हास्य व्यंग्य

मैं तेरा मेहमान
संजीव निगम


इतिहास गवाह है कि सिकंदर महान से लेकर मुझ तक, हर महान आदमी के शौक भी महान ही होते हैं। हम महान लोगों को दूध की बोतल पीने के दिनों से ही कुछ ऐसी आदत पड़ जाती है कि कोई भी काम सामान्य ढँग से कर ही नहीं सकते हैं। आखिर पूरी दुनिया की निगाहें जो हम पर लगी होती हैं। कोई शौक भी पालते हैं तो ऐसा कि लोग कहें," शौक हो तो ऐसा, वरना न हो।"

अब सिकंदर महान जैसों को तो खामख्वाह के लड़ाई झगड़ों से ही फुरसत नहीं थी जो अपने शौकों को भली भाँति पाल पोस सकते। उसके उलटे मुझ बन्दे के पास अपने शौक को हरा हरा चारा खिला कर पालने का टाइम ही टाइम है और इसलिए हमने अपने शौक का जी भर कर आनंद लिया है।

अपना शौक है, मेहमान बनने का। जी हाँ, हमारी हिन्दुस्तानी सभ्यता की एक बड़ी प्यारी अदा है 'मेहमान नवाजी'। हमारे यहाँ लोग मेहमान को अलौकिक भगवान का लौकिक रूप समझते हैं इसलिए खुद चाहे महंगाई के इस दौर में बिना शक्कर की चाय पियें पर मेहमान को मधुमेह का मरीज़ करने की सीमा तक मीठा खिलाते हैं।

देखा जाए तो हमारे देश में बड़े फ्री स्टाइल टाइप की मेहमानदारी होती है। कोई बंधन नहीं, कोई रोक टोक नहीं। आप रात १२ बजे भी जाकर अपने मेज़बान का दरवाज़ा पुलिसिया बेशर्मी से ठोंक सकते हैं। बेचारा शराफत का मारा मेज़बान सोते से उठकर भी हाथ जोड़कर आपका स्वागत करेगा। अगर आप किसी दूसरे शहर से आ रहे हैं तो अपना सामान आँखें मलते हुए मेज़बान के हाथों में थमाकर बड़ी बेतकल्लुफी से उसके ही सोफे पर पसरते हुए कह सकते हैं," भाई सीधा स्टेशन से आ रहा हूँ। बड़े ज़ोर की भूख लग रही थी। पर बाहर का खाना खाकर कौन अपना पेट खराब करता। सोचा अपने ही तो घर जा रहे हैं, वहीं चलकर भाभी जी के हाथ का गरमागरम खाना खायेंगे।" और बेचारी भाभीजी नींद से झुकी पलकों के साथ आपके लिए पूरियाँ तलने में जुट जायेंगी। जब तक वे बेचारी अपनी नींद उड़ाकर आपके लिए खाना तैयार करें, तब तक आप मौके का फायदा उठाकर एक झपकी मार लें।

वैसे विदेश की तुलना में भारतीय मेहमानदारी ज्यादा स्थायी प्रकार की होती है। जैसी आपकी श्रद्धा और सहूलियत हो उसके मुताबिक आप कुछ घंटों से लेकर कई महीनों तक के मेहमान हो सकते हैं। अकेले खुद से लेकर पूरे परिवार समेत मेज़बान के ड्राइंग रूम में कबड्डी खेल सकते हैं। प्रत्येक वर्ष जब मई जुलाई और अक्टूबर नवम्बर में स्कूलों की छुट्टियाँ होती हैं तो ऐसे सुखद दृश्य घर घर की कहानी की तरह, घर घर देखे जा सकते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि आप किसी के घर पहुँचे तो देखा कि वे अपना सामान बाँध बूँधकर बाहर जाने के लिए तैयार खड़े हैं। आपको देखते ही वे अचकचाकर कहेंगे," अरे आप लोग? इस वक़्त यहाँ...कैसे ?" आप बड़ी गरमजोशी से उनके ठन्डे पड़ते हाथ को थामकर कहेंगे," भाई, मुन्नी को आपकी बड़ी याद आ रही थी, कहने लगी अबकी छुट्टियाँ चच्चा के यहाँ बिताएँगे...तो बस आना ही पड़ गया, आप लोग कहीं बाहर जा रहे थे क्या? ।" सभ्यता के मारे आपके मेज़बान अपनी पत्नी और बच्चों की लाल लाल आँखों से बचते हुए, होंठों पर हँसी का हल्का सा चतुर्भुज बनाते हुए कहेंगे, "नहीं नहीं, बाहर नहीं जा रहे थे, हम तो सामान बाँधकर यूँ ही आपस में छुट्टी छुट्टी खेल रहे थे।" और इसके बाद वे अपने दिल का दर्द अपने दिल में समेटे हुए अपने सामान के साथ साथ आपका सामान खोलने में भी मदद करेंगे।

