हास्य व्यंग्य


अधिकार का असली मजा
महेशचंद्र द्विवेदी


अधिकार के नियमानुसार उपयोग में उसका क्या मज़ा है? सदुपयोग करने में अधिकार अधिकार कहाँ रह जाता है- वह तो कर्तव्य मात्र बन जाता है। असली मज़ा तो अधिकार के विवेकाधीन (स्वलाभाधीन) उपयोग में है। मन्त्री के हाथ में विवेकाधीन (व्यवहार मे रिश्वताधीन) कोटा न हो, पुलिसवाले को निर्दोषों को पकड़ने का अधिकार न हो, कलक्टर साहब को मनमाने ढंग से लाइसेन्स देने की छूट न हो, ट्रेन के बाबू को टिकट हेराफेरी करके देने की जुगाड़ न हो, तो ऐसे मंत्री, ऐसे पुलिसमैन, ऐसे कलक्टर, और ऐसे ट्रेन के बाबू को कौन घास डालेगा - बेचारों की नकचढ़ी मेम साहिब का पाउडर, मस्कारा और लिप-स्टिक का खर्च तक पूरा नहीं होगा।

अंग्रेज़ी ज़माने में भी हम अपने बच्चों को यह बात तो घुट्टी में ही पिला देते थे कि अधिकार का सुविधानुसार (फ़ायदानुसार) प्रयोग करना हमारा आधिकारिक कर्तव्य है। स्वतंत्रता मिलने पर हमारी अक्ल भी स्वतन्त्र हो गई और हमने एक नई खोज और कर ली कि कानून एवं अधिकार का दुरुपयोग कर निस्सहाय आदमी या निष्पक्ष अधिकारी को झमेले में डाल देने में जो थ्रिल है, वह तो भारतीय टीम द्वारा पकिस्तान को हौकी मैच में हराने में भी नहीं है। पुलिस विभाग में अपनी नियुक्ति के दौरान मैंने इस थ्रिल के परमानंद में डुबकी लगाते हुए हरिद्वार के प्रभावशाली मठों/अखाड़ों के महंतों/साधुओं को देखा था। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये, क्योंकि साधु और महंत हर प्रकार के थ्रिल में डुबकी लगाने के लिये ही होते हैं। हरिद्वार के 'बड़े साधुओं' के चेले सम्पूर्ण भारत में हैं और हरिद्वार में उनमें से अधिकांश के प्रतिद्वंद्वी भी हैं। अतः वे अपने प्रतिद्वंद्वी साधु के विरुद्ध गौहाटी, इम्फाल, कोच्चि, अथवा मैंगलौर जैसे सुदूर स्थान पर रहने वाले अपने किसी चेले द्वारा वहाँ के थाने अथवा अदालत में कोई मनगढंत केस लगवा देते थे फिर उस प्रतिद्वंद्वी की वहाँ से ज़ारी समन, वारंट का पालन करने और केस की पैरवी करने में खाट खड़ी होते देखने के परमानंद में डूबे रहते थे।

