हास्य व्यंग्य

तेरस की तहस-नहस और दिवाली का दिवाला
—अविनाश वाचस्पति


कल धनतेरस होकर गई है और कल दीवाली आने को है। पर हाल यह है कि दीवाली कहने पर दिवाला की अनुभूति होती है और तेरस कहने पर तहस नहस की। बाज़ार जो लूटने के लिए कुख्‍यात हैं खुद लुट चुके हैं। खरीदार हैं नहीं। शेयर बाज़ार का दिवाला पहले ही निकल गया है। जब कुछ महीने पहले शक्ति और ताकत के प्रतीक बैल को बीएसई के बाहर स्‍थापित किया गया था तो यह लगा था कि इसे सबकी निगाहों में चढ़ाया जाएगा। पर यह उस बैल या बुल का बाहर निकाला जाना था। उसकी प्रतिमा बाहर स्‍थापित क्‍या की गई शेयर बाज़ार का दिवाला निकलना शुरू हो गया। और निकलता ही जा रहा है। बाईस हज़ारी बाज़ार दस हज़ारी भी नहीं रहा है। कैसी दुर्गत हुई है कैसी भद्द पिटी है उस अर्थव्‍यवस्‍था की जिसकी मज़बूती के दावे न जाने कितने महाबलशाली सत्तासीन कर रहे थे। इसे किसी मज़बूत चहारदीवारी में या रिज़र्व बैंक की महासुरक्षित तिजोरी में क्‍यों नहीं बंद कर देते?

ज़ार-ज़ार रोये हैं निवेशक कि आँखें सूख गई हैं रगों में खून बाकी नहीं रहा है आँखों में पानी कौन तलाशे शरीर से पसीना भी नहीं निकल रहा है। शरीर की ऐसी दुर्गत। शेयर बाज़ार त्‍योहार के इस मौसम में कैसी सौगात लेकर आया है। पानी और खून सब जल चुका है। हालत ये हो गई है कि धनतेरस पर बरतन खरीदने की रस्‍म अदायगी। यदि मिट्टी का कटोरा ही खरीद कर भी कर ली जाए तो भी हज़ार नियामत है। महँगाई तो खैर बढ़ ही रही है। उससे भी तेज़ अगर कोई आंकड़ा इस आर्थिक मंदी के दौर में दिखाई देगा तो अब वो निश्‍चय ही भिखारियों की संख्‍या में अभूतपूर्व वृद्धि का ही होगा। गिनीज़ बुक आफ वर्ल्‍ड रिकार्ड वालों को तैयार हो जाना चाहिए। तेज़ी की इस नई कहानी को दर्ज़ करने के लिए फिर पता नहीं यह सुनहरा अवसर कब हाथ में आए। कटोरा जिसके लिए भीख भी अब कौन देगा इस पर विश्‍व व्‍यापी परिचर्चाएँ आयोजित की जानी चाहिए। चैनलों को अपनी ब्रेकिंग न्‍यूज अब इसे बना लेना चाहिए।

आतंकवादी अपनी रावणगिरी दिखलाने में जुटे हैं। इनकी इस हैवानियत से खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस सबके हाथ पैर कान नाक मुँह आँख सब फूल गए हैं। दशहरे हो या दीवाली अमावस के अंधियारे पर आतंकवादियों की बमीय करतूतें कयामत बरपा रही हैं। लगता है कि इनकी सांठगांठ यमराज या यमराज के दूतों से हो गई है। जैसे पुलिस की अपराधियों से हो जाती है। जैसे बमों की आतंकवादियों से हो गई है। जैसे पब्लिक की मौत से हो गई है। अस्‍पतालों से हो गई है। शमशान घाटों से हो गई है। ये सब कोलेबरेशन चिंताजनक हैं और चिंता चिता समान है। पर आतंकवादियों की चिता कब सजेगी लगता है नहीं सजेगी। उनके बमों की घंटियाँ हर समय बिना बजे भी बजती ही रहेंगी।