चूँकि हीरे की कदर सिर्फ जौहरी ही जानता है। इसलिए हमारी संस्कृति के इस कोहिनूर हीरे को हमारी पारखी नज़र ने बहुत साल पहले ही ताड़ लिया था। और तभी से हमने ये भीष्म प्रतिज्ञा कर ली थी कि साल के ३६५ दिनों में से ज्यादा से ज्यादा दिन अपने रिश्तेदारों, दोस्तों व जानकारों के मेहमान बनकर उन्हें कृतार्थ करते रहेंगे।

हमारे हक़ में एक बात अच्छी है कि हमारे माता पिता दोनों की तरफ का कुनबा काफी लम्बा चौड़ा है। शादी के बाद उसमें पत्नी के कुनबे का भी समावेश हो गया। इसके अलावा कई चलते फिरते जानकार भी हैं। आपकी दुआ से बन्दे ने उन्हें भी अपनी मेहमानदारी से नवाज़ रखा है। अपना तो उसूल इतना सीधा है कि कभी कोई सड़क चलता हुआ हमारी ओर देख भर लेता है तो तुरंत उससे पूछ बैठते हैं," और भई घर कब बुला रहे हो!" इसी बेतकल्लुफी के चलते कई बार हम बिना जान पहचान के लोगों की ड़ाइनिंग टेबल की शोभा बढ़ा चुके हैं। हमारे उनके घर से खा पीकर तथा फिर आने का वादा करके निकलने के बाद अक्सर वो मियाँ बीवी अक्सर इस बात को लेकर आपस में लड़ मरते हैं कि आखिर हम उन दोनों में से रिश्तेदार किसके थे।

वैसे सच पूछा जाए तो मेहमान बनना एक ऐसी कला है जिसका विकास अभी पूरी तरह से नहीं हो पाया है। अब यही देखिये जब कभी किसी उच्च कोटि के मेहमान का उदाहरण देना होता है तो मुझे अपना ही नाम लेना पड़ता है। आज के इस कठिन आर्थिक युग में यह काम भी कठिन होता जा रहा है। कितने दाँव पेंच लड़ाने पड़ते हैं कहीं मेहमान बनने के लिए। जैसे कभी किसी ऐसे दोस्त के घर जाना पड़ जाए जहाँ खाना मिलने की उम्मीद ना हो तो सीधा घर की मालकिन पर ब्रहमास्त्र चलाना पड़ता है। यानि कि सिचुएशन कुछ यूँ होती है कि ' हम दोस्त के घर पहुँचे। उसने तुरंत मातमी सूरत बनाकर पूछा," आज फिर कैसे आना हुआ?" जवाब में हमने तुरंत दूसरे कमरे में बैठी मन ही मन हमें कोसती हुई उसकी श्रीमती जी को लक्ष्य करके कहा," बस क्या बताएँ यार ! उस दिन भाभी जी के हाथ का लाजवाब खाना क्या खाया कि अब किसी और के हाथ के खाने में स्वाद ही नहीं आता है। ससुरे फाइव स्टार होटल के शेफ भी भाभी जी के हाथ के जादू के आगे पानी भरते हैं।" बस हो गया किला फतह। अब हमारा प्यारा दोस्त भले ही हमें घर से धक्के देकर निकालना चाहता हो पर प्यारी भाभीजी अपने इस कद्रदान देवर को भूखा थोड़े ही जाने देंगी।

