हास्य व्यंग्य

कड़वा वाला हनी
समीर लाल ’समीर’



चेहरा पढ़ने की आदत ऐसी कि चाहूँ भी तो छूटती नहीं। दफ्तर से निकलता हूँ। ट्रेन में बैठते ही सामने बैठे लोगों पर नजर जाती है और बस शुरु आदतन चेहरा पढ़ना। पढ़ना तो क्या, एक अंदाज ही रहता है अपनी तरफ से अपने लिए। किसी को बताना तो होता नहीं कि एकदम सही सही ही पढ़ा हो। हालाँकि जिनको बताना होता है वो भी हाथ देख कर कितना सही सही बताते हैं, यह तो जग जाहिर है। ढेरों अनुभव रोज होते हैं, धीरे धीरे सुनाता चलूँगा।

सामने की सीट पर एक गोरी महिला आ बैठी है। मेरी नजर मेरे लैपटॉप पर है मगर बस दिखाने के लिए। दरअसल, लैपटॉप तो एक आड़ ही समझो, देख तो उसका ही चेहरा रहा हूँ। हूँ पैदाइशी भारतीय, संस्कृति आड़े आती है कि सीधे कैसे देख लूँ एक अनजान अपरिचिता को। मगर फिर वही, हूँ तो पैदाईशी भारतीय, तरीका निकाल ही लिया, लैपटॉप की आड़ से। तिनके की आड़ शास्त्रों में और चिन्दी की आड़ हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों में काफी मानी गई है तो लैपटॉप की स्क्रीन तो बहुत ही बड़ी आड़ कहलाई। संस्कृति हो या कानून या सेंसर बोर्ड, जो कुछ रोकने का जितना बड़ा प्रबंध करते हैं, उसमें हम उतना ही बड़ा छेद बनाने का हुनर रखते हैं। यूँ तो अक्सर ऐसा परदा बुनते समय ही ऐसे छेद छोड़ देने की प्रथा रही है। कानून बनाने वाले हम, कानून तोड़ने वाले हम, कानून का अपनी सुविधा के लिए पालन करने वाले हम- हम या
ने हम भारतीय!!!

सने हाथ में अखबार खोला हुआ है और नजर ऐसे गड़ाये है जैसे अगर वो खबर उसने न पढ़ी तो अखबार वालों का तो क्या कहना, खबर पैदा करने वालों के यत्न बेकार चले जाएँगे। ओबामा का अमेरीका को ग्रेटेस्ट कहना या अन्ना की कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की घुड़की, सब इनके पढ़े बिना नकारा ही साबित होने वाली है। खैर, इस महिला की किस्मत ही कहो कि ये दोनों खबर तो यूँ भी नकारा साबित होनी ही है। मगर इतनी गहन तन्मयता प्रदर्शित होने के बावजूद, मेरा चेहरा पढ़ने का अनुभव और वो भी जब चेहरा महिला का हो- कोई मजाक तो है नहीं। फट से ताड़ लिया कि महिला की नजर जरुर अखबार पर है मगर वो सोच कुछ और रही है। अंदाजा एकदम सही निकला- दो ही मिनट में उसने अपने पर्स से फोन निकाला और जाने किससे बात करने लग गई- हाय हनी, मैं अभी सोच रही थी कि आज तुम मुझको लेने स्टेशन आ जाओ तो ग्रासरी करते हुए घर चलें। दूध भी खत्म हुआ है और कल के लिए ब्रेड भी नहीं है। और हाँ, बेटू ने होमवर्क कर लिया कि नहीं?

वैसे भी हनी शब्द सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं कि एक शब्द किसी आदमी को कितना बेवकूफ बना सकता है कि वो फिर हर बात पर सिर्फ हाँ ही करता है। मानो हनी, हनी न हुआ-रुपया हो गया हो जिसके आगे हमारा हर नेता हाँ ही बोलता है।

एकाएक अखबार की खबर ध्यान से पढ़ते हुए तो यह नहीं हो जाता। निश्चित ही विचार मन में आया होगा कि ग्रासरी करना है, बेटू का होमवर्क होना है। ट्रेन से उतर कर बस लेकर घर जाए- फिर उस सो काल्ड हनी के साथ बाजार जाए- बेवजह समय खराब होगा, उससे अच्छा उसे स्टेशन बुला ले तो सहूलियत रहेगी। तब जाकर फोन किया होगा।

फिर फोन रखने के बाद पुनः वैसे ही नजर गड़ गई अखबार में। मैं अब भी जान रहा था कि वो अखबार में खबर नहीं पढ़ रही है... अनुभव से बड़ा भला कौन सा ज्ञान हो सकता है।

मुश्किल से दो मिनट बीते होंगे कि उसने फोन पर फिर रीडायल दबाया... हाँ हनी, एक बात तो कहना मैं भूल ही गई- स्टेशन आते समय मेरा वो ब्लैक जैकेट लेते आना, जिसमें जेब पर व्हाईट क्यूट सा फ्लावर बना है। ड्राईक्लिनर को रास्ते में दे देंगे।

गरीब हनी शायद हम-सा ही, हम सा क्या- ९०% पतियों-सा कोई निरिह प्राणी रहा होगा जिसे पत्नी का जैकेट कौन सा और कहाँ टँगा होता है, न मालूम होगा और पूछ बैठा होगा कि कौन सा वाला?

फिर तो दस मिनट इस तरफ से जो फायरिंग चली कि तुमको तो ये तक नहीं मालूम कि मैं क्या पहनती हूँ...फलाना फलाना...टॉय टॉय...तुम मुझे बिलकुल प्यार नहीं करते...मुझे पता है...जाने क्या क्या!!...मेरे तो कान ही सुन्न हो गये। उसकी आवाज में मुझे अपनी पत्नी की आवाज सुनाई देती रही। एकाएक उसका चेहरा भी मेरी पत्नी के समान हो गया... ओह!!

स्टेशन आ गया, और मैं हकबकाया सा ट्रेन से उतर कर बाहर आ गया। पत्नी कार लिए इन्तजार कर रही थी। पूछ रही है कि इतने सहमे से क्यूँ हो- क्या ऑफिस में कुछ हुआ? लगता है वो भी चेहरा पढ़ना सीख रही है। सही ही हो ये कोई जरुरी तो नहीं!!! वरना तो हमारे ज्योतिषियों की दुकान ही बंद हो जाए एक दिन में...

 

१९ दिसंबर २०११