह सदा आने लगी कि इस पूरे अमूर्त माहौल में पान अकेला मूर्त घटक था। मुंह धोकर बटुकचन्द गम्भीर होकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने निश्चय किया कि वे मीटिंग में आनेवाले मातहतों के नमस्कार का उत्तर नहीं देंगे और पूरी मीटिंग पान नहीं खाएंगे। पहले निश्चय पर तो वे मीटिंग शुरू होने से लेकर अन्त तक टिके रहे पर दूसरा निश्चय उन्होंने अपना भाषण शुरू होने के पहले ही तोड़ दिया। मुंह धुल कर आने के बाद पांच सात मिनट तक वे शून्य में ताकते हुए‚ कुर्सी पर चिपके खटमलों को मारते हुए या सामने रखे पुराने अखबार की खबरों को चाटते हुए पान की तलब को दबाए रखने की कोशिश करते रहे पर अधिक देर तक उनका धैर्य बरकरार नहीं रहा। उन्होंने पान से भरा लिफाफा उठाया और वापस मेज़ पर रख दिया‚ फिर उठाया और फिर रख दिया‚ फिर उठाया और दो बीड़ा पान निकालकर अपने मुंह में ठूंस लिया।

पांच बजते ही कमरा धीरे–धीरे भरने लगा। मातहत अन्दर घुसते और आंख‚ हाथ या सर हिलाकर अभिवादन करते। अपने निश्चय के मुताबिक बटुकचन्द ने किसी के अभिवादन का उत्तर नहीं दिया। वे निरन्तर शून्य में ताकते रहे और अपने मातहतों को यकीन दिलाते रहे कि बहुत सी गम्भीर समस्याएं हैं जिन पर उनका फौरन ध्यान देना जरूरी है। अभिवादन जैसी तुच्छ औपचारिकता में वे समय ज़ाया नहीं कर सकते। वे शून्य में ताकते रहे और उन लोगों के नाम अपने दिमाग में दर्ज करते रहे जो उनकी बेखुदी का फायदा उठाकर बिना अभिवादन किए बैठते जा रहे थे।

दस–पन्द्रह मिनट में कमरा पूरी तरह भर गया। बटुकचन्द ने शून्य पर टिकाई अपनी निगाहें सामने बैठे लोगों पर डालीं। कमरे में दो हिन्दुस्तान थे। एक में साफ–सुथरे कपड़े पहने‚ चिकने गालों और बाहर निकले पेटोंवाले सात अफसर थे जो बटुकचन्द के दाहिने–बाएं बैठे थे। दूसरे हिन्दुस्तान में सामने बैठे बाबू लोग थे जिनकी कमीजों के कालर गन्दे थे‚ ठुडियों पर बालों के गुच्छे थे और जिनके पेट और गाल दोनों पिचके हुए थे।

बटुकचन्द ने दाहिने‚ बाएं और सामने हर तरफ देखा। कुछ लोगों ने उनके अमृत बचनों को नोट करने के लिए कलम हाथों में लेकर डायरी के पन्ने खोल रखे थे। ऐसे लोगों के चेहरों का मुआयना करते समय उनकी निगाहें कुछ स्निग्ध हुईं। जो लोग बिना कागज़–कलम के थे उन्होंने अपने ऊपर फिरती निगाहों में तपिश महसूस की। उनमें से कुछ और ने पेन निकाल लिये और डायरी की कमी पूरी करने के लिए अपने हाथ की फाइल उलटी कर उसके कवर पर ही अमूर्त चित्रकारी करने लगे।

बटुकचन्द ने अपना भाषण उसी तरह शुरू किया जिस तरह कोई बड़ा साहब करता है। मातहत उसी तरह से झेलने लगे जिस तरह किसी भी दफ्तर के मातहत झेलते हैं।

सबसे पहले बटुकचन्द ने बताया कि वे इस दफ्तर के लिए नए नहीं हैं। यही तो रोना है–बड़े बाबू ने सोचा। पिछली बार बच गए थे बच्चू‚ इस बार नहीं बचोगे–सक्सेना जे.ई. ने अपने सामने रखे कागज़ पर चूहेदानी और चूहे का चित्र खत्म करते हुए नीचे कैपशन के रूप में लिखा।

फिर बटुकचन्द ने राजनय की भाषा का इस्तेमाल करते हुए चाश्नी–भरे शब्दों में यह बताने की कोशिश की कि वे यहां नियुक्त सभी अधिकारियों तथा कर्मचारियों से भली–भांति परिचित हैं। श्रोताओं ने हवा में तैरती स्वर–लहरी से चिपकी चाशनी बिना समय गंवाए खुर्च डाली और उसका निहितार्थ फौरन पकड़ लिया कि वे यहां मौजूद सारे बदमाशों की नस–नस से वाकिफ हैं और उन्हें भोला समझने की भूल न की जाए।

इसके बाद वे उस विषय पर आ गए जो भारतीय नौकरशाही में अपने मातहतों को भाषण देने के लिए सबसे मुफीद माना जाता है। उन्होंने 'जीवन में ईमानदारी का महत्व' नामक विषय पर बोलना शुरू किया और तब तक बोलते चले गए जब तक उन्हें यह अहसास नहीं हो गया कि अचानक उनके सामने बैठे श्रोताओं के बीच खांसने‚ खंखारने या शरीर के विभिन्न छिद्रों से अलग–अलग तरह की ध्वनियां उत्पन्न करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई है। यह स्थिति सायास पैदा की गई है या देर तक एक ही मुद्रा में बैठने का परिणाम है‚ यह जानने के लिए उनकी उत्सुक आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं। जिस भाग से उनकी निगाहें गुजरती थीं वहां सन्नाटा खिंच जाता था पर दूसरे हिस्से में पहुंचते ही पहली तरफ से फिर से ध्वनियों की तरंगें–हवा में तैरने लगतीं।