शादी होने के बाद से हमने बच्चों के स्कूल की छुट्टियों के दिनों वाली थोड़े स्थायी प्रकार की मेहमानदारी विधा के विकास की ओर भी काफी ध्यान दिया है। ऐसी मेहमानदारी की फसल उगाने के लिए ससुराल की धरती काफी उपजाऊ रहती है। ससुराल पर धावा बोलते समय बच्चों का बड़ा सहारा रहता है। जितने ज्यादा बच्चे होंगे, उतनी ही ज्यादा बार हमला करने की सुविधा रहेगी। एक साल टुन्नू को अपने नाना नानी की याद आएगी, तो दूसरे साल टिन्नी को। तीसरे साल मुन्नी को और ये क्रम इसी प्रकार चलता रहेगा। पिछली बार तो ऊपरी बच्चों का नंबर खतम होने पर मुझे अपने छह महीने के बच्चे का सहारा लेकर कहना पड़ा, "इस बार मेरी बुआ जी बुला रही थीं पर क्या बताऊँ इस छुटके को अपने नाना नानी की इतनी याद आ रही थी कि मजबूरन यहाँ आना पड़ गया।" एक शातिर को बेटी देकर फँस गए ससुराल वालों के सामने इस कुतर्क को भी मानने के सिवाय चारा ही क्या था।

ससुराल सम्बन्धी दूसरी रिश्तेदारियों में हमारे कुशल निर्देशन में श्रीमती जी भी ज़बरदस्त भूमिका निभाती हैं। अपने शिकार के घर पहुँचते ही अपनी चाची, मौसी या मामी से लिपट जायेंगी और बड़े भावुक स्वर में कहेंगी," जबसे मुई शादी हुई है, आपसे सही ढँग से मिलने तक को तरस गयी हूँ। इसलिए इस बार इनसे लड़ झगड़कर सबको लेकर इधर आई हूँ ताकि जी भरकर आपके साथ रह सकूँ।" और वे बेचारियाँ जब तक अपनी इस भतीजी या भांजी के प्रेम प्रदर्शन के इस अप्रत्याशित हमले से बाहर आती हैं तब तक हम अपने सूटकेसों को उनके घर में जमाकर अपनी दीर्घकालिक उपस्थिति के स्पष्ट संकेत उन्हें दे देते हैं।

अपनी मेहमानदारी विशेषज्ञता से हमने अपने नाते-रिश्तेदारों को इतना लाभान्वित किया है कि उनमें से कई के बच्चे बड़े बड़े कोर्पोरेट हाउसेस में 'गेस्ट रिलेशन ऑफिसर' बन गए हैं और कुछ लोगों ने बिना कोई कैटरिंग डिप्लोमा पास किये अपने खुद के रेस्टोरेंट खोल लिए हैं। अपना तो छोटा सा देशभक्तिपूर्ण प्रयास यही है कि एक दिन 'गिनीस बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स ' में यह छपे कि दुनिया में सबसे अधिक मेहमान बनने का रिकॉर्ड भारत के इस लाडले सपूत ने स्थापित किया है। अगर मेरे सम्बन्धी, दोस्त और जानकार थोड़ा सा धैर्य रखें तो ये काम कोई मुश्किल भी नहीं है। उनका हौसला बढ़ाने के लिए मैं अक्सर उन्हें ये शेर सुनाता रहता हूँ-

शुक्र कर उस खुदा का, और मुझ मेहमान का,
तेरा खाना खा रहा हूँ, तेरे दस्तरखान पर।

२५ फरवरी २०१३