नारी को दहेज के अभिशाप से मुक्ति दिलाने हेतु दहेज-विरोधी अधिनियम पारित हुआ। यद्यपि अधिकांश सांसद अपने लाड़लों के विवाहोत्सव में जी भरकर दहेज लेने एवं अनाप-शनाप खर्च करने में किसी से फिसड्डी नहीं हैं, तथापि जनभावना (वास्तविकता में वोटों का) का खयाल कर उन्होंने दहेज विरोधी अधिनियम पारित कर दिया। पता नहीं उन्होंने इसे पास कराने हेतु अपना हाथ उठाने से पहले बिल को पढ़ने की तकलीफ़ गवारा की थी या नहीं, परंतु इस अधिनियम ने दहेज के लेन-देन में तो कोई कमी नहीं की, उन लड़कियों के माता-पिताओं की चाँदी अवश्य कर दी है, जो अपनी मन-मर्ज़ी न करने देने पर ससुराल वालों पर दहेज की माँग करने का आरोप लगाने अथवा आत्म-हत्या करने का थ्रिल लूटने की ठान लेते हैं। भविष्य के लाभ को ध्यान में रखकर लड़कियों के घरवाले दहेज उत्पीड़न की रिपोर्ट में बिना किसी भेदभाव के लड़की के पति, सास, ससुर, दादी, ददियाससुर, जेठ, जिठानी, देवर, ननद आदि घर के सभी सदस्यों को आरोपी बना देते हैं। रिपोर्ट लिख जाने के पश्चात बाकी का काम मीडिया और विभिन्न महिला संगठन दौड़कर अपने ऊपर ले लेते हैं। अपने चैनेल/संगठन को चमकाने हेतु सब आरोपितों को शीघ्रातिशीघ्र बंदी बनवा देने और उनकी ज़मानत न होने देने की होड़ उनमें लग जाती है। कालांतर में जब ये संगठन किसी अन्य थ्रिलिंग घटना का मज़ा लूटने में मस्त हो जाते हैं और जेल में सड़ रहे झूठे-सच्चे आरोपितों को भूलने लगते हैं, तब लड़की वालों की ओर से लड़के वालों को ले-दे कर मामला सुलटा लेने के फ़ीलर्स भेजे जाने लगते हैं। उस समय बेचारे लड़के वाले 'मरता क्या न करता' की स्थिति में होते हैं। उन्होंने विवाह के समय दहेज चाहे लिया हो या न लिया हो, वे उलटा लड़की वालों को दहेज देकर जान बचाने में ही अपनी भलाई समझने को मजबूर हो जाते हैं।

दहेज विरोधी अधिनियम ने लड़की वालों को कानूनन मिले अधिकार का दुरुपयोग कर लड़के वालों से खुन्नस निकालने एवं धन-लाभ प्राप्त करने के जो अवसर उपलब्ध कराये हैं, उससे कहीं अधिक प्रभावी अवसर अनुसूचित जाति / जनजाति अधिनियम ने इन जातियों के व्यक्तियों को उपलब्ध कराये हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत अनुसूचित जाति / जनजाति का कोई व्यक्ति अन्य जाति के व्यक्ति पर गाली देने मात्र का आरोप लगाकर उसे ग़ैरज़मानती धाराओं के अंतर्गत बंदी बनवा सकता है। दूसरी ओर अगड़ी जाति के व्यक्ति को गरियाये जाने, पीटे जाने और लाठियों से मारे जाने (जब तक हड्डी न टूट जाय) का आरोप भी अपराधियों को बंदी बनाने का अधिकार पुलिस को नहीं देता है। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति / जनजाति का व्यक्ति अपने ऊपर गम्भीर अपराध होने की रिपोर्ट लिखा देने मात्र पर सरकार से मुआवज़ा प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। इन जातियों के वोट बटोरने के लालच में अनेक ऐसे प्रकरणों में भी 'दयालु' शासन द्वारा मुआबिज़ा दिया गया है, जिनमें जाँच के उपरांत आरोप मनगढ़ंत साबित हुए। स्पष्टतः जब इस अधिनियम के अंतर्गत आरोप लगाने में 'आम के आम और गुठलियों के दाम' हैं, तब इस अधिनियम के अन्तर्गत सच्ची-झूठी रिपोर्ट लिखाने में कौन पीछे रहेगा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी इस अधिनियम ने थ्रिल प्रदान करने के नवीन अवसर उपलब्ध कराये हैं। इन्जीनियरिंग / मेडिकल कालेजों में आरक्षण से भरती हुए छात्रों का वहाँ की अत्यंत कठिन पढाई को समझ न पाने के कारण फ़ेल हो जाना सामान्य समझ की बात है। पर उन छात्रों द्वारा परीक्षा उत्तीर्ण कर पाने की अपनी असमर्थता पर प्रोफ़ेसरों पर जाति के कारण फ़ेल करने का आरोप लगाकर अनुसूचित जाति आयोग में शिकायत कर प्रोफ़ेसरों की खाट खड़ी कर देना निर्विवाद रूप से थ्रिलिंग है। कुछ दिन पूर्व लखनऊ के चिकित्सा विश्वविद्यालय द्वारा ऐसा ही आरोप राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के समक्ष लगाया जाना और उसके द्वारा जाँच में असत्य पाया जाना इसका ज्वलंत उदाहरण है।