इसके बाद बटुकचन्द ने जल्दी–जल्दी समय की पाबन्दी पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि सरकार ने बहुत सोच–विचारकर दफ्तरों के खुलने का समय दस बजे निर्धारित किया है। यह समय अंग्रेज जैसी बुद्धिमान कौम ने तय किया था और इसीलिए उसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता था। चूंकि जनता को भी यह समय पता चल गया है‚ इसलिए वह ठीक दस बजे दफ्तर आ जाती है और इसीलिए बाबुओं और अधिकारियों को भी दस ही बजे दफ्तर आ जाना चाहिए। इन लोगों को न सिर्फ दफ्तर समय पर आ जाना चाहिए बल्कि वहां बैठकर काम भी करना चाहिए। फिर उन्होंने दिन–भर चाय पीने और समोसा खाने से होनेवाली हानियों पर भी प्रकाश डाला। दूसरी तमाम सलाहों की तरह इस सलाह को भी श्रोताओं ने इतनी गम्भीरता से लिया कि उनके लटके चेहरों ने वक्ता को आश्वस्त कर दिया कि दूसरे दिन से इस दफ्तर में सब लोग समय से दफ्तर आएंगे और न सिर्फ समय से आएंगे बल्कि वहां बैठकर काम भी करेंगे। इसके अलावा दफ्तर में आकर वे और जो कुछ करें‚ कम से कम समोसा नहीं खाएंगे।

और भी बहुत से विषय थे जिन पर बटुकचन्द विस्तार से देर त बोलना चाहते थे। वे बोलते भी पर उन्हें लगा कि अचानक कमरा शास्त्रीय संगीत के मंच में तब्दील हो गया है। विलम्बित और द्रुत दोनों में नाक‚ गले और शरीर के दूसरे छिद्रों से इतनी ध्वनियां निकलने लगीं कि उनके जैसे घाघ व्यक्ति के लिए भी यह जानना मुश्किल हो गया कि इसमें कितना सहज स्वाभाविक है और कितना सायास। दिन–भर समोसा–पकौड़ी खाते रहने से उत्पन्न हुई अपान वायु पूरे कमरे में इतनी विस्फोटक आवाज़ के साथ घूम रही थी कि बटुकचन्द ने कई बार सोचा कि सारा भाषण बन्द करके अब केवल वे पर्यावरण–सुरक्षा और स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क पर ही श्रोतओं का ज्ञानवर्धन करें‚ पर ये विषय उनके सरकारी कर्तव्यों की सूची में सम्मिलित नहीं थे‚ इसलिए उन्होंने अपने ऊपर नियन्त्रण रखा और उस ब्रह्म वाक्य से अपना भाषण समाप्त किया जिससे बार–बार यह ध्वनि निकल रही थी कि अब वे आ गए हैं‚ इसलिए सब ठीक हो जाएगा।

भाषण समाप्त होते ही अधिकांश श्रोता निकल भागे। ऐसा लगता था कि जैसे किसी कांजी हाउस का गेट टूट गया हो और कई दिनों से उसमें बन्द भूखे–प्यासे जानवरों को अचानक स्वतन्त्रता और हरी घास दिखने लगी हो। बाबू इतने चट गए थे कि वे अपनी सहज स्वाभाविक रूटीन भूलकर बिना एक दूसरे को गरियाते‚ ऊंचे स्वर में बोलते–बतियाते या ठहाका लगाते बस किसी तरह दफ्तर के द्वार से बाहर निकल गए। उन्हें डर लग रहा था कि बड़े साहब का चपरासी कहीं एक बार फिर न उन्हें अन्दर बुला ले और एक बार फिर न भाषण का सिलसिला शुरू हो जाए। वे अपनी साइकिलों‚ स्कूटरों‚ रिक्शों‚ पैरों – गरज यह कि जो भी सवारी मिली उस पर भाग निकले।

दफ्तर बन्द होने का समय हो गया था। बाहर चौकीदार ऊंघते हुए उन चापलूस मुसाहिबों के जाने का इन्तजार कर रहा था जो मीटिंग खत्म होने के बाद एक बार फिर बड़े साहब को घेरे हुए थे। फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार सभी खड़े थे और दिन की रही–सही कसर पूरी कर रहे थे। न जाने कहां से जादू की तरह उनके हाथों में पान के दोने उग आए थे जिनमें से थोड़ी–थोड़ी देर बाद वे निकालकर पान बड़े साहब को पेश करते जा रहे थे जिसे बटुकचन्द अपने पहले से फूले गालों में ठुंसते जा रहे थे। खास तौर से वे लोग जो सुबह चूक गए थे या जिन्हें भ्रम था कि उनका सलाम पूरी तरह कुबूल नहीं हुआ है‚ वे बढ़–बढ़कर अपनी निष्ठा के प्रतीक के रूप में पान पेश करते जा रहे थे।

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