हास्य व्यंग्य

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पूरब खिले पलाश पिया
-रवीन्द्रनाथ त्यागी
 


मैं काव्य-प्रेमी व्यक्ति हूँ। स्थिति यह कि नित्य लीला से जो कुछ भी समय शेष बचता है वह काव्य-पाठ को ठीक उसी भाँति दिया जाता है जिस प्रकार विनोबा जी को उर्वर धरती दान में दी जाती रही। आज जो एक काव्य-ग्रन्थ खोला तो उसकी एक पंक्ति मेरे मन को काफी गहराई तक छू गयी। पंक्ति थी-पूरब खिले पलाश पिया ! कवि के शब्दों में नायिका जो है वह नायक से कहती है कि आर्यपुत्र, पूर्व नाम की दिशा में पलाश नाम के फूल खिल गये। सोचता हूँ कि इस सूचना के प्राप्त होते ही आर्यपुत्र के सामने वसन्त का चित्र खड़ा हो गया होगा-ठीक उसी भाँति जिस प्रकार उसके सामने नायिका खड़ी थी।

पद्माकार से लेकर न जाने कौन-कौन से कवि की पंक्तियाँ उसके दिमाग में पलाशों की छवि की भाँति कौंध गयी होंगी। ‘बनन में बागन में बगरो बसन्त है’ से शुरू करके राजा-रानी’ से ये दिन बसन्त के’ तक का सारा माल उसकी निगाहों में झूम उठा होगा। इसके बाद उसने वसन्त की खोज पलाशों में की या कि आर्यपुत्री में-यह बताना आपके हित में भले ही हो, साहित्य के हित में हर्गिज नहीं होगा। साहित्य में सस्पेन्स का होना सदा से जरूरी रहा है। इसी कारण जब तक आप पलाशों के बारे में कोई निश्चित मत धारण करने की स्थिति में पहुँचेंगे, तब तक कवि अपने आप को वर्षा ऋतु में ले जायेगा, जहाँ उसी पुश्तैनी अन्दाज में कन्या अपने प्रियतम से कहती होगी-असाढ़ की निशानी, ओ पिया पानी !

कविता का नशा हल्का होता जा रहा है। दिमाग ने काम करना फिर शुरू कर दिया। सोचता हूँ कि नायिका पूरब में पलाश खिलने की सूचना नायक को क्यों दे रही है ? कहीं यह तो नहीं कि उधर वह गरीब इन्सान लाठी लेकर पलाश-वन की दिशा में प्रस्थान करे और इधर वह कविप्रिया युवती आँगन के पिछले द्वार से कहीं और के लिए गतिशील हो जाये। अगर ऐसा है तो बात पलाशों पर कभी खत्म नहीं हो सकती। आज वह कहती होगी कि ‘पूरब खिले पलाश पिया’ तो कल कहेगी, ‘पश्चिम सजे आकाश पिया’। थका-माँदा नायक पश्चिम से लौटेगा तो वह पतिव्रता कहेगी कि ‘दक्षिण फूले कास पिया’ और दक्षिण से छुट्टी मिलेगी तो इठलाकर और नयन मटकाकर शेष दिशा के बारे में वह सूचित करेगी-‘उत्तर हिलती घास पिया’। नतीजा जाहिर है; नायक बेचारा जो है वह हमेशा दौरे पर ही रहेगा। कभी पलाश खिलेंगे तो कभी केतकी। इसके साथ-साथ वह पुष्पप्रेमी कन्या भी खिलती जायेगी। कवि के शब्दों में जो कुछ भी होगा, ठीक ही होगा।