हमारे देश के शासकीय कर्मचारी अपने काम में चाहे कितने भी अकुशल हों, अपने दुष्कर्मों के परिणाम से बचने के उपाय ढूँढने में उनका विश्व में सानी नहीं है। जब से पोस्टिंग (जैसे पुलिस उपनिरीक्षक को थानाध्यक्ष बनाने का आरक्षित प्रतिशत) एवं प्रोन्नति (प्रत्येक प्रोन्नति में जातीय आरक्षण) में आरक्षण लागू हुआ है, आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को वरिष्ठ के अनुशासन में रहने अथवा निष्ठापूर्वक कार्य करने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई है। अतः उच्चाधिकारियों द्वारा दंडित किये जाने पर ये कर्मचारी उन पर खुलेआम जातीय भेदभाव के कारण दंडित करने का झूठा आरोप लगाकर मज़ा लूटने लगे हैं। शनैः शनैः यह मर्ज़ उच्चतम सेवाओं में भी फैल गया है। गत सदी के आठवें दशक में उत्तर प्रदेश पुलिस के एक धुरबेईमान एस. पी. को आई. जी. द्वारा दंडित किये जाने पर उसने उन पर जातीय भेदभाव के कारण दंडित करने का झूठा आरोप लगाया था, और वोटों की राजनीति के कारण उस एस. पी. के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हुई थी। उस घटना ने अन्य आरक्षित वर्ग के अधिकारियों के लिये इस थ्रिल में डुबकी लगाते रहने की दिशा में पथप्रदर्शक का काम किया है।

इस मुफ़्त में मिलने वाले मज़े को लूटने मॆं हमारे देश के नेता भला क्यों पीछे रहते? सम्भवतः आप अभी भूले नहीं होंगे कि जब तत्कालीन मंत्री ए. राजा पर घोटाले के गम्भीर आरोपों के कारण प्रधान मंत्री ने उन्हें मंत्रिमंडल में लेने में आनाकानी की थी, तब करुणानिधि ने प्रेस वालों के समक्ष डंके की चोट पर पलटवार किया था कि उसके शूद्र होने के कारण सभी लोग उस पर मनगढंत आरोप लगा रहे हैं।

हमारे समाज की समरसता की भावना के लिये यह ‘गर्व’ का विषय है कि न्यायपालिका के कतिपय सम्माननीय सदस्य भी अब इस मुफ़्त में मज़ा लूटो अभियान में खुलेआम कूद पड़े हैं। मेरा विश्वास है कि २ नवम्बर, २०११ को टाइम्स आफ़ इंडिया में छपी खबर इस दिशा में मील का पत्थर साबित होगी। इस खबर के अनुसार मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस सी. एस. करनन, जो अपने कतिपय निर्णयों के कारण विवादास्पद बन गये हैं, ने अनुसूचित जाति आयोग से शिकायत की है कि उनके ब्रदर-जजों ने उन्हें अपमानित करने का अभियान चला रखा है। कभी उनकी नेम-प्लेट कुचल देते हैं, कभी अपना जूते वाला पैर उनकी ओर दिखाते हैं और कभी उनकी कुर्सी के पीछे बैठकर उसे हिलाते रहते हैं। खबर यह भी है कि आयोग ने इन शिकायतों को बड़ी गम्भीरता से लिया है।

मेरी नाकिस राय में भी कुर्सी हिलाना बेशक नाकाबिलेबर्दाश्त हरकत है। हाँ, यह बात अवश्य है कि जब भारत में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा आरोपित न्यायमूर्तियों तक की कुर्सी कोई नहीं हिला पाया है, तब कुर्सी हिलाने के आरोप का उद्देश्य अधिकार का असली मज़ा लेने के अतिरिक्त क्या हो सकता है?

१२ मई २०१४