अब किससे राहत की उम्‍मीद करें। सरकारें रावणों को देखें या बाज़ार को देखें। व बेल आउट पैकेट बड़े ज़ोर शोर से बाँट रही हैं। सबको ये ही लगता है कि वे ही बचा सकते हैं बुरी तरह ढहती अर्थव्‍यवस्‍थाओं को। शेयर बाज़ारों को आर्थिक महामंदी के इस दौर से निकलने का उपाय बस अब और नहीं है। परंतु इस बात की क्‍या गारंटी है जो सरकारें बेल आउट पैकेज दे रही हैं वे समर्थ रहेंगी कि खुद भी टिकी रह सकें। बाज़ार ने सबको ज़ार-ज़ार रोने के लिए विवश कर दिया है। वैसे इसके मूल में ऑपरेटर्स का गेम है। जिस दिन वे चाहेंगे उसी दिन बाज़ार को ऊँचा उठाएँगे। पर वे चाहेंगे भी अब तो इसकी भी उम्‍मीद नहीं दिखाई देती है।

गिरते-गिरते पैसे इतना गिर जाएगा कि फिर से गिरा तो खनक की आवाज़ नहीं आएगी। वैसे खनक अब बाकी रही भी कहाँ है और सिक्‍के की खनक से क्‍या होने वाला है। बाज़ार ही खनकदार नहीं रहा। तो काहे की खन खन। अब तो सन्‍नाटे की बजती रहेगी धुन। सुन साहिबा सुन। बाज़ार के गिरने की लुढ़कने की फिर दोबारा लुढ़कने की लुढ़कने और लुढ़कने की ही धुन। १० हज़ारी से नीचे तो आ गया है २ हज़ारी तक लुढ़कने का विश्‍वास मजबूत होता नज़र आ रहा है। न जाने यह दिन क्‍यों दिखलाया जा रहा है। अब तो शेयर बाज़ारों के ट्रेडिंग का टाइम भी रात का ही कर देना चाहिए। जो जागेगा वही खोएगा। जो मुँह ढक के सोएगा उसे किसी बात का डर नहीं।

पर यह सब सुनकर सो न जाएँ जागते रहें क्यों कि इन दिनों सुरक्षा उपकरणों सीसीटीवी सर्विलांस सिस्‍टम विस्‍फोटक की जानकारी देने वाले उपकरण इंटरसेप्‍शन उपकरण मेटल डिटेक्‍टर के निर्माताओं और विक्रेता खूब चांदी सोना कूट रहे हैं। इनकी माँग में जितनी तेज़ी देखी जा रही है उतनी तेज़ी किसी और क्षेत्र में नहीं। यह वो बाज़ार है जो आतंक से खुराक पा रहा है और दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। इसमें भी नई-नई खोजें हो रही हैं। इन सिस्‍टम्‍स को और भी अधिक कारगर बनाने की जुगत में कंपनियाँ जुटी हुई हैं। तो यह न सोचें कि दीवाली नहीं मन रही है। जिनकी मन रही है खूब ज़ोरों से मन रही है। टनाटन मन रही है। खनकदार मन रही है। मं‍दडियों की पौ बारह नहीं छत्‍तीस अरे काहे की छत्‍तीस अब तो उन्तीस ही है मंदी का दौर जो बना हुआ है। महँगाई की मशाल खूब ज़ोरों से जल रही है। दीपोत्‍सव का पर्व महँगाई की रोशनी से गुलज़ार और आतंकवादी गतिविधियों से गुलज़ार है। ऐसी अजब निराली दीवाली।

नोबेल पुरस्‍कार बाँटने वाले कहाँ हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं क्‍यों नहीं इसे रिकार्ड में दर्ज़ करते और नोबेल पुरस्‍कार की नई-नई आधुनिक श्रेणियाँ तय करते। अब नहीं बदलेंगे तो कब बदलेंगे। बाज़ार के अंधाधुंध तहस नहस होते जाने का ठीकरा किसी के सिर पर तो फूटना ही चाहिए। जिसके सिर फूटे ठीकरा उसे नोबेल पुरस्‍कार से अवश्‍य ही सम्‍मानित करने में विलंब नहीं किया जाना चाहिए। अब पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रतिमान बदलने चाहिए। बदलाव के इस भीषण दौर से ये क्षेत्र भी क्‍यों अछूते रहें? चलो भई कुछ दिए हम भी जला लें दीपावली तो आखिर मनानी ही है। अरे हाँ शुभकामनाएँ देना तो भूल ही गया दीपावली मंगलमय हो...

२७ अक्तूबर २००८