मुझे लगता है मैं शायद गलती पर हूँ। लड़की शायद वाकई पलाशों की प्रेमी है। उनके माध्यम से वह अपनी बेचैनी कभी-कभी नायक तक पहुँचाती थी-यह दीगर बात है। उधर पलाश खिलते थे, इधर इसका दिल बल्लियों उछलने लगता था। जब दिल का उछलना बन्द होता था तब वह बालिका खुद उछलना शुरू कर देती थी। नायक जो था वह उसे शान्त करने की चेष्ठा करता था और कभी-कभी सफल भी हो जाता था। पर तब तक शायद उस कन्या को किसी दूसरे फूल की गन्ध आ जाती थी और दोनों प्राणी हाथों में हाथ डाले वन की ओर निकल पड़ते थे। कुल मिलाकर खासा अच्छा शगल था।
क्या ‘पुष्पचरित’ दिन थे जो ‘हर्षचरित’ की भाँति वहीं समाप्त हो गये। अब न वे पलाश हैं, न वे लड़कियाँ। अब तो जो लड़कियाँ उपलब्ध हैं वे ऐसी रसहीन हैं कि भोर होते ही पंचम स्वर में कहती हैं कि ओ प्रियतम, कुछ सुना, दुकान पर शायद बासमती आ गयी। जब तक आर्यपुत्र बासमती का रूप धारण करने वाली शकुन्तला को लेकर क्षत-विक्षत घर पहुँचता है तब तक दूसरा आग्रह सुनने को प्राप्त होता है कि सिगड़ी में प्रज्वलित होने वाला कोयले नाम का रत्न आज फिर प्राप्त हो रहा है; जाओ और ले आओ। हातिमताई है कि सारा दिन बोझा ढोता रहता है और हुस्नबानू के सवाल हैं कि खत्म ही नहीं होते। सात समुन्दर पार एक देश में विवाह घट रहे हैं और तलाक बढ़ रहे हैं, सन्तानों की उत्पत्ति की दर बहरहाल वहीं है जहाँ थी। मैं चारों ओर देखता हूँ और सोचता हूँ कि इस शस्यश्यामला धरती पर से कहाँ चले गये पलाशों के वन ? कहाँ चली गयीं वे रूपप्रेमी युवतियाँ ? आपको कोई ऐसी बाई मिले, तो मुझे खबर करना।

एक बात और भी है जो समझ में नहीं आ रही है। लड़की लोग ऐसी काम की बातें अपने पतियों से ही क्यों कहती थीं ? सारे मामलों में उस गरीब को ही क्यों तंग किया जाता था ? अगर पलाश खिले हैं तो उसकी शिकायत भी प्रियतम से ही की जायेगी। अगर किसी दिन दुपहर को लड़की का अंग-अंग टूटता था तो उसका इलाज भी उसी के गरीब शफाखानें में होता था। यह सरासर अन्याय था। आखिर ये सारी बातें लड़की अपने बाप से भी तो कह सकती थी ! मुझे एक लोकगीत याद आ रहा है, जिसमें कोई कम्बख्त चिड़िया सुबह-सुबह कूक कर नायिका का नाश्ता हराम कर देती थी और नायिका थी कि उस चिड़िया की शिकायत भी अपने प्रियतम से करती थी :
भिनसारे चिरैया काय बोली ?
ताती जलेबी, दुधा के लडुआ
जेवन न पाये पिया फिर बोली;
पाना पचासी के बीरा लगाये
चाबन न पाये पिया फिर बोली,
काय बोली ?
सखि, वसन्त आया.....
वसन्त फिर आ गया। सखी तो नहीं आयी मगर वसन्त अलबत्ता जरूर आ गया। सखी बेचारी अब क्या खाकर आएगी-उसकी एक इंजीनियर के साथ शादी जो हो गयी। वसन्त यहाँ छोड़कर वह चली गयी। वसन्त और वासन्ती बयार-ये चीज़ें मेरे लिए सहेजकर वह अपना मन अब सीमेण्ट, रेत, लोहे की छड़ें और सड़क कूटने के इंजन से बहलाएगी। कवियों ने इसीलिए तो कहा है कि वसन्त की ऋतु बड़ी दु:खदायी है। एक पहुँचे हुए कवि ने तो यहाँ तक कहा है कि आज सहसा मेरे मन में दु:ख हो रहा है, आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है और हृदय नामक स्थान पर पीड़ा नाम की वस्तु ज़रूरत से ज्यादा मात्रा में उत्पन्न हो रही है। मेरे इस अनायास दु:खी होने का क्या कारण ? कहीं वह वसन्त तो नहीं आ गया ?

वसन्त की ऋतु जहाँ दु:खी होने के लिए प्रसिद्ध है वहाँ काव्य-रचना के सन्दर्भ में इसने काफी नाम पाया है। कुल मिलाकर इस ऋतु में या तो लोग दु:खी रहते हैं या कविता करते हैं। जो लोग कविता करते हैं वे कविता करने के बाद दु:खी होते हैं। जहाँ तक कविता पढ़नेवालों का सम्बन्ध है-दु:खी होने की दिशा में उन्हें भी निराश नहीं किया जाता। ज्यादातर लोग ‘सखि, घर-घर में आया वसन्त’ वाली तर्ज पर काव्य-सृष्टि करते हैं जिसे पढ़कर साफ़ लगता है कि वसन्त न आकर मलेरिया विभाग के कर्मठ कर्मचारी मच्छर मारने तथा तेल छिड़कने आये हैं। जो अकवितावादी हैं उनका वसन्त तो गन्दे नाले और चुंगी की टट्टियों का ऐसा शौकीन हो गया है कि सड़कों, गुलमुहरों और आँगनों तक आना ही पसन्द नहीं करता। नतीजा यह होता है कि लोग-बाग पोथियाँ निकालते हैं और पुराने कवियों की कविताएँ गा-गाकर पढ़ते हैं। पद्माकर, देव और बिहारी ने वसन्त पर काफी जमकर लिखा है। बिहारी की नायिका का तो कहना ही क्या; जैसे छापामार सैनिक बरसात के बाद सक्रिय होते हैं, उसी भाँति बिहारी की नायिका भी वसन्त ऋतु में विशेष रूप से सक्रिय हुआ करती थी।

मैं कालिदास को खोलता हूँ। कालिदास को वसन्त से बड़ा प्रेम था। ‘कुमारसम्भव’ में जब यार लोग इस फिराक में थे कि शिव किसी प्रकार पार्वती से फँस जाएँ, तो सदा के चतुर इन्द्र ने कामदेव, वसन्त और रति को साथ ही साथ हिमालय पर भेजा था। पहाड़ों पर जाकर इन्होंने ऐसा नहीं किया कि किसी उम्दा होटल में सामान डाला और पिकनिक पर निकल गये। इन्होंने बड़ी तत्परता से अपनी ड्यूटी को अंजाम दिया। हिमालय पर जाकर वसन्त ने जँभाई ली। कालिदास के अनुसार जँभाई का लेना था कि पहाड़ों पर वसन्त आ गया। मैंने भी एक ऐसे जागीरदार को देखा है जिनकी जँभाई से वसन्त आता था। वसन्त उनके खिदमतगार का नाम था। हिमालय पर वसन्त क्या आया, लताएँ बिना बात पेड़ों से चिपटने लगीं और किन्नर दम्पती धरती पर बिखरी मदिरा में झाँक-झाँककर एक-दूसरे का मुख चूमने लगे। बाकी जो काम वसन्त की ऋतु में होते हैं, वे भी कसरत के साथ हुए। ‘रघुवंश’ में भी कालिदास ने वसन्त का वर्णन बड़ी तबीयत के साथ किया। इस बार वसन्त के अवसर पर कोयलों ने सुन्दर युवतियों से कहा कि ‘यह चतुर उम्र एक बार जाकर फिर नहीं आती। इस कारण यह मान तज दो, कलह बन्द करो और अपने प्रेमियों की दिशा में चरण बढ़ाओ।’’ युवतियाँ उन दिनों समझदार किस्म की होती थीं-वे मान गयीं। कितने सुन्दर दिन थे। यदि यही बात मैं लड़कियों से आज कह दूँ तो निश्चित है कि जूता खाने को मिले। ‘रघुवंश’ के बाद कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ में फिर वसन्त पर ध्यान दिया। जहाज का पंछी जिस प्रकार उड़-उड़कर फिर जहाज पर आ जाता है और आज के कहानीकार जिस प्रकार हर कथावस्तु में यौन-विकृतियों का सन्दर्भ ढूँढ़ ही लेते हैं, उसी प्रकार कालिदास भी घूम-फिरकर फिर वसन्त पर आ जाते थे। इस प्रवृत्ति के आधार पर आज के यौन-कुण्ठित कथाकार, कालिदास के समकक्ष उतरते हैं।

सेक्स से कालिदास को भी बहुत प्रेम था मगर उसमें और आज के सेक्स-चित्रण में अन्तर था। आज का सेक्स-चित्रण अश्लील है, अनैतिक है, वह सेक्स के लिए सेक्सवाले सिद्धान्त पर आधारित है। खजुराहों, कोणार्क, अजन्ता इत्यादि में चित्रित व कालिदास या जयदेव द्वारा वर्णित सेक्स उदात्त है, ऐश्वरीय है, देह के ऊपर है। उसे देखकर या पढ़कर लड़कियों के विचार खराब नहीं, वरन् पवित्र होते हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ों अमेरिकन युवतियाँ खजुराहों की मूर्तियाँ देखने आती हैं और अपने विचार पवित्र करके वापस चली जाती हैं। ‘मेघदूत’ में नायक द्वारा नायिका के नाड़ा खोलने की जो कथा प्रस्तुत की गयी वह ‘पुरुष’ द्वारा ‘प्रकृति’ के बन्धन खोलने की प्रतीक है। जो लोग इसे सांसारिक अर्थें में लेते हैं वे नीच हैं। उनके विचार पहले से ही दूषित हैं और उन दूषित विचारों का आरोपण वे पवित्र वस्तुओं पर करते हैं। कालिदास कितना महान् था और हम कितने गिरे हुए इन्सान हैं। मगर वसन्त की ऋतु में यह भेदभाव-भरी दृष्टि शोभा नहीं देती। कवि कहता है-सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ! हे प्रिये, वसन्त की ऋतु में सब-कुछ और ज्यादा सुन्दर हो गया।

‘ऋतुसंहार’ में कालिदास ने वसन्त का जो वर्णन किया है वह नितान्त पवित्र व अलौकिक है। उस वर्णन को भी लौकिक अर्थों में लेना कवि के साथ अन्याय करना ही है। कवि कहता है कि ‘वसन्त में पेड़ फूलों से युक्त हैं, जल कमल से युक्त है, हवा सुगन्धि से युक्त है और स्त्रियाँ कामदेव से युक्त हैं। सभी कुछ सुन्दर है। इस ऋतु में कामवती रमणियों के नितम्बों को कुसुम रंग से रँगे कपड़ों से और स्तनों को कुंकुमरंजित गोरे वस्त्रों से सजाया जाता है। इन दिनों स्त्रियाँ कानों में कनेर व अशोक के पुष्प धारण करती हैं। जो युवतियाँ मदनातुर हैं उनके स्तनों पर सफेद चन्दन से सिक्त मालाएँ सुशोभित हैं। पृथ्वी फूलों के कारण लाल बहू सरीखी दीखती है। अशोक के वृक्ष फूलों से लद गये हैं और स्थिति इतनी नाजुक हो गयी है कि पतियों के पास रहते हुए भी युवतियाँ उत्सुक हो रही हैं।’ जैसा कि मैंने पहले ही कहा, इन बातों को लौकिक अर्थों में लेना कवि के साथ अन्याय करना है। कवि कहता है कि वसन्त का सौन्दर्य देखकर सहृदय लोग व्यथित हो रहे हैं। वसन्त का दु:खी होने से जो चिरन्तन सम्बन्ध है वह कालिदास ने भी निभाया है। इस दु:ख के अतिरिक्त शेष जो कुछ है, वह वसन्त में सब सुन्दर है।

मैं ‘ऋतुसंहार’ बन्द कर देता हूँ। इसे पढ़कर मेरा मन भी दु:खी होने लगता है। सोचता हूँ कि हिन्दी की आज की कविता से तो लोकगीत ही ज्यादा दमदार होते हैं। कोई-कोई होली ऐसी फड़कती हुई होती है कि एक बार सुनकर उम्र-भर याद रहती है। एक होली मुझे याद है जिसमें एक युवती सबसे होली खेलने के निजी संकल्प पर प्रकाश डालती है। ‘मैं ससुर जी से होली खेलूँगी तो घूँघट की ओट करूँगी। जेठजी से खेलूँगी तो बरोठे की ओट करूँगी, देवर से खेलूँगी तो नयनों की ओट से काम निकाला जाएगा। अन्त में चलकर जब चौथी होली बलमजी से खेल्यों तो खेल्यों जोबनवा की ओट।’ कितना पवित्र प्रेम है। सादा जीवन उच्च विचार। फागुन में कहीं-कहीं ‘कबीर’ भी गाया जाता है। यह काफी साफ किस्म की शायरी होती है और इसमें स्त्री-पुरुषों के आपसी सम्बन्धों पर कुछ इस अन्दाज से प्रकाश डाला जाता है कि सुनकर लज्जा आती है। काव्य की इस विधा में मुझे बचपन से ही बड़ी रुचि रही है और कुछ कबीर तो मुझे याद भी हैं। चूँकि आपके विचार दूषित हैं, मैं उन्हें यहाँ सुनाऊँगा नहीं।

वसन्त आ गया। पलाश नहीं फूले वरन् किसी ने अपना कलेजा ही काढ़-काढ़कर वृक्षों की डालों पर लटका दिया। जैसा कि जाहिर है काफी बड़े कलेजे का कोई प्रेमी रहा होगा वरना इतने वृक्षों की सेवा एक साथ होनी मुश्किल थी।

२० जून २०११